Sunday 31 March 2024

लक्ष्मीकांत मुकुल के प्रथम कविता संकलन "लाल चोंच वाले पंछी" पर आधारित कुमार नयन, सुरेश कांटक, संतोष पटेल और जमुना बीनी के समीक्षात्मक मूल्यांकन

लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताओं में मौन प्रतिरोध है
– कुमार नयन


आधुनिकता की अंधी दौड़ में अपनी मिट्टी, भाषा, बोली, त्वरा, अस्मिता, ग्राम्यता, को बचाए रखना बहुत कठिन है, खासकर कविता में जहाँ रोज-ब-रोज शब्द अपना अर्थ खोते जा रहे हैं. ऐसे में कोई कविता या संग्रह अपनी जड़ों को तलाश करते हुए मानवीय संवेदना को स्पर्श करे, तो निश्चय ही मन की व्याकुलता और चिन्ता को एक

आलंबन मिलता है. युवा कवि लक्षमीकांत मुकुल का हाल में ही प्रकाशित काव्य संग्रह ‘लाल चोंच वाले पंछी’ की अधिकांश कवितायें इस अर्थ में पाठकों को काफी सुकून दे जाती हैं. पुष्पांजलि प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित इस संग्रह में कुल 59 कवितायें हैं, जो स्मृतियों के झरोखे से मानवीय मूल्यों की प्रतीति कराने में सचेष्ट दिखती हैं. कविताओं में अतीत के प्रति व्यामोह है, जो छूट गया, वह कितना जरूरी और मूल्यवान था, इसका एहसास बड़ी सिद्दत से इन कविताएँ में किया जा सकता है. आज के इस क्रूर समय में जहाँ रिश्तों पर बाज़ार का प्रभाव छाने लगा है, कवि एक पहाड़ी गाँव में प्रेम में पगे कोहबर की पेंटिंग को देखकर आशान्वित हो उठता है कि पृथ्वी के जीवित रहने की संभावनाएँ अभी भी जीवित है.


लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताओं में संवेदना का ज्वार है, तो मानवीय मूल्यों के टूटने की पीड़ा भी. सभ्यता के विकास के नाम पर जो शहरीकरण और बाजारीकरण हो रहा है, उसमें गाँव – जवार के तमाम प्राकृतिक अवयव और संसाधन हमसे दूर होते जा रहे हैं और तमाम सुविधाओं के बीच जीवन दूभर होता जा रहा है. आधुनिकता का अँधा दौर हमारी संवेदना को लीलता जा रहा है. हम न स्वयं को, न अपनों को, न अपने गाँव को, न छवर (पतला रास्ता) को पहचान पा रहे हैं – ‘बदलते युग की इस दहलीज पर / मानचित्र के किस कोने में बसा है तुम्हारा गाँव / किन सडकों से पहुंचा जा सकता है उस तक?’ (बदलते युग की दहलीज पर). कवि आधुनिकता की दौड़ में हो रहे बदलाव में विघटन देख रहा है. ‘गाँव तक / सड़क आ गयी / गाँव वाले / शहर चले गये’ संग्रह की इस छोटी कविता में त्रासदी भी है, पीड़ा भी. संग्रह की शीर्षक कविता ‘लाल चोंच वाले पंछी’ बहुत सहज और सरलता से यह एहसास करा जाती है कि जहाँ भी श्रम है, प्रकृति है, बदलाव है, सौंदर्य है, वहां लाल रंग है. कवि ने इस कविता द्वारा तथाकथित रूढ़ी को तोड़ने की कोशिश की है कि लाल रंग कोई हिंसा या खूनी क्रांति का प्रतीक है. लाल रंग तो प्रकृति, प्रगति और सकारात्मक परिवर्तन का द्योतक है.

लक्ष्मीकांत मुकुल की इन कविताओं पर आरोप है कि वे पूरी तरह से नोस्टाल्जिक हैं. कवि किसी भी तरह की आधुनिकता या कोई नयापन से गुरेज करता हुआ दिखाई देता है, परन्तु इसके बावजूद कविताओं में एक अनुपस्थित या परोक्ष प्रतिरोध का स्वर है. जो पूरी तरह मौन होकर भी वैश्विक पूंजीकरण और उत्तर आधुनिकता के समक्ष तन कर चीख रहा है.


बहुत ही शालीनता और सूक्ष्मता से कवि ‘चिड़ीमार’ कविता में आम लोगों को आगाह करता है – ‘वे आयेंगे तो बुहार ले जायेंगे हमारी खुशियाँ, हमारे ख्वाब, हमारी नींदें, वे आयेंगे तो सहम जायेगा नीम का पेड़, वे आयेंगे तो भागने लगेंगी गिलहरियाँ.’ कविताओं में व्यवस्था के प्रति मौन विरोध है, किन्तु कहीं-कहीं संयमित आक्रोश भी मुखर हुआ है, ‘इधर मत आना वसंत’ में कवि का आक्रोश प्राथमिकी दर्ज कराता हुआ चीख पड़ता है – ‘दूर – दूर तक फैली हैं / चीत्कारों के बीच चांचरों की चरचराहटें / फूस – थूनी – बल्लों से ढंकी दीवालों पर / पसर रही है रणवीर सेना की सैतानी हरकतें.’ कवि मन इस क्रूर व्यवस्था से इतना व्यथित है कि वह इस दुनिया से ही पलायन करने को संकल्पित हो उठता है. ‘आत्मकथ्य’ कविता में ब्यक्त इन भावात्मक विचारों को पढ़कर पाठक यह समझ सकते हैं कि कवि क्रूरता, अन्याय, कुव्यवस्था से लड़ने के बजाय कायरतापूर्वक पलायन को तरजीह देता है, जो कवि प्रकृति के सर्वथा प्रतिकूल है. परन्तु विचारणीय है कि जब मानवीय मूल्यों पर घोर संकट छाया हुआ हो और आम आदमी नियतिवाद के दुष्चक्र में फँसा हुआ नैराश्य और अवसादग्रस्त हो तो कवि की अभिव्यक्ति का विचलित हो जाना स्वाभाविक है. यहाँ कवि अवसादग्रस्त पीड़ित व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करता हुआ यह निर्णय लेने को विवश दिखता है – ‘देखोगे / किसी शाम के झुरपुटे में / चल दूंगा उस शहर की ओर / जिसे कोई नहीं जानता ......  लोग खोज नहीं पायेंगे / कहीं भी मेरा अड़ान...... परिकथाओं से मांग लाऊंगा वायु वेग का घोड़ा / और चल दूंगा उस अदृश्य शहर की ओर.’ ऐसा नहीं है कि लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताओं में सिर्फ अतीत प्रेम और निराशात्मक बिम्ब हैं. इसमें भविष्य भी है और ‘अंखुवाती उम्मीद’ भी–

‘काश ! ऐसा हो पाता / पिता लौट आते खुशहाल / माँ की आँखों में पसर जाती / पकवान की सोंधी गंध / मेरी अंखुवाती उम्मीदों को मिल जाते / अँधेरे में भी टिमटिमाते तारे.’

दरअसल कवि की चिन्ता मानवीय रिश्तों की मिठास और प्रगाढ़ता बचाए रखने की है, जो सिर्फ और सिर्फ उन तमाम चीजों और क्रिया – कलापों को संजोकर रखने से ही संभव है, जो हमारे लिए बेहद आत्मीय प्राणदायी है, इसलिए – ‘महुआ बीनती हुई / हज़ार चिंताओं के बीच / नकिया रही है वह गंवार लड़की / कि गौना के बाद / कितनी मुश्किल से भूल पाएगी / बरसात के नाले में / झुक – झुककर बहते हुए / नाव की तरह / अपने बचपन का गाँव.’ उम्मीद जगाती कविता ‘उगो सूरज’ में कवि अपने मन की इच्छाएँ बेलौस होकर ब्यक्त करता है – ‘सूरज ऐसे उगो ! / छूट जाए पिता का सिकमी खेत / निपट जाए भाइयों का झगड़ा / बच जाए बारिश में डूबता हुआ घर / माँ की उदास आँखों में / छलक पड़े खुशियों के आंसू.’ कुछ ऐसे ही भाव ‘गाँव बचाना’ में भी उभर कर आये हैं.

कवि अपने गाँव और गाँव से जुड़ी सभी चीजों को, सात पुश्तों से चली आ रही इंसानी परंपरा की बुनियाद पर टिकी संस्कृति को बचाये रखने की गुहार लगाता है.


संग्रह की सबसे लम्बी कविता ‘कोचानो नदी’ जिसके किनारे कवि का गाँव ही नहीं हजारों गाँव बसते हैं, जो जन – जन के लिए ही नहीं, पेड़ – पौधों, पशु – पंछियों के लिए भी जीवनदायिनी है, वह संकटग्रस्त है. कवि को डर है कि नदियों और पर्वतों का सौदा करने वाली यह ब्यवस्था – ‘कहीं रातों – रात पाट न दे कोई / मेरे बीच गाँव में बहती हुई नदी को / लम्बे – चौड़े नालों में बंद करके / बिखेर दे ऊपरी सतह पर / भुरभुरी मिट्टी की परतें / जिस पर उग आये / बबूल की घनी झाड़ियाँ / नरकटों की सघन गांछें.’ संग्रह की अनेक कवितायें उल्लेखनीय हैं, जिसमें कवि की स्मृतियों का भावुक प्रलाप विविध प्रतीकों व बिम्बों में झलकता है, वस्तुतः ये कवितायें समय के दबाव को झेलती हुई मनुष्यता की कराह है, जो यथास्थिति एवं जड़ होती जा रही व्यवस्था के विरुद्ध प्रतिरोध रचती हैं. बेहद आंचलिक या देशज , ठेठी बोली के शब्दों के प्रयोग ने इसे लोकभाषाई ताना – बाना से पूरी तरह सराबोर कर दिया है. कहीं – कहीं ठेठ गंवई शब्दों के व्यामोह में अभिव्यक्ति कि स्पष्टता बाधित हुई सी लगती है. कवि को इसमें सावधानी बरतने की आवश्यकता है.

फिर भी सीधे सपाट बिम्बों और प्रतीकों में अभिव्यक्त लोक चेतना से आप्लावित ये कवितायें सफल और सार्थक वितान रचती हैं. सर्वत्र कवि का शिल्प वैशिष्ट्य और निजपन पाठकों को सुखद स्मृतियों के सहारे मानवीय संवेदना की अनुभूति प्रदान करते हैं. कहना चाहिए कि समकालीन आंचलिक कवियों के बीच लक्ष्मीकांत मुकुल अपनी कविताओं के खुरदरे रचाव और अपनी अल्हड अभिव्यक्ति में अलग और अभिनव हैं.

संपर्क –
कुमार नयन
खलासी मोहल्ला,
बक्सर – 802101

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लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताओं में भूमंडलीकरण की आंधी में गाँव की चिन्ता
- सुरेश कांटक, कथाकार

मेरे सामने युवा कवि लक्ष्मीकांत मुकुल का काव्य संकलन ‘लाल चोंच वाले पंछी’ है. इस संग्रह में उनसठ कवितायें संकलित हैं. इन तमाम कविताओं को पढ़ने और उन पर विचार करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि आज जब चारों तरफ बाजार अपनी माया फैला रहा है, हमारे मानव मूल्य इसी प्रचंड – धारा में तिरोहित हो रहे हैं, रिश्ते – नाते तिजारती जींस में बदल रहे हैं, भूमंडलीकरण के नाम पर आयातित विचार और जींस हमारी संस्कृति को निगलने में कामयाब है. एक कवि की चिन्ता अपनी मौलिकता को बचाने में संलग्न है. उसके शब्द उसके सपनों को साकार करने के लिए आकुल – व्याकुल हैं.

कवि अपनी रचनाओं में अपने गाँव को बचाने की चिन्ता जाहिर करता है. उनकी कविताओं में ‘पथरीले गाँव की बुढ़िया’ के पास बहुत बड़ी थाती है, वह थाती लोक कथाओं की थाती है. साँझा पराती की है. जंतसार और ढेंकसार की है. वह अपनी जिंदगी की नदी में लोककथाओं को ढेंगी की तरह इस्तेमाल करती हुई अपनी हर शाम काट लेती है. अतीत की घाटियों से पार करती वह वर्त्तमान की जिंदगी को भी देखती है, जहाँ तकनीकी हस्तक्षेप उसके गाँव की मौलिकता को निगलती जा रही है. कौवों के काँव – काँव के बीच उसे अपना अस्तित्व कोयल की डूबती कूक - सा लगता है. कवि कहता है –

‘रेत होते जा रहे हैं खेत / गुम होते जा रहे बियहन / अन्न के दाने / टूट – फूट रहे हैं हल जुआठ / जंगल होते शहर से अउँसा गए हैं गाँव /......दैत्याकार मशीन यंत्रों , डंकली बीजों / विदेशी चीजों के नाले में गोता खाते / खोते जा रहे हैं निजी पहचान.’

यहाँ निजी पहचान के खोने का दर्द कवि लक्ष्मीकान्त मुकुल की कविता में ढल कर आया है. गाँव की सुबह और गाँव का भोर कवि की आँखों में कई – कई दृश्य लेकर आते हैं, जहाँ आस्था के पुराने गीतों के साथ किसानों का बरतस है, ओसवनी का गीत है, महुआ बीनती लड़की का गौना के बाद गाँव को भूल जाने का दर्द है, हज़ार चिन्ताओं के बीच बहते हुए नाव की तरह अपने गाँव के बचपन की स्मृतियाँ है.

इस संग्रह में संकलित ‘लुटेरे’ और ‘चिड़ीमार’ जैसी कवितायें मुकुल की वर्त्तमान चिंताओं की कवितायें हैं, जिसमे बाजारवाद का हमारे जीवन में पैठ जाना, बिना किसी हथियार के ध्वस्त कर देना शामिल है. हमारी हर जरूरत की चीजों में मिला है उसका जहर, जो सोख लेगा हमारी जिंदगी को, अर्थव्यवस्था में दौड़ रही धार को.


‘अंगूठा छाप औरतों के लिए विदा गीत’ भी गाँव के मौसम और ढहते सपनों का दर्द बयान करती कविता हैं. इसमें खेत – खलिहान के कर्ज में डूबते जाने और प्रकृति में चिड़ियों का क्रंदन भी शामिल है. ‘धूमकेतु’ में गाँव को बचाने की चीख है, जिसे धूमकेतुनुमा भूमंडलीकरण ध्वस्त करने का संकेत देता है. “जंगलिया बाबा का पुल “जैसी कविता में हरे - भरे खेत को महाजन के हाथों रेहन रखने वाले किसानों की चीख समायी हुई है, जिससे जीवन के सारे मूल्य दरकते हुए लगते हैं.

कवि लक्षमीकांत मुकुल गाँव के साथ – साथ प्रकृति के दर्द को भी अपनी कविता में समेटने का प्रयास करते हैं. प्रकृति और फसलों का साहचर्य धुन इनकी कविताओं का मर्म है. ‘ धूसर मिट्टी की जोत में ‘ गाँव की उर्वरा शक्ति की ओर संकेत करता है कवि.

जब गाँव की बात आती है, तब किसान और मजदूर की छवि बरबस कौंध जाती है, ‘ पल भर के लिए ‘ कविता में गाँव की दहशत की आवाज है, जिसे खेत जोतकर लौटते हुए मजदूर झेलने को विवश होते हैं. ‘ इंतजार ‘ जैसी कविता में थके हारे आदमी और बांस के पुल घरघराना एक रूपक रचाता है, जिंदगी की बोझ और टूटते हुए साँसों की नदी का, जिसे सम्हालने में डरता है बांस का पुल.

शीर्षक कविता ‘ लाल चोंच वाले पंछी ‘ की पंक्तियाँ हैं –

“ तैरते हुए पानी की तेज धार में / पहचान चुके होते हैं वे अनचिन्हीं पगडंडीयां / स्याह होता गाँव / और सतफेडवा पोखरे का मिठास भरा पानी. “ ये पंछी नवंबर के ढलते दिन की कोंख से चले जाते हैं. धान कटनी के समय और नदी किनारे अलाप भर रहे होते हैं. वे दौड़ते हैं आकाश की ओर / उनकी चिल्लाहट से / गूँज उठता है बधार.....अटक गया है उनपर लाल रंग / बबूल की पत्ती पर. ये पंछी कौन ? ललाई लेकर आते हैं , पूरब का भाल लाल करने के लिए , स्याह होते गाँव में उजास भरने के लिए. इसलिए लाल रंग के रेले से उमड़ आता है घोसला

कवि इन पंक्तियों के माध्यम से यथास्थिति को तोड़ने वाले वैचारिक संदर्भों को चिन्हित करता है. बहुत बारीकी से वह प्रकृति का वह रूपक रचता है, जिसमें पंछी अपने विचारों की लाली लिए उतरते हैं. चिड़ीदह में झुटपुटा छाते ही जैसे और लगता है टेसू का जंगल दहक रहा हो, फ़ैल रही हो वह आग जो तमाम उदासियों को छिन्न – भिन्न कर देने का लक्ष्य पालती है अपने सपनों में.

अन्य कवितायें जिसमें ‘ कौवे का शोकगीत ‘ , ‘ पौधे ‘ , ’ बदलाव ‘ , ’ बचना – गाँव ‘ , ’ लाठी ‘, ‘इधर मत आना बसंत ‘ , ’ तैयारी ‘ , ’ आत्मकथा ‘ , ’ टेलीफोन करना चाहता हूँ मैं ‘ शामिल हैं, जो गाँव की विभिन्न स्थितियों का बखान करती हैं जिसमें कवि की बेचैनी साफ़ – साफ़ दृष्टिगोचर होती है. राजनीतिक दलों एवं नेताओं के हंगामे से मरती उम्मीदों की छाया भी दिखाती है, ‘ कौवे का शोकगीत ‘ जैसी कविता में अब निराशा के कुहरे जैसी लगती है नेताओं की बयानबाजी. गाँव के किसान मजदूर मगन रहते हैं अपने काम में. कौवा शोर होता रहता है. नये का आगम संकेतवाहक रूप नहीं दिखता उनमें.


फिर भी कवि भविष्य की उम्मीद जगाने की कविता ‘ पौधे ‘ लिखता है. अपने गाँव को हजार बाहों वाले दैत्य बाजारीकरण से बचने की सलाह देता है.


कुछ कविताओं में कवि का अतीत मोह भी चुपके – चुपके झांकता सा लगता है जैसे ‘लाठी‘

में. कहीं बाबा की मिरजई पहनकर गायब हो जाना चाहता है. पोख्ता वैचारिक दृष्टि सम्पन्न रचनाकार नये सृजन के नये आयामों को टटोलना बेहतर समझता है गुम हो जाने से.

कवि की प्रेम के प्रति गहरी आस्था भी एक कविता ‘ पहाड़ी गाँव में कोहबर ‘ को देखकर झलक जाती है. भयंकर दिनों में भी प्रेम की पुकार जिन्दा थी. बीहड़ जंगल की अँधेरी गुफा में भी रक्तरंजित हवा के साथ प्रेम की अमरता की शिनाख्त कर लेता है कवि. जो मानव सृष्टि का आधार है. कोहबर पेंटिंग में पूरे युग की त्रासदी बोलती है. प्रकृति, पंछी , जीव जंतु, मानव हृदय की धड़कन सब दिख जाता है उसे.लोरिक - चंदा की प्रेम - लीला जैसे झांकती है लोकगाथा में.

इस तरह कवि में संभावनायें उमड़ती दिखती हैं. वैचारिक धार इसमें बहुत कुछ जोह जाती है. संग्रह की कवितायें उम्मीद जगाती है. पठनीय है. इसका स्वागत होना चाहिए.

---संपर्क :- कांट, ब्रह्मपुर,
बक्सर,बिहार - 802112

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पुस्तक समीक्षा : लाल चोंच वाले पंछी

- समीक्षक: सन्तोष पटेल

काव्य मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति का सर्वाधिक जीवंत माध्यम है।प्रभाव उत्पन्न करने  की दृष्टि से काव्य मानवीय अंतश्चेतना को प्रभूतत: आकृष्ट एवं प्रेरित करता है। अतः अनादिकाल से आज तक कविता का महत्व स्वीकारा गया है।

मैक्सिकन कवि ऑक्टविया पाज ' कविता' को दूसरी आवाज़ कहता है। इतिहास या प्रति इतिहास की आवाज़ नहीं, बल्कि एक ऐसी आवाज़ जो (लय और झंकार तात्कालिकता की) इतिहास के भीतर हमेशा कुछ अलग कहती है।'

ऐसी ही एक आवाज़ लक्ष्मीकांत मुकुल के सद्य: काव्य संग्रह ' लाल चोंच वाले पंछी' में दर्ज है। 59 कविताओं को पढ़ने के बाद लगता है कि कवि का गाँव की मिट्टी से कितना लगाव है। मुकुल ग्रामीण परिवेश में रहना पसंद करते हैं।वे नगर के 'मेडिंग क्राउड' दूर रहकर प्रकृति से करीबी रिश्ता में विश्वास करते हैं। खेत -खलिहान, पोखर, तलाब, नदियाँ, चिरई-चिरुंग से कंसर्न तो हैं ही, साथ ही समाज के मुख्यधारा में अब तक नहीं आये घुमन्तु जन जनजातियों, आदिवासी, महिलाओं के हक-हुक़ूक़ और मरते नदियों के बचाव के लिए भी मुखर हैं। देशज शब्दों से लदी इनकी कविताएं बोधगम्यता को कहीं बाधित नहीं करतीं, वरन सहजता से सम्प्रेषित होती हैं। 

अमेरिकन कवि एडगर ए पोई ( Edger A Poe) लिखता है कि - कविताओं की सबसे अच्छी बात यह है कि सत्य को उद्घाटित करती है और यह एक नैतिकता का संचरण करती हैं और इसी नैतिकता की एक काव्यात्मक योग्यता की परख कविता में ही की जाती है। 
इस संग्रह में एक कविता है - बदलाव। मुकुल ने इस छोटी से गात की कविता में मानो एक बड़ी चिंता को अभिव्यक्त कर दिया है-

"गाँव तक सड़क
आ गई
गाँव वाले
शहर चले गए।"

इन चार पंक्तियों में मुकुल ने भारतीय समाज की समस्याओं और समाधान का एक महाकाव्य रच दिया है। सत्य है कि जहाँ कवि गाँव से नगर की ओर तेज़ी से हो रहे पलायन से आहत है ; लेकिन यह फौरी तौर पर है ,परन्तु जब कविता की अंतवस्तु का विश्लेषण किया जाए ;तो कवि इस 'बदलाव' से आहत नहीं, बल्कि प्रसन्न है कि गाँव वर्ण व्यवस्था का संपोषक होता है ,ऐसी स्थिति में पलायन इस अर्थ में मानवता को सम्पोषित करना का टूल है, जहाँ इंसान जाति नहीं, आवश्यकता और काम से जाना जाता है और तब यह कविता मनुष्यता की भाव - दशा के सबसे करीब है।

इस संग्रह में एक कविता है 'धूमकेतु'। बिंम्बों से लबरेज यह कविता दुनिया में तेजी से हो रहे बाजारीकरण और ग्लोबलाइजेशन की मुख़ालफ़त बड़ी ताकत से करती है। मुकुल इस कविता में बिंम्बों ( image) का करीने से प्रयोग  करते हैं और कविता सबलाइम हो जाती है। उद्दात भाव की इस कविता को देखें-

"चाँद तारों के पार से
अक्सर ही आ जाता है धूमकेतू
और सोख ले जाता है हमारी
जेबों की नमी।" 

मुकुल बिंम्बों का प्रयोग मुक्तिबोध की तरह करते हैं ;जो अर्थ सर्जन करते है ,बोझिल नहीं बनाते। एजरा पाउंड की बात याद रखना चाहिए- उन्होंने बिम्बवादियों को अपने बहुचर्चित आलेख' अ फ़्यू डोनट्स' (1913) में चेताया था कि बिम्ब के नाम पर जरूरत से ज्यादा शब्द विशेषकर विशेषण नहीं प्रयोग करें।' 

मुकुल के काव्य संग्रह से गुजरने के बाद उनकी काव्यशैली (poetic diction) पर कविता की जानिब से बात करना वाजिब होगा। इस संग्रह की बहुतायत कविताएं यथा, लाल चोंच वाले पंछी, कौए का शोकगीत, बसंत आने पर, बदलते युग की दहलीज पर, गाँव बचना, लाठी आदि में देशज शब्दों का प्रयोग लालित्य पूर्ण है-
 
नवम्बर में ढलते दिन की
सर्दियों की कोख से
चले आते हैं ये पंछी
शुरू हो जाती है जब
धान की कटनी
वे नदी किनारे आलाप 
भर रहे होते है।"
( 'लाल चोंच वाले पंछी' कविता से)

कवि प्रवासी पंछियों के कलरव और जल क्रीड़ा  को देख भावविह्वल है। नवंबर माह में हज़ारों किलोमीटर की यात्रा कर विदेशी पक्षियों का आगमन कवि ह्रदय को मुग्ध कर देता है और कवि देशज शब्दों में विदेशों पक्षियों का अभिवादन करता है। इस भाषा को विलियम वर्ड्सवर्थ लिखता है_ Langauage near to the language of man.

मुकुल की कविताओं में ऐसे सहज शब्द जो गाँव के हो, किसान के हो , हलवाहों के हो , चरवाहों के हो  और कविता का विषय भी उनका ही हो, यह सुगमता से दिखता है। 
चमघिंचवा, अदहन, बीजू का तना हुआ लोहबान, बथान, करवन की पत्तियां, जतसार और पराती, पीली मिट्टी से पोता उसका घर, लाल सिंहोरा, चितकाबर चेहरे, ड़ेंगी, बिअहन अन्न के दाने, हल-जुआठ और झँउसा आदि अनेक शब्द ग्रामीण जीवन की सहजता को सम्प्रेषित करते हैं।

मुकुल की कविताएं सामाजिक सरोकार रखती है उसका एक उदाहरण हम उनकी कुछ कविताओं में देख सकते हैं जैसे सियर -बझवा। सियर-बक्षवा या सियार मरवा यह एक स्थानीय नामकरण है ,दरअसल यह एक घुमन्तु जन जाति (नोमेडिक ट्राइब) होते हैं। ऐसी बंजारा जाति खानाबदोश का जीवन जीती है और अपने भोजन के लिए बिलाव ,स्यार आदि जानवरों का शिकार कर अपना भोज्य बनाती है। ये यायावर  जातियां देश की मुख्यधारा से कोसों दूर हैं और आदिम युग में जीने को अभिशप्त है। कवि उनकी दशा को अपनी कविता में उल्लेखित करता है -

"दौड़ रहे हैं उनके पांव
समय के हाशिए की पीठ पर
वे सिंयर-बझवे हैं
शिकारी कुत्तों के साथ उछलते हुए
जैसे कोई प्रश्न प्रतीक।" (सिंयर-बझवा)

जर्मन कवि बेन ने कहा है कि आदर्श कविता वह है जो आदि से अंत तक कविता ही कविता है, जिसके भीतर न तो कोई आशा है, न विश्वास जो किसी को भी सम्बोधित नहीं है, जो केवल उन्हीं शब्दों का जोड़ है, जिन्हें हम मोहिनी अदा के साथ एकत्र करते हैं। परंतु मुकुल की कविता बदलते गाँव के बानगी है-
" जिस जमाने में
गांवों जैसे बनने को आतुर हैं शहर
और शहर जैसे गाँव
जिन घरों में बजती थी काँसे की थाली
गूंजते थे मंडप में ढोल की थाप
जिस जमाने में गाये जाते थे
होरी-चैता कजरी के गीत
कहीं बैठती थी बूढ़ों की चौपाल।"

इस कविता में कवि परिवर्तन को बहुत आसानी से स्वीकार नहीं कर पाता। वह इस परिवर्तन के कारण लगातार नॉस्टेल्जिया से जूझता रहता है। कवि को बुद्ध के उस सन्देश याद रखना था। बुद्ध के अनुसार "परिवर्तन ही सत्य है। पश्चिमी दर्शन में हैराक्लाइटस और बर्गसाँ ने भी परिवर्तन को सत्य माना। इस परिवर्तन का कोई अपरिवर्तनीय आधार भी नहीं है। बाह्य और आंतरिक जगत् में कोई ध्रुव सत्य नहीं है।"

मुकुल की कविताओं में प्रतीकों का प्रयोग बहुतायत है जो मूर्त नहीं हो पाती हैं ,जिसके कारण पाठक इन कविताओं में उलझ जाता है ,क्योंकि अर्थवत्ता के आधार पर पाठक को कुछ रचनाएँ सहजता से समझ नहीं आती। 

वैसे बिम्ब विधान में जो सम्मुर्तन और चित्रोपमता की प्रधानता होनी चाहिए थी ,वह कुछ कविताओं में नहीं हैं जिसके कारण कुछ कविताएं सम्प्रेषण के स्तर और कमजोर हैं। पाठक बेकन के शब्दों में उन कविताओं का टेस्ट भर करता है, रसास्वादन नहीं। 
बाबजूद इसके कवि की कारयित्री प्रतिभा इस कृति में दिखती है और कविता प्रेमियों को इसे जरूर पढ़ना चाहिए। इस बेहतरीन कविता संग्रह के लिए लक्ष्मीकांत मुकुल बधाई के पात्र है।

कृति- लाल चोंच वाले पंछी
रचनाकार- लक्ष्मीकांत मुकुल
विषय- कविता
प्रकाशक- पुष्पांजलि प्रकाशक, दिल्ली,
संस्करण- 2016
मूल्य-  रुपये 300

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विचारशील व्यक्ति की आर्द्र भरी पुकार है लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताएं

_ जमुना बीनी 



मैं किसी आलोचकीय दृष्टि से लैस नहीं हूँ। अतः यहाँ लक्ष्मीकांत मुकुल के कविता संकलन"लाल चोंच वाले पंछी"पर कविता संबंधी जो विचार व अनुभूति मैंने प्रकट की है,इसे आप एक पाठक की हृदय से निकली प्रतिक्रिया मात्र ही समझें।मेरी छोटी-छोटी प्रतिक्रियाएँ इस तरह हैं_

"अंगूठा छाप औरतों के लिए विदा गीत"  कविता को पढ़ते हुए यह महसूसा कि गाँव के अपढ़ स्त्रियों के साथ प्रकृति अनायास ही गाने लगती है क्योंकि यह गीत उनके अंतरतम या कहे कि पोर-पोर से निसृत है_

मेरे गांव की अंगूठा छाप औरतें
उतरने लगता सूरज उनींदी झपकियों के झीने जाल में
वे गाने लगतीं
हवा के हिंडोले पर बैठकर तैरने लगती पक्षियों की वक्र पंक्तियां
वे गाने लगतीं
गाने लगती तेज चलती हुई लू में चंवर डुलाती हुई

"लाल चोंच वाले पंछी"कविता को पढ़ते ही मुझे स्वतः मेरे गाँव में जाडे़ में सुदूर तिब्बत से उड़कर आते प्रवासी पक्षियों की याद आ गयी। 'गुत' नामक यह पक्षी जाडे़ में उष्णता की खोज में तिब्बत के बर्फीले पहाडो़ं से मीलों की दूरी तय कर हमारे गाँव आया करती थी। माँ बताती थी कि अतीत में केलेण्डर का चलन था नहीं, अतः गुत पक्षी के आगमन पर ही हमारा लोकपर्व 'बूरी-बूत' का आयोजन होता था_

नवंबर के ढलते दिन की

सर्दियों की कोख से

चले आते हैं ये पंछी

शुरु हो जाती है जब धान की कटनी

वे नदी किनारे आलाप भर रहे होते हैं

लाल चोंच वाला उनका रंग

अटक गया है बबूल की पत्ती पर

सांझ उतरते ही

वे दौड़ते हैं आकाश की ओर

उनकी चिल्लाहट से

गूंज उठता है बधार

और लाल रंग उड़कर चला आता है

हमारे सूख चुके कपड़ों में

बदलाव:- संग्रह की सबसे छोटी मगर सबसे मार्मिक व मन-मष्तिस्क को भेदने वाली कविता है यह। कविता सवाल करती है कि क्या विकास का मात्र भौतिक पक्ष महत्वपूर्ण है ! साल दर साल सड़कों का जाल बिछता जा रहा है। सड़कों को जीवनरेखा कहकर प्रचारित किया जाता रहा। पर सड़कों के साथ कई अवांछित वस्तु-स्थिति भी गाँव में प्रवेश करती है। यह वस्तु-स्थिति गाँव और गाँव वासी को गहरे तक प्रभावित करती है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सड़कें अगर जीवनरेखा है तो पलायन का सबसे आसान मार्ग भी है। लोग झुण्ड के झुण्ड इन्हीं सड़कों से पलायन कर एक हँसता-खेलता गाँव को रातोंरात भूतहा गाँव में तब्दील कर चले जाते हैं। पलायन मानवजाति की सबसे प्राचीन गतिविधि रही है पर आज तथाकथित विकास ने इसे तीव्र गति प्रदान की है_

गांव तक सड़क
आ गई
गांव वाले
शहर चले गये।

"गाँव बचना" इस बिंबप्रधान कविता की भाषा अत्यंत महीन एवं पारदर्शी है। कविता में आज के प्रत्येक विचारशील व्यक्ति की आर्द्र भरी पुकार है_

गांव बचना
कि इस युग में कुछ भी नहीं बचने वाला
माटी कोड़ती
सुहागिनों के मंगल-गीत में बचना
बचना दुल्हिन की
चमकती हुई मांग में
बचना
जैसे बच जाती हैं सात पुश्तों के बाद भी
धुंध्ली होती पूर्वजों की जड़ें!।

धीमे-धीमे :- कविता में तब और अब यानी अतीत तथा वर्तमान का सच्चा एवं प्रामाणिक चित्र अंकित है। परिवर्तन अवश्यंभावी है तथापि मन कहता है कुछ स्थितियाँ ज्यों की त्यों बनी रहें, स्थिति की शाश्वतता खत्म न हो_

कोमल धागों के संबंध
बिखरे नहीं थे उन दिनों
बुझी नहीं थी दीया-बाती की
जलती-तपती लपटें
तब धीमे-धीमे चलते थे लोग
धीमे-धीमे पौधे बढ़ते थे
आंधी धीमे-धीमे चलती थी।

प्रसंग :- कारुणिक कविता है यह। मन बींध गया कविता को पढ़कर। कल्पनालोक और यथार्थलोक में बहुत बडा़ फासला होता है, इस सत्य को कविता में बखूबी चिन्हित किया गया है_

नींद उचटते ही
बदल चुकी होती है पूरी दुनिया
हमारी पहचान खत्म हो चुकी होती है
हमें कोई काम नहीं मिल पा रहा होता
हमारे बच्चे भूल गये होते हैं
स्कूल से निकलते हुए
हमारी घरनियां लूट गयी होती हैं
कितनी झूठी आशाएं थीं
मां की वे कहानियां
सफेद झूठ
जिनको आज संजोते वक्त
सपनों के मोती बिखर जाते हैं
अनायास ही।

" टेलीफोन करना चाहता हूँ मैं" कविता से स्पष्ट है कि जो व्यक्ति जितना जडो़ं से दूर होता है वह जडो़ं की ओर उतना खिंचाव महसूस करता है। इस खिंचाव को हम कविता में शिद्दत से महसूस कर सकते है_

 इतने मीलों दूर बैठकर टेलीफोन से

बातें करना चाहता हूं अपने गांव के खेतों से

जिसकी पक चुकी होंगी फसलें
पर उसका नंबर मेरी डायरी में अब तक दर्ज नहीं
बातियाना चाहता हूं
खलिहान के दौनी में लगे उन बैलों से
जो थक गये होंगे शाम तक भांवर घूमते हुए
उन भेडों से, जो आर-डन्डार पर
घासें टूंग रही होंगी

मुकुल जी के संग्रह की अन्य कविताएँ जैसै जंगलिया बाबा का पुल, पल भर के लिए, पौधे, कोचानो नदी, लाठी, गान, उगो सूरज, आत्मकथ्य, प्रलय के दिनों में, दहकन आदि कविताओं ने मुझे बहुत प्रभावित किया है। आपकी भाषा बिंबात्मक भाषा मसलन उकताहट भरी शाम, सूरज की उनींदी झपकी, बहते पानी में चेहरा नापते बचपन के खोए झाग, नदी के पालने में झूलते हुए गाँव आदि ऐसे अनेक पंक्तियों को मैंने रेखांकित कर रखा है।  आपको बधाई इस सार्थक व सफल संग्रह के लिए.....!

                         _ डॉ.जमुना बीनी तादर

                            हिंदी विभाग,

                             राजीव गांधी विश्वविद्यालय, 

                            दोइमुख (अरुणाचल प्रदेश)

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Saturday 30 March 2024

लक्ष्मीकांत मुकुल के कविता संग्रह – “घिस रहा है धान का कटोरा” पर कौशल किशोर, शैलेंद्र अस्थाना, अजय चंद्रवंशी, नीलोत्पल रमेश, अरविन्द श्रीवास्तव, मिथिलेश रॉय, कनक किशोर, चंद्रबिंद सिंह, तेजप्रताप नारायण की समीक्षाएं

लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताएं
लोकजीवन का सौंदर्य और श्रम संस्कृति की आभा


_ कौशल किशोर

हिंदी की प्रगतिशील कविता लोकधर्मी कविता है जिसके केंद्र में किसान, मजदूर, गांव और लोकजीवन है। समकालीन कविता में इनकी उपस्थिति कम होती गई है। वहां नगरीय व महानगरीय जीवन बोध और मध्यवर्गीय संवेदना का पहलू प्रधानता ग्रहण करता चला गया है। कविता में किसानों की चर्चा हुई भी है तो मुख्य तौर से उनकी आत्महत्या को लेकर। इसी विषय पर कविताएं लिखी गई हैं। पिछले दिनों  तीन कृषि कानूनों के विरुद्ध दिल्ली बार्डर पर किसान आंदोलन चला, उसे लेकर भी काफी कविताएं लिखी गईं। ये आंदोलन परक कविताएं हैं जिनका प्रमुख स्वर सत्ता और व्यवस्था के विरोध-प्रतिरोध का है।
  
लक्ष्मीकांत मुकुल लोकधर्मी कवि हैं। इनकी कविताएं लोकजीवन में गहरे धंसी है। इनकी अपनी माटी, भूगोल, भाव-भूमि और लोकेल है। उनका दूसरा संग्रह है ‘घिस रहा है धान का कटोरा‘ जो सृजनलोक प्रकाशन, नयी दिल्ली से आया है। इसमें 75 कविताएं संकलित हैं जो‘किसानी संस्कृति को बचाए रखने के लिए जद्दोजहद करते कृषि योद्धाओं को समर्पित‘ है। शीर्षक और समर्पण से यह बात सामने आती है कि  किसान संस्कृति संकट में है और कवि उसे बचाना चाहता है। उसकी प्रतिबद्धता इस संस्कृति के लिए संघर्षरत कृषि योद्धाओं के साथ है। कविताएं गांव, किसान और आम जीवन में प्रवेश करती हैं, इतिहास से लेकर वर्तमान की यात्रा करती हैं और इसी भाव-भूमि पर खड़े होकर अमानवीय होती वर्तमान व्यवस्था से टकराती हैं। इनमें लोकजीवन का सौंदर्य और श्रम संस्कृति की आभा है।

‘घिस रहा है धान का कटोरा‘ संग्रह की शीर्षक कविता है। यहां जिस ‘धान का कटोरा‘ की बात है, वह  भोजपुर, बक्सर, रोहतास व कैमूर का अंचल है। यह किसान बहुल क्षेत्र है। यहां की मुख्य फसल धान है और यही जीवन का आधार है। गंगा और सोन जैसी नदियां खेतों की सिंचाई करती हैं। धान की पैदावार किसानों की खुशहाली और समृद्धि का कारण है। इसी से उनकी संस्कृति सृजित है जो सोन और गंगा की धारा की तरह जनजीवन में प्रवाहित है। अपनी इन्हीं विशेषताओं के कारण यह अंचल ‘धान का कटोरा‘ के नाम से लोकप्रिय हुआ। इसकी पहचान बनी। लेकिन आज यह कटोरा ‘घिस रहा है‘। वह दुर्गति का शिकार है। किसानों का आर्थिक से लेकर सामाजिक जीवन और उसकी संस्कृति व अस्तित्व संकट में है। कविता अतीत में जाती है और किसान संस्कृति को सामने लाती है, वहीं उसके क्षरण तथा इसके कारणों की पड़ताल भी करती है।

‘घिस रहा धान का कटोरा’ लम्बी कविता है। इसके 17 खंड है। हरेक खंड में किसी खास पहलू पर बात की गई है। जैसे पहले खंड में धान के खेत के मनमोहक दृश्य का दर्शन होता है। कवि उसे प्रसूता की तरह देखता है। धान की बालियां हवा के संग अठखेलियां करती हैं। धान के खेतों का होना मनुष्य के लिए ही नहीं पक्षियों के लिए भी खुशी का सबब है। कविता में खेतों के बीच की पगडंडियों को लेकर बिम्ब द्रष्टव्य है: ‘खेतों के बीच से गुजरती है पगडंडियां/संवारे बाल के बीच उभरती मांग की तरह‘। इन पंक्तियां को पढ़ते हुए मनमोहक दृश्य उपस्थित होता है। वहीं, दूसरे खंड में धान को लेकर लोककथा है जो विभिन्न पीढ़ियों से होते हुए आज तक पहुंची है। इतिहास से लेकर वर्तमान तक की यात्रा में उसका रूप, रंग, प्रकार और प्रजातियां भी बदलती गई हैं।

लक्ष्मीकांत मुकुल अपनी इस कविता के माध्यम से कृषक संस्कृति को सामने लाते हैं। यह मात्र धान की खेती करने तक सीमित नहीं है बल्कि इसने कृषक संस्कृति को भी निर्मित किया है। इसमें सामूहिकता व सामाजिकता की भावना और आत्मनिर्भरता थी। लोगों की जरूरतें सीमित थीं। किसी के सामने हाथ पसारने की जरूरत नहीं थी। यह किसानों का हुनर और सृजनात्मक क्षमता थी कि उन्होंने किसिम-किसिम के चावल पैदा किये। उसके बीज सुरक्षित रखे। कवि मुकुल लोकजीवन में हर्ष और उल्लास देखते हैं। उन्हें रोपनी के गीत, कटनी के गीत याद आते हैं। उन्हें मानसून की पहली बूंद का इंतजार याद आता है, जिसमें लोग हर्षित होते थे। प्रेम के भाव उमड़ने-घुमड़ने लगते। कजरी के, प्रेम और प्रणय के गीत गाए जाते। बैलों के घुंघरू बजते और मन प्रफुल्लित हो जाता। किसान बैलों को अपने बेटे की तरह प्यार करते और माल मवेशियों को अपने जन की तरह ख्याल रखते। लेकिन अब वह बात नहीं है। समय के साथ समाज में बदलाव आया है। इस पर कवि की नजर है और उसे यूं व्यक्त करता है:

‘बदलता गया जमाना/बदलते गए समय के रिवाज/खेती के औजार /बैलों की जोड़ी/बदलते गए रिश्तों को आंकने के पैमाने/धान के भुस्से की तरह/उड़ गई ग्रामीण लोकधारा/गड़गड़ाते ट्रैक्टर दौड़ने लगे खेतों में/हाइब्रिड बीजों की गर्दन काट/नई बाजार लूट संस्कृति की धमक पर‘

वैसे तो परिवर्तन लाजिमी है। लेकिन कैसा है यह परिवर्तन? लक्ष्मीकांत मुकुल को इस बात की गहरी पीड़ा है कि लोक जीवन में जो चीजें गहरे पैठी थीं, वह आज नष्ट कर दी गईं या की जा रही हैं। यह परिवर्तन ‘नई बाजार लूट संस्कृति की धमक पर‘ हो रहा है। इसीलिए कवि के अंदर आक्रोश और बेचैनी  है।

मतलब, यह पूंजीवाद का ग्राम्य जीवन और कृषि उत्पादन में प्रवेश है। पूंजीवाद की प्रकृति ही लूट और मुनाफा है और अपने लूट को छिपाने के लिए वह तरह-तरह के झूठ को समाज में फैलाता है। इस तरह समाज के सांस्कृतिक पर्यावरण को अपने अनुरूप ढ़ालता है। समाज में लाभ, लोभ और लालच की प्रवृत्ति बढ़ती है। समाज में स्वार्थपरता बढ़ती है। यह किसान संस्कृति के विरुद्ध है जिसकी बुनियाद लोक जीवन और सामूहिकता है। यही लक्ष्मीकांत मुकुल की परेशानी का कारण है। किसान संस्कृति के लिए उनके मन में जो छटपटाहट है, वह कविता में अभिव्यक्त होता है।
  
वर्ग समाज में कोई भी संस्कृति द्वन्द्वविहीन या अंतर्विरोध रहित नहीं हो सकती। भोजपुर का अंचल  सामंती प्रभुओं के जुल्म-शोषण-अत्याचार और सामंतवाद विरोधी किसान आंदोलन के लिए जाना जाता है। सामंतों और किसानों के संघर्ष का यह पहलू लक्ष्मीकांत मुकुल की कविता में अनुपस्थित रहता है। लेकिन पूंजीवाद का गांव, किसान और आम आदमी के जीवन में प्रवेश से जो समस्याएं पैदा हुईं हैं, उसे लेकर कवि की चिन्ता है। उसे अतीत के दिन याद आते हैं। प्रथम दृष्टया लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताओं में अतीत के प्रति मोह दिखता है। वह परिवर्तन के विरुद्ध होने का आभास देती हैं। लेकिन कविताओं में प्रवेश करने पर लगता है कि वह उस परिवर्तन के विरुद्ध है जो मानव समाज द्वारा अर्जित सामाजिक मूल्यों के विरुद्ध है। 

एक महत्वपूर्ण बात, लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताएं अतीत के माध्यम से इतिहास को विलुप्त होने से बचाती हैं। यह तो ऐसा दौर है जब स्मृतियों को खत्म किया जा रहा है। ऐसे मे यह वर्तमान के संघर्ष का ही हिस्सा है।  मुकुल अपनी यादों के सहारे वर्तमान की लड़ाई लड़ते है। बल्कि यह कहना ज्यादा श्रेयस्कर है कि स्मृतियां वर्तमान के संघर्ष में इंधन का काम करती हैं और मानवीय प्रतिबद्धता को सुदृढ़ करती हैं।
  
‘छोटी लाइन की छुक छुक गाड़ी‘, ‘कुलधारा के बीच मेरा घर‘, ‘यादों में बसंत का प्यार‘, ‘जोलहल्लूट में बचे बद्ररूद्दीन मियां‘ आदि ऐसी अनेक कविताएं संग्रह में हैं जिनमें कवि वर्तमान और अतीत के बीच आवाजाही करता है। आज भले ही जीवन सुपरफास्ट ट्रेन की तरह दौड़ रहा हो लेकिन वास्तविक जिंदगी की स्थिति ठहरे हुए ट्रेन की तरह हो गई है। तमाम समस्याओं से लोग घिरे हैं, वहीं सांस्कृतिक स्तर पर पूंजीवादी मूल्यों ने उन्हें ग्रसित कर रखा है। स्वार्थपरता, निजता के प्रति आग्रह, सामाजिकता का हनन, द्वेष, ईर्ष्या, आपसी मारकाट जैसे मूल्य प्रभावी हुए हैं। ऐसे में कवि का पुराने दिनों को याद करना और स्मृतियों की ओर जाना स्वाभाविक है क्योंकि उसमें प्रेम व अपनापन होता था, संबंधों में प्रगाढ़ता और निश्च्छलता होती थी। उसमें दिखावापन नहीं था। लोंगों में एक दूसरे के प्रति सहयोग का भाव रहता था। इसलिए उसे याद करने से कवि को मानसिक राहत मिलती है। इन पंक्तियों में देखें-

‘धीमी रेलगाड़ी धीमी चलती थी सबकी जीवन चर्या/तब मिलते थे लोग हाथ मिलाते हुए नहीं/बल्कि गलबहियां करने को आतुर खास अंदाज में/छा जाती थी रिश्ते नाते  की उपस्थिति की महक‘

लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताएं सामंतवाद से पूंजीवाद की ओर हो रहे संक्रमणकालीन दौर की कविताएं हैं। सत्ता की राजनीति वोट की राजनीति में ढ़ल गई है। ‘पंचायत चुनाव में गांव‘ में कवि इस बात को ले आता है कि किस तरह वोट की राजनीति में गांव जाति-धर्म के मकड़जाल में फंस गया है। सामान्य जीवनचर्या सामान्य नहीं रह गई है। समाज में नया ध्रुवीकरण हुआ है। गांव युद्ध का मैदान बन गया है। गांव की पंचायत पर दबंगों का दबदबा है। वर्चस्ववादी शक्तियों का प्रभुत्व ऊपर से नीचे तक बना हुआ है। सच का साथ देने वालों को उसकी कीमत चुकानी पड़ती है। वोट तो जैसे बाजार-हाट की वस्तु बन गई है। वह कहते हैं:

‘जो बेचते नहीं अपना वोट सौदागरों को/नरमेघों की गिद्ध दृष्टि लगी रहती है उन पर/उनके खेत रखे जाते हैं बिन पटे/उनके बच्चे निकाल दिए जाते हैं स्कूल से/घर से निकलने को रोके जाते हैं उनके रास्ते/उनकी औरतें रहती हैं हरदम असुरक्षित‘

यही लोकतंत्र है जिसमें ‘तंत्र’ बचा है, ‘लोक’ गायब है। इसमें गरीब श्रमिक समाज के लिए जगह नहीं है। गांव में रहने का आधार सिमटता गया है तो शहर में भी उनके श्रम की कोई इज्जत और मान-मर्यादा नहीं है। पूरब जिसमें भोजपुर का अंचल शामिल है, उसकी बड़ी समस्या विस्थापन-पलायन है। सामंतवाद की मार हो या पूंजीवाद की, उन्हें रोजी-रोटी के लिए शहरों-महानगरों की ओर पलायन करना पड़ा है। ‘बिहारी‘ कविता में विस्थापन के इसी दर्द की अभिव्यक्ति है - ‘दुखों का पहाड़ लादे सिर पर/चले आते हैं बिहारी‘ लेकिन क्या उन्हें सामान्य जिंदगी भी नसीब होती है? हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी जिल्लत की जिन्दगी मिलती है। ऐसे में अपना गांव और वहां की मिट्टी की सोंधी सुगंध की याद आना स्वाभाविक है। लक्ष्मीकांत मुकुल के काव्य की यह विशेषता है जिसमें वर्तमान में रहते हुए वह अतीत की ओर जाती है तथा ‘परदेस’ में जीते हुए ‘बिहारी’ अपना ‘देस’ यानी ‘गांव का गुलाबी चेहरा’ नहीं भूल पाता है। यह लोक संस्कृति ही है जो दुखों को सहने-उबरने की ताकत देती है:

‘बिहार से बाहर कमाने गए/युवकों के अंतस में महकती है मिट्टी की गंध/उनके पसीने की टपकन से/खिलखिलाता है गांव का गुलाबी चेहरा’

कोरोना काल ने ‘बिहारी’ मजदूरों की दशा-दुर्दशा और धनाढ्य व मध्यवर्ग की मतलबपरस्ती पर पड़े परदे को तार-तार कर दिया। इन्हीं बिहारी मजदूरों को ‘प्रवासी मजदूर’ कहा गया जिन्हें लॉकडाउन में महानगर छोड़ने को बाध्य किया गया। उन्हें सड़को पर ढ़केल दिया गया। वहां उनके साथ जो क्रूर व्यवहार हुआ, उसकी मार्मिक और यथार्थपरक अभिव्यक्ति ‘कोरोना-काल की जख्में टिसती हैं भगेलुआ को’ में है। यहां ‘भगेलुआ’ एक व्यक्ति नहीं है। वह पूरब के श्रमिक समाज का प्रतिनिधि पात्र है। वह महानगरों और उद्योगों में श्रम का मुख्य श्रोत हैं। कविता कोरोना काल में श्रमिक समाज के प्रति बरती गई सरकार और व्यवस्था की निष्ठुरता को उजागर करती है। आज वे यादें जख्म की तरह टीसती हैंः

‘जब-जब बहती है पुरवैया की बयार/स्वतः आते हैं लाठी से मार खाए जख्मों के दर्द/कोरोना-काल के घवाधुल जख्मों की यादें/बेचैन कर देती है भगेलुआ को/जैसे खाते समय मुंह में कुचल गए हों/आलूचाप  में मिर्च....’

समाज में जो घटता है, वह इतिहास में ही दर्ज नहीं होता है बल्कि वह साहित्य में भी संवेग और संवेदना के साथ अभिव्यक्त होता है। वह सृजनात्मक दस्तावेज बन जाता है। कोरोना काल में लिखी कविताएं उस यथार्थ को जिन्दा रखती हैं और इन्हें जिन्दा रखा भी जाना चाहिए ताकि सत्ता और व्यवस्था के जनविरोधी चरित्र और बर्बरता को समझा जा सके।
  
लक्ष्मीकांत मुकुल की नजर हमारे समय पर है। कविताएं उससे साक्षात्कार करती हैं। ऐसा करतते हुए भी  कवि एक पल के लिए भी अपने लोकजीवन की जमीन को नहीं छोड़ता है बल्कि उस पर मजबूती से खड़े होकर वह देश-दुनिया और समय-समाज को देखता-परखता है। उसका नजरिया वर्तमान के प्रति आलोचनात्मक है। देखेंः

‘यह कैसा समय है/रोजगार मांगने वालों को कहा जाता है/टुकड़े टुकड़े गैंग वाला/न्याय की गुहार करने वालों को/आतंकवादी/विश्वविद्यालय के होनहार छात्रों को/अर्बन नक्सली/रोटी के लिए भुखमरी झेल रहे लोगों को/देशद्रोही..... यह कैसा समय है/जब गहन अंधेरे को उजाला/संडास के पानी को गंगाजल/लुटेरों को सही मनुष्य/मानने का चलन हो गया है/इस समय‘

ऐसा ही समय है जब अपराधी, हत्यारे, बलात्कारी, लुटेरे सम्मानित हो रहे हैं और सच्चाई और ईमानदारी की राह पर चलने वाले लोगों को जेल की काल कोठरी मिल रही है। विविधता हमारा संस्कृतिक वैशिष्ट्य है। उसे विलुप्त किया जा रहा है। प्रकृति का दोहन हो रहा है। प्राकृतिक ही नहीं सामाजिक पर्यावरण भी खतरे में है। इतिहास बदला जा रहा है। युवाओं के मानस को विषाक्त किया जा रहा है। कहने का आशय कि संस्कृति को सिर के बल खड़ा कर दिया गया है और असामाजिकता ही सामाजिकता तथा अमानवीयता ही मूल्य है।

लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताएं विविधताओं से भरी है। इनके अनेक रंग हैं। एक तरफ बाजरवाद व संप्रदायवाद पर आधारित सत्ता संस्कृति के प्रति तीव्र नफरत और क्षोभ का भाव है, वहीं श्रमिकों-शोषितों के प्रति प्रेम की सलिला अनवरत बहती रहती है। संग्रह में एक कविता है ‘हरेक रंग में दिखती हो तुम’। यह प्रेम के रंग में सराबोर कविता है जिसमें यह व्यक्त है कि प्रेम में बड़ी जीवनी शक्ति है। वह कठोरता के हिमखण्ड को भी पिघला सकता है। यह भाव कविता में कुछ यूं व्यक्त होता हैः

चूल्हें की राख सा नीला पड़ गया है/मेरे मन का नीला आकाश/तभी तुम झम से आती हो/जलकुंभी के नीले फूलों जैसी खिली-खिली/तुम्हें देखकर पिघलने लगते हैं/दुनिया की कठोरता से सिकुड़े/मेरे सपनों के हिमखण्ड’

‘यादों में वसंत का प्यार’, ‘बिम्ब-प्रतिबिम्ब’, ‘देखना फिर से शुरू  किया दुनिया को’ आदि कई कविताएं हैं जिनमें प्रेम छलछलाता हुआ मिलता है। लक्ष्मीकांत मुकुल के काव्य में जो बिम्ब हैं, वे गढ़े हुए नहीं हैं बल्कि लोकजीवन के हैं। उनमें कृत्रिमता नहीं सजीवता है। कविता में ऐसे बिम्ब-प्रतीक भरे पड़े हैं जैसे - ‘लीची की/मधुर आभास लिए/वैजन्ती फूलों-सी/आंचल लहराती/मसूर कर पत्तियों की तरह/धीमी डुलती हुई’। इनका प्रयोग वही कवि कर सकता है जिसका प्रकृति से गहरा और भावनात्मक लगाव हो।

सार रूप में हम कह सकते हैं कि लक्ष्मीकांत मुकुल हिन्दी के दुर्लभ कवि हैं जहां लोकजीवन व किसान संस्कृति की प्रामाणिक अभिव्यक्ति मिलती है। इसी बुनियाद पर वे कविता की दुनिया रचते हैं और उसे व्यपकता भी प्रदान करते हैं। यहां ‘दिल्ली की सड़कों पर किसान’ हैं तो ‘नए अवतार में चालबाज’ और ‘बेहाल पंछियों पर शातिर नजरें’ भी हैं। ‘आकाश की तरह विस्तृत पिता’ मिलेंगे तो ‘धनहर खेत’ व ‘नदी सरीखी’ मां का दर्शन होगा। कहने का आशय कि कवि के पास विषय की विविधता है। भाषा सहज-सरल और बोधगम्य हैं लेकिन अख्यानपरकता और कथात्मकता के कारण कविताएं विस्तार ले लेती हैं जिससे  बचा जा सकता है। ग्रामीण अंचल की बोलियों का जिस तरह इस्तेमाल हुआ है, उससे हिन्दी को जिन्दगी मिलती है।
  
बात अधूरी रह जाएगी यदि संग्रह की आखिर कविता जो भोजपुरी में है की चर्चा न की जाए। इस कविता से गुजरते हुए मुक्तिबोध की कविता ‘तय करो किस ओर हो तुम?’ की बरबस याद आ जाती है। अपने देशज अन्दाज में कविता ललकार भी है और हम सबके सामने सवाल भी है कि पूंजीवादी-साम्राज्यवादी सत्ता जब ‘मारखाहवा भईंसा’ के रूप में हमारा सबकुछ खत्म कर देने पर आमादा हो, ऐसे में हम क्या करें?:

‘भागल जाव कि भगावल जाव ओके सिवान से
भकसावन अन्हरिया रात में लुकार बान्ह के।’ 

एफ - 3144, राजाजीपुरम, लखनऊ - 226017
मोबाइल - 8400208031


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' घिस रहा है धान का कटोरा ' : बिंबों में गाँव 
_ शैलेंद्र अस्थाना

"घिस रहा है धान का कटोरा" लक्ष्मीकांत मुकुल का सद्य प्रकाशित काव्य संकलन है . इसमें छोटी- बड़ी पचहतर कविताएँ संग्रहित हैं , अंतिम कविता भोजपुरी भाषा में है . पुस्तक का नाम व्यापक अर्थ अभिव्यंजित करता है . हालाकि उड़ती नजर डालने वालों को यह नाम विभ्रम में डाल सकता है और वे इसे थोड़ी देर के लिए भूगोल , कृषि अथवा अर्थशास्त्र से जुड़ी पुस्तक समझने की भूल कर सकते हैं , वैसे मुकुल जी को इतिहास और भूगोल में गहरी रूची है और स्थानीय इतिहास तथा भूगोल का विस्तृत ज्ञान है , यह दिगर बात है , अपनी बात यह है कि पुस्तक का नाम ' घिस रहा है धान का कटोरा ' संकलन के विषय , कथ्य और मिजाज को सांकेतिक अभिव्यक्ति देता है तथा पुस्तक के उद्देश्य को अर्थ देता सटीक लगता है , पुराने जमाने से ही कैमूर, रोहतास , भोजपुर तथा बक्सर का इलाका अपनी उर्वर भूमि और कृषि उत्पाद के लिए जाना जाता है , धान का उत्पादन अधिक होने के कारण यह धान का कटोरा कहा जाता है . इस संकलन की  कविताएँ इसी क्षेत्र के लोगों के जीवन तथा वहाँ के इतिहास को केन्द्र में रख कर रची गई हैं . "घिस रहा है" एक विशेष अर्थ देता है और कविताओं से गुजरने पर इसका अभिप्राय प्रकट हो जाता है कि यह कटोरा घिस क्यों रहा है ? इसके क्षरण के लिए कौन जिम्मेदार है ? वस्तुतः घिसना एक अनवरत , लम्बी तथा धीमी प्रक्रिया है, जिसका आभास नहीं होता . यह अंतत: विलोपन की ओर ले जाती है . पुस्तक वहाँ को लोकजीवन , वहाँ की पारिस्थितिकी , संस्कृति का जीवंत चित्र प्रस्तुत करती हैं तथा बदलते समय में जटिलतर होते सामान के यथार्थ से भी रूबरू कराती है , परिवेश की चित्रमयता तथा उसका डिटेल ऐसा आभास कराता है कि पाठक कवि की ऊँगलियाँ पकड़ कर खेतों, पगडंडियों, गलियों, नदी- नालों के आरों से गुजर रहा है . कवि ने वहाँ बोली जाने वाली सीधी - सरल भाषा का प्रयोग किया है और दुरुह शब्दों अथवा कृत्रिम मुहावरों के प्रयोग से परहेज किया है , उस क्षेत्र का अतीत और वर्तमान अपने ठेठपन के साथ प्रस्तुत हुआ है . संकलन में प्रेम पर भी कविताएँ हैंं, जो प्रेम के उदात् रूप को नए अंदाज में नए अनछुए प्रतीकों के द्वारा अभिव्यजित करती है. कवि ने लोक जीवन और उसकी विसंगतियों  को सैलानी पंछी की तरह विहंगम दृष्टि डाल कर नहीं देखा हैै, वरन उस परिवेश में आँखें खोलने वाले , उसमें डूबने - उतराने वाले व्यक्ति के रूप में उसके यथार्थ  को महसुसा है , एक नई दृष्टि से ग्रामीण परिवेश को देख - समझ कर उसके यथार्थ का प्रतीकों के माध्यम से काव्यांकन करने का प्रयास किया है . गाँव कवि के हृदय में बसा हैै, किन्तु उसकी दृष्टि कहीं भी भावुकतापूर्ण तथा सब्जेक्टिव नहीं है , वह आधुनिक , वैज्ञानिक तथा तर्क पूर्ण है , तभी वह ग्राम जीवन के यथार्थ की सच्ची अनुभूतियों  को अभिव्यक्त करने में सक्षम हो पाया है , वंजर होती जा रही धरती, अतिक्रमित उच्छेदित होते जंगल, मनुष्य के आक्रामक स्वार्थ के सामने हाथ जोड़ती प्रकृति कवि को विचलित और दुखी करते हैं . इसी दुख को कवि ने 
 'फिर आएगा बुकानन' कविता में व्यक्त किया है_ 'कोइलवर घाट पार करते वह पाएगा 
कि सोन में कितनी कम बची है धार '

यहाँ वह गाँव को एक स्वप्नजीवी कवि की दृष्टि से नहीं वरन एक भूगोलवेत्ता की दृष्टि से , समाजसुधारक की तरह  किसान के पक्ष में खड़े हो इतिहास के संदर्भ में देखता है और यथार्थ को ढूंढने का प्रयास करता दिखता है_ 

" वह अचरज से भर जाएगा यह पा कर कि अंग्रेजों से लूटने में कितने माहिर हैं यहाँ के मुखिया - सरपंच - अफसर- मंत्री 

[ फिर आएगा बुकानन ]

साहित्य का उद्देश्य बेहतर मनुष्य का निर्माण है , वह
मानवीय संवेदनाओं की तीव्रता को सशक्त करता है तथा मानवीय संवेदना का आलोक जहाँ कहीं भी उपस्थित हो उसका दर्शन कराता है , जब हिंसा और आत्याचार की धधकती ज्वाला में मानवता विकलांग और विवश हो जाती है, ऐसे समय में भी मानवीय संवेदनाएँ जीवित बची रहने का साक्ष्य प्रस्तुत करती हैं_
 " हत्यारों की हबस से लाल हो गई थी कामनात
 तुम्हे बचाने नहीं आए थे पैगम्बर न 
कोई फरिश्ते " 
[ जोल्लह लूट में बचे बदरुदीन मियाँ ] 

ऐसे समय में इंसानी छतरियों - सा  तन कर बचा लेते हैं, काफिर समझे जाने वाले पंडितजी म्लेच्छ कहे जाने वाले मुहल्ले बदरुद्दीन मियां को . ढेर सारी विसंगतियों को ओढ़ते विछाते . ग्रामीण जन के हृदय में बची शाश्वत मानवीय संवेदना और करूणा में कवि का विश्वास झलक जाता है . अपने समय की घटनाओं से कवि निरपेक्ष नहीं है . सन् 2021-22 में आंदोलन कर रहे किसानों की समस्याओं और उनके संघर्ष को उकेरती है कविता "दिल्ली के सड़कों पर किसान" परिवार की खुशहाली की तलाश में दुखों के पहाड़ लादे सिर पर सुदूर देश जाने वाले किसान पुत्रों की पीड़ा बयान करती है "बिहारी" कविता , कभी गुलजार रहा राजस्थान का कुलधरा गाँव आज विरानी का प्रदर्श बन कर रह गया है . इसी गाँव का रूपक लेकर लिखी कविता " कुलधरा के बीच मेरा घर " पलायन से विरान होते गाँव का चित्र उकेरता है.

कवि मनुष्य द्वारा प्राकृति के अंधाधुंध दोहन और अतिक्रमण से आहत है और भविष्य के प्रति आशंकित_
 "बाइसवीं सदी में खो गई होगीं नदियाँ
 रेतीले तलछटों में" 
[ बाईसवीं सदी में ] 

पर्यावरण की चिन्ता ' जहर से मरी मछलियाँ ' ,  ' किसने कैद किया जल धारों को' , " विलख रही यमुना की नीली जलधारा" जैसी कविताओं में करुणामयता के साथ प्रकट होती हैं, स्थानीय भूगोल के विविध प्रसंग अनेक कविताओं के उपादान बन कर
है. यह एक प्रकार से नया प्रयोग है. स्थानीय इतिहास
में मुकुल जी को न केवल गहरी रुची है. वरन,  वे कविताओं में इतिहास का उत्खनन करते दिखते हैं. इतिहास के प्रति उनका दृष्टिकोण आलोचनात्मक है. वे इतिहास को भविष्य के निर्माण के संदर्भ में देखते है उसमें जीने के लिए नहीं कहा जाता है कि जीवन को समझने के लिए पीछे की ओर देखना होता है और जीने के लिए आगे की ओर.
प्रेम मनुष्य की पहचान है प्रेम मानवीय संवेदनाओं को
उर्जित करता है, विकट परिस्थितियों में भी आशा और
विश्वास टिकाए रखता है तथा जीवन की कठोरता के बीच भी कौमल्म की अनुभूति जीवित रखता है, साहित्य और कला का उद्देश्य प्रेम को विस्तार देना और मानव हृदय को और अधिक संवेदनशील बनाना है. संकलन में प्रेम पर कई कविताएँ हैं जो प्रेम को बेहद संवेदनशीलता तथा सूक्ष्मता से उकेरती हैं. यहाँ प्रेम के मांसल रूप का एक भी रेशा नहीं
दिखता. कवि की प्रेमिका का कोई पार्थिव पहचान नहीं है. वह उसे- "यादों में खोजता है
कभी प्रतीकों में
तो कभी भूले बिसरे प्रतीकों में"
[बिंध प्रतिबिंब]

यहाँ प्रेम एक नया जीवन ले कर आता है जैसे-
पेड़ो में आते हैं
नन्हे दुस्से
खलिहान से आती है
नवान्ह की गंध
तुम आती हो खयालों में
[ पहली बार]


प्रेम का एक दार्शनिक पक्ष भी है . वह हृदय को नए आलोक से भर देता देता है , प्रेमी एक नई दृष्टि पा लेता है_
 "जब तुमने कहा कि 
तुम्हे तैरना पसंद है 
मुझे अच्छी लगने लगी नदी" 
[ देखना फिर शुरू किया दुनिया को]

 कवि का प्रेम वायवीय नहीं, वह प्रेम के उत्कर्ष को प्रतिकात्मक अविव्यंजना देते कहता है जैसे_
 "बाढ़ से बौराई दो नदियाँ
 आपस में खो जाती हैं मुहाने पर 
  गुथ्थम गुथ्थ" 


 प्रेम का एक और रूप मिलता है दशरथ माझी के अथक प्रयास में , उनके अदम्म जिजीविषा में_ 

"तुम्हारे नाम से जीवंत होती है 
बर्बर युग में 
प्रेम की संकल्पना "
[ अदम्य इंसान थे दशरथ बाबा ] 

कवि उस कवि को भी याद करता है जिसने_
"जिसने समझाया हिन्दी कविता में 
स्थानीयता का बोध
 निजता में विश्व दृष्टि का फलक" 
कविता में उस कवि का नाम नहीं है किन्तु 'यहाँ से देखो' तथा माझी के पूल को संदर्भ स्पष्टतः केदारनाथ सिंह की ओर संकेत करदेते हैं. 

 संकलन की पहली कविता 'छोटी लाइन की छुक - छुक गाड़ी' को नॉस्टाल्जिक भाव से याद करता अपने स्मृतियों का उत्खनन करता दिखता है और रेलगाड़िओ में आए बदलाव के साथ लोगों के व्यवहार और उनकी मानसिकता में हुए बदलाव की ओर संकेत करता है . 

 "घिस रहा है धान का कटोरा" सतरह खंडो में बंटी एक लम्बी कविता है. इसी कविता से इस संकलन का नाम भी लिया गया है. यह धान का कटोरा किसी क्षेत्र विशेष का ही नहीं,कहीं का भी हो सकता है धान का कटोरा_
" पहाड़ों की घाटियों-तलहटियों में
समतल मैदानों में
राह बदल चुकी नदियों की छाड़न में".

घिसना परिस्थिति जन्य एक धीमी प्रक्रिया है इसका आभासजल्दी नहीं होता, उस क्षेत्र के लोगों के जीवन, उनकी आर्थिक स्थिति, कृषि और संस्कृति में हो रहे क्षरण तथा विहपण को यह शब्द सटीकता से प्रतिकात्मक - अविभ्यक्ति देता है. किसानी छोड़
श्रमिक बनने के लिए औद्योगिक नगरों की ओर पलायन को विवश युवा, साम्राज्यवादी बाजार का बसता शिकंजा, बदलती कृषि व्यवस्था से ध्वस्त होती ग्रामीण संरचना के रंग रेशे इस कविता में विन्यस्त हैं. इस कविता में कवि अतीतजीवी नहीं 
है, उसका उद्येश्य_
"अन्न तृप्ति की पहचान की बुनियाद
बचाने का भरसक प्रयास"
के लिए प्रेरित उत्साहित करना है. वह ठहरकर सोचने के लिए कहता है, कि_
"कि आने वाले दौर में
किसान विरोधी दतैले चूहों के
बील में कौन डालेगा पानी"

स्पष्टतः यह मानवता विरोधी शक्तियों से दो दो हाथ करने का अह्वान है।
संकलन की अंतिम कविता "भरकी में चहुंपल भईंसा" भोजपुरी में है. यह अटपटा लग सकता है, किन्तु यदि भोजपुरी को हिन्दी की सखी भाषा मा उपभाषा मान लें तो इसकी उपयुक्तता समझ में
आ जाती है, भाषा महत्वपूर्ण नहीं है. महत्व की बात है इस कविता का लक्ष्य और शैली तथा रौंदी जा रही कृषि व्यवस्था, घायल होते ग्राम जीवन की अभिव्यंजना खेतमें पहुँचा भैसा कौन है ? किसका प्रतीक है? स्पष्टता यह भारतीय कृषि व्यवस्था को
बेमरौवत रौंदने वाला साम्राज्यवादी शोषण का भैंसा है, इसे भगाने के लिए लोगों का आह्वान करते हुए कवि लोगों से प्रश्न करता
है, कि भैंसे के कहर से स्वयं भागा जाय या इस अंधेरी रात में लुकार (मशाल जैसी चीज ) लेकर उसे भगाया जाए_
" भागल जाव कि भगावल जब ओके सीवान से
भकसाइन अन्हरिया रात में लुकार बांह के"

शब्दों की मितव्ययीता कविता की मांग होती है. इस
संकलन की कविताओं से गुजरते हुए लगता है जैसे कवि के जेहन में ढेर सारे शब्द व्यक्त होने के उछाल मार रहें हों और कवि उसके मोह से बच नहीं पा रहा हो. कई जगह शब्दों के विस्तार के कारण कविता बिखराव की ओर लुढ़कती लगती है. कविता की बुनावट में ठोसपन और चुस्ती वांछनीय गुण माना जाता है, इसका अभाव से प्रवाह और प्रभाव के
बाधित होने की संभावना बन जाती है. वावजूद संकलन की कविताओं में उबाउपन नहीं है पाठक की दिलचस्पी बनी रहती है, निराला भाषा को भावों की अनुगामिनी कहते हैं. कविताओं
में ग्रामीण (गवंई) संदर्भों, मुहाबरों के भाषा को भाव के
अनुकूल बनाने के साथ पाठक को कविता के परिवेश में पहुंचा देते हैं, जिसे वह स्वयं देखने अनुभव करने लगता है.
कहा जाता है कि कविताएँ जीवन से निर्मित होती हैं,  और जीवन के लिए होती हैं. यह संकलन ग्रामीण
जीवन के अतीत, उसमें आए परिवर्तनों, उनके इर्ष्या,द्वेष, प्रेम सद्‌भाव, दुख-सुख, भावनात्मक सम्बन्धों की निश्छलता सभी को सजोए ग्रामीण जीवन का कोलाज लगता है. कवि गाँव तथा
लोक जीवन को दुनिया से काट कर, आइसोलेशन में नहीं देखता.
वरन, भूमंडलीकरण के दौर में साम्राज्यवादी बाजार के घात- प्रतिघातों तथा तत्‌जनित विद्रुपणों तथा संकुचनों के संदर्भ में देखता हैं और इसकी अनुभूति को चित्रमय काव्याभिव्यक्ति प्रस्तुत करता है.

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'घिस रहा है धान का कटोरा' :- कविता-संग्रह
कवि :- लक्ष्मीकांत मुकुल
प्रकाशक :- सृजनलोक प्रकाशन,नई दिल्ली-110062
मूल्य :- ₹299/-, पृष्ठ :-168, वर्ष :- 2022 ई.
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 संपर्क सूत्र_
- 1731, सिन्डिकेट कॉलोनी,
उलियान, कदमा,
जमशेदपुर, पिन कोड - 231003
(झारखंड)
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 ईमेल_ skasthana.jsr@gmail.com

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घिस रहा है धान का कटोरा : लोक चेतना और सम्वेदना की कविताएं
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मनुष्य का अपने परिवेश से सहज लगाव होता है। उसकी संस्कृति ,इतिहास ,स्मृतियां उसे प्रभावित करती हैं, और इस कारण उसे जानने ,उसे याद करने की उसमे सहजवृत्ति होती है। एक हद तक उसके गुजर जाने और फिर से लौटकर न आने की पीड़ा भी होती है। अतीत व्यक्ति के लिए सामान्यतः मोहक होता है और इस कारण कई बार वह नास्टेल्जिया का शिकार भी हो जाता है।

लेकिन अतीतजीवी होना एक बात है, उसे याद करना, उससे प्रेरणा लेना दूसरी बात।परिवर्तनशील समाज में बहुत कुछ बदलते रहना स्वाभाविक है,मगर सारे परिवर्तन सकारात्मक दिशा में होते रहे हैं, ऐसा नही कहा जा सकता।
आज विकास का जो रूप हमारे सामने है उसमे प्रकृति का विनाश चिंताजनक है। आज जल, जंगल, ज़मीन का जिस तरह क्षय होता जा रहा है उससे भविष्य के भयावहता का अंदाज़ लगाया जा सकता है।

संस्कृति का सम्बंध प्रकृति और परिवेश के भूगोल घनिष्ठ रूप से होता है। इनमे बदलाव से संस्कृति का स्वरूप भी बदलता जाता है और बहुत बाद उसका कोई पहलू नष्ट(विलुप्त) भी हो जाता है।ज़ाहिर है यह सहज बदलाव से भिन्न होता है इस कारण समाज मे इसका प्रभाव सहज रूप से नहीं होता।

कवि मन संवेदनशील होता है,इसलिए वह जहां परिवेश के बदलावों,विडम्बनाओं,त्रासदियों के प्रति मुखर होता है वहीं ये सामान्यतः उसकी कविताओं में दर्ज भी होते जाते हैं।

लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताओं को इस संदर्भ में देखा जा सकता है। उनके कविता संग्रह 'घिस रहा है धान का कटोरा'  की कविताएं लोकजीवन और संस्कृति से घनिष्ठ रूप से जुड़ी हुई हैं।जितना उन्हें लोकजीवन से प्रेम है उतना ही उसके बिखराव पर दुख भी। वे बार-बार भूले-बिसरे उन दिनों को याद करते हैं चाहे वे 'छोटे लाइन की छुक-छुक गाड़ी' हो जिसे "अब शायद ही याद करता है कोई", कुलधरा के बीच का अपना घर "कभी आबाद हुआ करते थे वे खंडहर/उनके चूल्हे के घुएं छेंक लेते थे आकाश",या फिर "छुटपन के साथी पांच-दस पैसे के सिक्के"।

कभी दशहरा में लोग नीलकंठ के दर्शन करते थे अब "दबोच ले गयी है उसे भी विकास की आंधी ने"। चिड़ियों के होने से प्रकृति सुंदर होती है मगर इधर "वैज्ञानिकों की तरह नए अविष्कार/चिड़ियों की जघन्य हत्या करने के/कारगर उपकरण" ढूंढ लिए गए हैं।

बदलाव की बयार इस तरह बह रही है कि बसंत भी ठिठक गया है "व्याकुल है बसंत/बदल रही है ऋतुओं की समय तालिका/समय पूर्व केंचुल छोड़ने को/विवश हो रही है पृथ्वी"

लोक जीवन से जुड़ी व्यवस्थाएं खत्म ही रही हैं।कभी गड़ेरियों के कंबल खरीदने लोग दूर-दूर से आते थे।
"अब कोई नहीं पूछता इनके उत्पादों को/सुदूर गांव तक पहुँचने लगी हैं परदेशी वस्तुएँ"।

नदियां सुख रही हैं।जलधारा कैद हो रहे हैं।मछलियों को पानी मे ज़हर डालकर सामूहिक रूप से मारा जा रहा है।
"हमारी मिट्टी में जन्मी दुधारू पशुओं को/ ले जा रहा है बूचड़खाने में/बदले में लौटते हूए/फ्रीजियन जर्सी नस्ल की गायें"।इस बदले समय मे धान का कटोरा भी घिस रहा है।
"क्या बदलेगी कभी/धान के कटोरे की तकदीर?"

ऐसा नहीं कि इन कविताओं में केवल लोक संस्कृति के विघटन की पीड़ा है।कवि दृष्टि वर्तमान से ओझल नहीं है और समकालीन समस्याओं की तरफ़ उनकी निगाह जाती है।बिहारी मजदूरों के बहाने प्रवासी मजदूरों की पीड़ा

"दुखों के पहाड़ लादे सिर पर/चले जाते हैं ये बिहारी/सूरत,पंजाब,दिल्ली, कहाँ-कहाँ नहीं/हड्डियां तोड़ती कड़ी मेहनत के बीच..........बबूल की पेड़ो पर छाये बरोह की तरह/गुजरते हैं वे अपना जीवन"

पंचायत चुनाव में गाँव की स्थिति

"जो बेचते नहीं अपना वोट सौदागरों को/नरमेधों की गिद्ध दृष्टि लगी रहती है उन पर/उनके खेत रखे जाते हैं बिन पटे/उनके खेत रखे जाते हैं बिन पटे"

दिल्ली में किसानों की ऐतिहासिक हड़ताल पर

"कौन है वह शातिर चेहरा/जो छीन रहा है/जनता से कृषि योग्य भूमि का अधिकार/सेज,हाइवे,बांधो,रेलखंडों के नाम/कौन बुला रहा है विदेशी कम्पनियों को/कार्पोरेट खेती कराने"

बाजारवादी शक्तियां अपने उत्पाद बेचने किसी भी स्तर पर जा सकती हैं। एक तरीका देशी उत्पादों को गुणवत्ताहीन, संक्रमित,खराब होने की दुष्प्रचार का भी होता है

"यह कौन सी साजिश है/ कि किसानों की उत्पादित लीची को/फेंकवाया जा रहा है गड्ढे में/और डिब्बाबंद लीचियाँ को दिया जा रहा है बढ़ावा"

युवावर्ग में असीम ऊर्जा होती है मगर उसे सार्थक दिशा की आवश्यकता पड़ती है। इधर किशारों के कुछ समूहों में अराजकता इस कदर बड़ी है कि

"जैसे ही मैंने कहना चाहा/कि नाबालिक बच्चों को/नहीं चलानी चाहिए बाइक/शौक वश चला भी रहे हों तो/सिर पर रख लेना हैलमेट/सुनते ही नौछटीहों के भीड़ की आँखे/घूरती हैं मुझे/उनकी नज़रों से दहक रही क्रूरता की लपटें/बौखलाए कुत्तों-से घेर लेते हैं/मुझे झुंड के झुंड अचानक"

कोरोना काल मानवता के लिए बड़ी त्रासदी थी।बीमारी में लाखों लोग काल-कलवित हो गए। वहीं सरकारों की अव्यवस्था और विवेकहीन निर्णय से भी लोगों खासकर मजदूर वर्ग को भयावह कष्टों का सामना करना पड़ा। दूर के मजदूर घर अपना आना चाहते थे मगर

"यातायात के विकास की बातें बेमानी थी/उन पदयात्रियों के लिए, उन्हें पार करने थे/हजार मील के ककड़ीले पथरीले रास्ते/कोई आश्रयदाता नहीं था उनका,/जिसके लिए खटकर बहाते थे खून-पसीना/कोई जगमगाता प्रकाश/नहीं दिखा रहा था उनकी राहें,/न कोई दैवी चमत्कार ही/साथ देने वाला था उनका"

इधर सरकारों ने अधिकांश पदों की भर्ती का एक वैकल्पिक रास्ता निकाला है,जो पूर्णतः भेदभाव पर आधारित है यह 'समान काम के लिए समान वेतन' की अवधारणा के विपरीत है। 'नियोजित शिक्षक' भी इसी तरह का एक पद है

"शिक्षा माफिया मूंगफलियां चबाते हुए/इनके ऊपर फेंकते हैं छिलकों के ढेर/अधिकारी मुँह बिचकाते देखते हैं इनकी ओर/जैसे उनके पाँव औचक पड़ गए हों 'खंखार' पर/वक्र दृष्टि से देखते हैं इनकी ओर/खींच लेने को/इनके फड़फड़ाते  पंख,निचोड़ लेने को/इनका सारा जीवन द्रव्य"

समय आज इस तरह है कि

"न्याय की गुहार लगाने वाले को आतंकवादी/विश्वविद्यालय के होनहार छात्रों को/अर्बन नक्सली/रोटी के लिए भुखमरी झेल रहे लोगों को/देशद्रोही/संविधान की दुहाई देने वालों को/विदेशी घुसपैठिए/सही आजादी की मांग करने वालों को/देश का गद्दार" कहा जाता है

बच्चे,बच्चे होते हैं उनके बचपना को बचाये रखना चाहिए,इस उम्र में उन्हें माँ-बाप के संरक्षण की आवश्यकता होती है।कवि की संवेदना 'रामलीला के पात्र बने बच्चे' को देखकर मचल उठता है

"नियम कानून की पोथियों की धज्जियां उड़ाते/कौन खींच लाया है/इन अबोध बालकों को/पुरायुगीन नायक पात्रों का/अभिनय करने के लिए राधा-कृष्ण बने बच्चों को/दिला सकते हो तुम कभी/न्याय की दिलासा"

'सूचनाधिकार कानून' की हक़ीक़त यह है

"एक चोर कैसे बता सकता है सेंधमारी के भेद/हत्यारा कैसे दे सकता है सूचना"

संग्रह में द्वंद्व ,तनाव,प्रतिरोध की कविताएं हैं तो प्रेम,सौंदर्य और मानवता भी है।प्रेम में प्रिय की हर बातें अच्छी लगती हैं

"जब तुमने कहा कि/तुम्हे तैरना पसंद है/मुझे अच्छी लगने लगी नदी की धार"

विगत प्रेम की स्मृतियां

"जब भी लौटता हूँ पुराने शहर की उस गली में/यादों के कुहासे चीरती उभरती है वह मुलाकात"

प्रेम में प्रकृति से एकरूपता का चित्रण 'हरेक रंगों में दिखती हो तुम' कविता में बहुत अच्छे ढंग से हुआ है

"मदार के उजले फूलों की तरह/तुम आयी हो कूड़ेदान भरे मेरे इस जीवन में/तितलियों, भौरों जैसा उमड़ता/सूंघता रहता हूँ तुम्हारी त्वचा से उठती गंध/ तुम्हारे स्पर्श से उभरती चाहतों की कोमलता/ तुम्हारी पनीली आँखों में छाया पोखरे का फैलाव  तुम्हारी आवाज की गूंज से चूते हैं मेरे अंदर के महुए/ जब बहती है अप्रैल की सुबह में धीमी हवा/ डुलती है चांदनी की हरी पत्तियाँ/अपने धवल फूलों के साथ/मचलता हूँ कि घड़ी दो घड़ी के लिए भी/बनी रहे हमारी सन्निकटता।"

माता-पिता के प्रेम,प्रेरणा,लोकजीवन में धार्मिक सहभाव, फिर इधर धार्मिक स्थलों में बढ़ रहे कट्टरता से लेकर विविध रंग की कविताएं संग्रह में हैं।चूंकि कवि इतिहास के अध्येता हैं,उसका भी रंग स्मृतिपर कविताओं में है।एक खंडहर सामान्य व्यक्ति के लिए उपेक्षित होता है, मगर एक इतिहास प्रेमी के वह रोमांचक होता है,इसकी बानगी भी संग्रह में देखी जा सकती है।

कवि के कहन का ढंग बातचीत की शैली में सहज है।लोकजीवन के चित्रण के कारण उसकी शब्दावली भी सहज ढंग से आ गयी हैं, जो जाहिर है अपने भूगोल से सम्बद्ध भी है,मगर ये इतने सहज और सीमित हैं किसी क्षेत्र के पाठक को कठिनाई नहीं होगी।

बहरहाल लोकजीवन के चित्रण, अपने समय की विडम्बनाओं से मुठभेड़, संवेदनशीलता और जनपक्षधरता के लिए इस संग्रह को पढ़ा जाना चाहिए, ऐसा हमारा विचार है।

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कृति-घिस रहा है धान का कटोरा(कविता संग्रह)
कवि- लक्ष्मीकांत मुकुल
प्रकाशक-सृजनलोक,नई दिल्ली
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●अजय चन्द्रवंशी, कवर्धा(छत्तीसगढ़)
मो. 9893728320

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'घिस रहा है धान का कटोरा' : ग्रामीण संस्कृति की महक की कविताएं
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डॉ. नीलोत्पल रमेश
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'घिस रहा है धान का कटोरा' लक्ष्मीकांत मुकुल का दूसरा कविता-संग्रह है जिसमें 75 कविताएं संकलित हैं। इसके पूर्व भी एक कविता-संग्रह 'लाल चोंच वाले पंछी' प्रकाशित हो चुका है। इनकी कविताएं विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होकर प्रशंसित  होती रही हैं। लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताओं में आंचलिक शब्दों के प्रयोग, कविता को अपनी जमीन से जोड़ने में सार्थक बन पड़े हैं। कवि किसानी संस्कृति में पूरी तरह रचा-बसा है। यही कारण है कि इनकी कविताओं में ग्रामीण-संस्कृति की महक बरकरार है। गांव की खूबसूरती और गांव की बदलती हवा का कवि ने बखूबी चित्रण किया है - अपनी कविताओं में। 

लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताओं के बारे में ओम प्रकाश मिश्र ने लिखा है कि "संग्रह की कविताओं से गुजरते हुए ऐसा लगता है मानो हम एक विशेष इलाके में पैदल जा रहे हों और रास्ते में अनेक छोटी-बड़ी बस्तियां, कहीं हरे-भरे खेत-खलिहान,कहीं खेतों में सूखते मुरझाते पौधे, कहीं वृक्षों की लंबी कतारें तो कहीं वीरान बंजर भूमि, रंग बदलती हुई ऋतुएं और इन्हीं के बीच जीवन के साथ संघर्ष करते और उत्सव मनाते हाड़-मांस के पुतले दिखाई पड़ रहे हों।"

'घिस रहा है धान का कटोरा' शीर्षक कविता से ही मैं अपनी बात प्रारंभ करना चाहूंगा। शाहाबाद को धान का कटोरा कहा जाता है। वर्तमान में शाहाबाद को चार जिलों में विभाजित किया जा चुका है। वे जिले हैं - भोजपुर, रोहतास, बक्सर और कैमूर। धान की अच्छी पैदावार होती थी, इन जिलों में । लेकिन वर्तमान समय में अच्छी पैदावार नहीं मिल रही है। इसके कई कारण हैं - सामाजिक, आर्थिक, वैज्ञानिक और उर्वरकों का प्रयोग। यही कारण है कि इन क्षेत्रों के लोगों की जीविका का जो साधन खेती-किसानी था, वह अब क्षीण होते जा रहा है। इसी को कवि ने 'घिसना' कहा है। यानी जिस चीज के लिए क्षेत्र जाना जाता था, वह अब नहीं रहा। कवि ने लिखा है -
"बदलते धान की खेती में
प्रकृति ने बदल दिया अपना रूप-रंग, गुण-धर्म रासायनिक खादों की बढ़ती उपयोगिता ने
स्याही सोख्ता की तरह
निचोड़ ली मिट्टी की उर्वरता
कीटनाशक दवाओं के छिड़काव से 
नष्ट होते जा रहे हैं प्रतिरोधक मित्र कीट"

'छोटी लाइन की छुक-छुक गाड़ी' कविता के माध्यम से कवि ने अपने बचपन के दिनों को याद करने की कोशिश की है। छोटी लाइन पर जो गाड़ी चलती थी- वह आरा से सासाराम तक। इस बीच में पड़ने वाले छोटे-छोटे स्टेशनों पर रुकती हुई वह गाड़ी आती-जाती थी। लेकिन इस क्षेत्र के लोगों की जीवन रेखा थी, यह गाड़ी। कहीं आना-जाना हो, तो लोग इसी से आते-जाते थे। पर आज बड़ी लाइन भी बिछ चुकी है, जिस पर सुपरफास्ट ट्रेनें चल रही हैं, पर वह जीवन- राग नहीं है,जो छोटी लाइन के समय में था। लोक गायक दुर्गेंद्र अंकारी के गीत छोटी लाइन पर चलने वाली ट्रेनों में खूब प्रचलित थे। कवि ने लिखा है -
"नई बिछी बड़ी लाइन की पटरियों पर
दौड़ रही है सुपरफास्ट ट्रेन
सड़कों पर सरक रही हैं तेज चाल की सवारियां
गांवों से शहरों तक की भागम-भाग,
अंधी थकन में भी अचानक मिल जाता है
बरसों का बिछड़ा कोई परिचित
भोला-भाला, सीधा-साधा 
दुनियादारी के उलझनों से दूर 
सहसा याद आता है 
छोटी लाइन की छुक-छुक गाड़ी वाले दिन 
ममहर के रास्ते में फिर जाते हुए "

'कुलधरा के बीच मेरा घर' कविता के माध्यम से कवि ने उजड़ते गांव का दृश्यमान चित्र उभार कर रख दिया है। गांव उजड़ते जा रहे हैं और शहर आबाद होते जा रहे हैं। कवि को याद है जब भरा-पूरा गांव था तो एक रागात्मक संगीत की मधुर ध्वनि कानों में सुनाई पड़ती थी। रसोई का पकना, उसकी खुशबू से एक तरह का प्रेम ही झलकता था, पर अब  वो नहीं रहा। ऐसी स्थिति में कवि का एकमात्र घर जो रह गया है कुलधरा में। कवि ने लिखा है -
"कुलधरा की तरह
शाप के भय से नहीं,
कुछ पेशे बस, कुछ शौक से छोड़ दिए घर-गांव 
खो गए दूर-सुदूर शहरों की कंक्रीटों के जंगल में 
छूटे घर, गोशाले मिलते गए मिट्टी के ढेर में
पुरखों की संचित खेतों की आय से
बनती गई उनकी शहरी संरचनाए
उन वंशवृक्षों की टहनियां,फूल,पत्ते
लहराते गए महानगरों के सीमांतों में"

'इतिहास का गढ़' कविता के माध्यम से कवि ने मैरवा का गढ़ के बारे में जानने- समझने की कोशिश की है। 'मैरवा का गढ़' आज अवशेष के रूप में विद्यमान है। लेकिन यह गढ़ कभी आबाद रहा होगा। आबाद रहने के पहले इसे बनाने में कई मजदूरों ने अपना श्रम दिया होगा। आज लोगों को उससे कई तरह की आवाजें  सुनाई पड़ती हैं, जो दहशत कायम करने में सफल होती हैं। लोगों का मानना है कि जन्म के साथ से ही यह गढ़ इसी रूप में विद्यमान है। पूर्वजों ने भी ऐसा ही कहा था। कवि ने लिखा है -
"कितने अचरज की खान है यह गढ़
इस बस्ती के लिए सबसे बड़ा अचरज
कि हर के होश संभालने से पूर्व से ही
हर किसी के अंदर
कछुए-सा दुबका बैठा है यह गढ़।"

'बारहमासा' कविता के माध्यम से कवि ने अपनी प्रिया को हमेशा साथ बने रहने की कामना की है। कवि जब खेतों में काम करे, तो अपनी प्रिया को चाहता है कि वह कलेवा ले कर साथ रहे। कवि जब खेतों पर काम करते हुए रहे तो उसकी प्रिया रोपनी का गीत गावे। यानी कवि अपनी प्रिया के साथ मात्र से ही सब कुछ करते जाना चाहता है। ठंड में प्रिया द्वारा अंगीठी सुलगाना भी उसे अच्छा लगता है। कवि ने लिखा है -
"सावन भादो की रिमझिम फुहारों के बीच  
कुदाल लेकर जाऊंगा खेत पर 
तुम आओगी कलेवा के साथ
चमकती बिजली,गरजते बादलों के बीच
तुम गाओगी रोपनी के अविरल गीत
बिचड़े डालते मोर सरीखे थिरकेगा मन"

'देखना फिर से शुरू किया दुनिया को' कविता के माध्यम से कवि ने प्रेम की अभिव्यक्ति की है। कवि को अपनी प्रिया की हरेक चीज पसंद है। कवि से जो कुछ कहा उनकी प्रिया ने,वह उसे पसंद आ गई । यानी प्रिया की हरेक गतिविधि पर प्रेमी की नजर है। यानी कवि का कहना है कि जब-जब तुमने कुछ कहा, तब-तब हमने दुनिया को फिर से देखने की कोशिश की और पाया कि दुनिया और खूबसूरत हो गई है। कवि ने लिखा है -
"प्रश्नोत्तर में खिलखिलाहट 
खिलखिलाहट से भर जाती हैं प्रतिध्वनियां
यही ध्वनि उठी थी मेरी अंतर्मन में
जब तुमने मेरे बिखरे बालों को उंगलियों से की थी कंघी
देखना फिर से शुरू किया मैंने इस दुनिया को 
कि यह है कितनी हस्बेमामूल,कितनी मुकद्दस!"

'हरेक रंगों में दिखती हो तुम' कविता के माध्यम से कवि ने अपने प्रेम का इजहार किया है। कवि प्रेम में डूबा हुआ है, यही कारण है कि उसे  उसकी प्रिया हरेक रंगों में दिखाई पड़ने लगती है। कवि के सोच के साथ-साथ प्रिया का रंग-रूप में परिवर्तित होते जाता है। इतना लगाव है उसे अपनी प्रिया से कि वह उससे बिल्कुल अलग नहीं रह सकता। कवि ने लिखा है -
"चूल्हे की राख-सा नीला पड़ गया है 
मेरे मन का आकाश
तभी तुम झम आती हो 
जलकुंभी के नीले फूलों जैसी खिली-खिली
तुम्हें देखकर पिघलने लगते हैं
दुनिया की कठोरता से सिकुड़े
मेरे सपनों के हिमखंड!"

'विस्तृत हैं पिता' और 'पिता की सीख' कविताओं के माध्यम से कवि ने पिता की विराटता का वर्णन किया है। पिता मूक रहकर भी बहुत कुछ कह जाते हैं, कर जाते हैं। वह ऐसे वट वृक्ष हैं, जिसकी सघनता उनकी संतान को बहुत कुछ प्रदान कर जाती है, जीवन में आगे बढ़ने के लिए। कवि ने लिखा है -
"समुद्र की तरह अथाह हैं पिता 
जैसे नाव पर तैरता कोई यात्री
जोह लेता है दुनिया के अद्भुत रहस्य
वैसे ही उनके कंधों पर चढ़कर
हम घूमते, परिचित होते थे अनदेखी गलियां,
सड़कों और मेले के संकरे मार्ग।"

'यह कैसा समय है' कविता के माध्यम से कवि ने देश की वर्तमान स्थिति का जिक्र किया है। कवि का कहना है कि देश में माकूल परिस्थितियां नहीं हैं जिससे कोई व्यक्ति चैन से जीवन बसर कर सके। चारों तरफ अराजकता कायम है। कहीं से भी कुछ की अपेक्षा नहीं की जा सकती है। कॉलेजों में गुंडों द्वारा शिक्षकों को पीटा जाना - अपने समय की सबसे भयानक स्थिति है। जब गुरु ही पीटे जाने लगेंगे तो शिक्षा क्या बचेगा। यानी शिक्षा मटियामेट होने के कगार पर खड़ा है। कवि ने लिखा है -
"यह कैसा समय है
कि गुंडे कॉलेजों में पीट रहे हैं
शिक्षकों को घसीटकर 
मारा जा रहा है एकांत लाइब्रेरी में 
पढ़ रहे छात्रों को
बदला जा रहा है हमारे देश काल का इतिहास
कच्ची दिमागों में भरा जा रहा है 
शैतानी हरकतें
अपने ही देश के नागरिकों से
मांगा जा रहा है नागरिकता का प्रमाण।"

'घिस रहा है धान का कटोरा' की कविताएं पाठकों को बांधे रखने में पूरी तरह से सफल हुई हैं। इसमें कवि लक्ष्मीकांत मुकुल के देशी ठाठ- बाट को आसानी से जाना-पहचाना जा सकता है। कवि की किसानीयत पूरी कविता में महसूस की जा सकती है। आंचलिकता के तौर पर लक्ष्मीकांत मुकुल ने भोजपुरी के शब्दों का बेधड़क प्रयोग किया है। ये प्रयोग कहीं खटकते नहीं हैं, बल्कि कविता में सरसता भर जाते हैं। संग्रह की कविताओं को एक बार पढ़ना शुरू करने के बाद, बिना पूरी पढ़े छोड़ने का मन नहीं करेगा। कवि लक्ष्मीकांत मुकुल जी को हार्दिक शुभकामनाएं!
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'घिस रहा है धान का कटोरा' :- कविता-संग्रह
कवि :- लक्ष्मीकांत मुकुल
प्रकाशक :- सृजनलोक प्रकाशन,नई दिल्ली-110062
मूल्य :- ₹299/-, पृष्ठ :-168, वर्ष :- 2022 ई.
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संपर्क :- डाॅ. नीलोत्पल रमेश
पुराना शिव मंदिर, बुध बाजार
गिद्दी-ए, जिला - हजारीबाग
झारखण्ड - 829108
मो. नम्बर - 9931117537
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बाजारवाद में 'घिस रहा है धान का कटोरा'
_ अरविन्द श्रीवास्तव,
नागार्जुन अपनी कविता 'सिके हुए दो भुट्टे' में लिखते हैं- "सिके हुए दो भुट्टे सामने आए तबीयत खिल गई, दाँतों की मौजूदगी का सुफल मिला तबीयत खिल गई" .. नागार्जुन की इस कविता का नायक- अखिलेश ने अपनी मेहनत से जिन पौधों को उगाया था, वार्ड नंबर दस के पीछे जेल की क्यारियों में। ढाई महीने पहले की अखिलेश की खेती इन दिनों अब जाने किस-किस को पहुँचा रही है सुख। बीसियों जने आज अखिलेश को दुआ दे रहे हैं। सिके हुए भुट्टों का स्वाद ले रहे हैं डिस्ट्रिक्ट जेल की चाहरदीवारियों के अंदर 
नागार्जुन की इन पंक्तियों में जो वेदना छिपी है, वह वर्तमान व्यवस्था को बड़ी मुलायमियत से बेनकाब करती है। यह महज संयोग है कि किसानी संस्कृति पर अपनी बेबाक लेखन के लिए चर्चा में आये कवि लक्ष्मीकांत मुकुल द्वारा नव सृजित संग्रह 'घिस रहा है धान का कटोरा' वर्तमान हालात से दो-दो हाथ करने को उतारू हैं । संग्रह में समाहित कुल पचहत्तर कविताएं समय की कुव्यवस्था को न केवल आईना दिखलाती हैं, बल्कि बहुत कुछ सोचने को विवश भी करती हैं। ठेठ देशज व आंचलिक अंदाज की ये कविताएं बगैर किसी लाग-लपेट के पाठकों के जेहन को एक नए अहसास का आस्वादन कराती हैं। संग्रह में कृषि कर्म, ग्रामीण संस्कृति, हमारी परंपरा और पर्यावरण की चिंता इनकी कविताओं के केंद्र बिंदु रहे हैं, बहरहाल इनकी लेखनी की जद में अनेक ऐसे अछूते विषय भी हैं, जहां एक सधा हुए कवि ही पहुंच सकता है । विकासवाद के अंधी दौड़ में भागती दुनिया में जो पीछे छूट रहा है, उसकी नोटिस कवि बेहद मार्मिकता से करता हैं, जैसे- भलुआहीं मोड़ की फुलेसरी देवी के मन में/ बसी है छोटी लाइन/ वह बालविवाहिता दहेज दानवों से उत्पीड़ित/ खूंटा तोड़कर भागी थी घर से/ इसी रेलगाड़ी पर किसी ने दी थी उसे पनाह।
कवि का मुख्य फोकस कृषि कर्म से जुड़े धरती पुत्र श्रमिकों पर रहा है, उनकी दशा का चित्रण बड़े ही सटीक ढंग से करते हुए वह कहता है  - कौन है वह शातिर चेहरा/ जो छीन रहा है जनता से/ कृषि योग्य भूमि का अधिकार/ सेज, हाइवे, बांधों रेलखंडों के नाम/ कौन बुला रहा है विदेशी कम्पनियों को/ कारपोरेट खेती करने, एग्रो प्रोसेसिंग इकाइयां बनाने के लिए/ हमारी छाती पर मूंग दलते हुए/ हाईब्रिड बीजों, केमिकल खादों, जहरीली दवाओं/ महँगे यंत्रों से कौन चीरहरण करना चाहता है, हमारी उर्वरता का ?
कवि का मानना है कि बाजार व्यवस्था की पीठ पर पलथी मारे बैठे हैं जल्लाद, नए अवतार में नई चालबाजियां चलते हुए, हमारा ध्यान भटकते हुए नित्य नई युक्तियों से ! 
कवि लक्ष्मीकांत मुकुल शांत सहज प्रकृति के कवि हैं, उनकी चिंतन का दायरा समस्त ब्रह्मांड है, स्वभाविक है, पर्यावरण के प्रति उनका नजरिया भी संवेदनशील होगा, 'यह कैसा समय है' शीर्षक कविता में वे कहते हैं- यह कैसा समय है, जब कजरारी घटाएं भूल जाती हैं बरसने की जिम्मेदारी, वनस्पतियां भूल जाती है समयानुसार फूलना-फलना, मौसम बदल रहा है, ऋतु-चक्र का प्रत्यावर्तन, मौसमी हवाएं पल बदलकर, पश्चिमी विक्षोभ में हो रही है शामिल !
कवि ने अभी बीते कोरोना काल के दंश को देखा और भोगा है, जिसके ताण्डव से पूरी दुनिया कांप गयी थी, कवि मानता है कि - गहरी साजिशों के तहत/ वे शैतान उत्पन्न कर रहे हैं मनुष्यता के विरुद्ध जैविक औजार/ जिनके पास गुण नहीं होते, बांझ पपीते में लाने को फल/ जिनके जनमाये रोबोट नहीं बना सकते, मधुमक्खियों जैसे शहद बूंद/ उनके बनाए हाइड्रोजन बमों से बंजर हो चुकी मरुभूमियों पर, नहीं बरसाई जा सकती झमाझम बारिश, जिससे गदाराकर उभर आती, गर्भवती स्त्री सदृश्य इस धरती की काया ! सच में कोरोना काल की भयावहता के लिए शब्द तामिर नहीं हो सकते,  कवि अपनी सौभाविक मुलायमियत का परिचय देते हुए कहता है कि कोरोना जैसे दानव-दूतों के आगमन से रोकी जा रही है मिलने-जुलने की संभावनाएं, स्वजनों को छूने-चूमने पर लग गया है कर्फ़्यू !
समकालीन कविता में प्रेम और युद्ध की चर्चा वैश्विक स्तर पर होते रही है, जैसे इसके बगैर कोई संग्रह मुकम्मल नहीं हो सकता । 'घिस रहा है धान का कटोरा' में कवि ने इन विषयों पर गंभीरता से विमर्श किया है 'युद्ध' कविता की बानगी दीगर है- युद्ध की भाषा उन्मादी होती है, जिसमें शामिल होते हैं विध्वंसक तत्व, इमारतों को नष्ट करने, खड़ी फसलों को ख़ाक में मिलाने के लिए, दूधमुहें बच्चों को माँ की आँचल से दूर करने की साज़िश, चरवाहों को उनके पशुओं, किसानों को उनके खेतों से, बेदखल करने की सनक.. तानाशाह का दर्प अट्टहास करता है, युद्ध की भाषा की शैली में, दूसरों से छीन लेने की आजादी.., युद्ध थोपने वाला चाहता है, कि वह छीन ले मासूम बच्चों की हंसी, कामगारों के हाथों से कुदाल, नौजवानों के पास से सपनें, बूढ़ों के सहारे की छड़ी..!
इस संग्रह में कवि ने प्रेम के लिए पर्याप्त स्पेस बचाए रखा है, कवि जानता है कि प्रेम से ही इस धरा पर सुख, शांति और संपन्नता का बीजारोपण हो सकता है और नकारात्मकता को खदेड़ा जा सकता है। प्रेम के अपने अहसास को कवि शब्दों में व्यक्त करते हुए लिखता है कि- मदार के उजले फूलों की तरह, तुम आयी हो कूड़ेदान भरे मेरे इस जीवन में, तितलियों, भौरों जैसा उमड़ता, सूंघता रहता हूँ तुम्हारी त्वचा से उठती गंध, तुम्हारे स्पर्श से उभरती चाहतों की कोमलता, तुम्हारी पनीली आंखों में छाया पोखरे का फैलाव..!
कवि ने अपने कविता कर्म में तनिक भी कोताही नहीं की है। कवि की सक्रियता देश की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में उनके लेखन से भी की जा सकती है, अनेक भाषाओं में अनुदित इनकी कविताएं बिहार के बक्सर जनपद से उठकर विश्व पटल पर अपनी खुशबू बिखेर रही है ! कवि के लिए साधुवाद व स्वस्थ जीवन की मंगलकामनाएं करता हूँ  ।
पुस्तक: घिस रहा है धान का कटोरा (कविता संग्रह)
लेखक : लक्ष्मीकांत मुकुल
प्रकाशन : सृजनलोक प्रकाशन, बी-1,दुग्गल कॉलनी, खानपुर, नई दिल्ली- 110062.
मूल्य: 299 ₹
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समीक्षक: अरविन्द श्रीवास्तव,
मधेपुरा, बिहार
मोबाइल- 9431080862.

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यथार्थ के उर्वर धरातल पर उपजी कविताएं:
_मिथिलेश रॉय 

सुविख्यात कवि लक्ष्मीकांत मुकुल का नया संग्रह "घिस रहा है धान का कटोरा" जो सृजनलोक प्रकाशन नई दिल्ली से छपकर आया है। जिसमें कुल पचहत्तर कविताएं हैं, जिसका आवरण रोहित प्रसाद पथिक ने बनाया है। यह संग्रह किसान योद्धाओं को समर्पित है।लक्ष्मीकांत मुकुल उत्पादन की मूल इकाई  किसान की दिनचर्या, लोकवेदना, लोकसंस्कृति से जुड़ाव रखते हैं। वह सब इन कविताओं में प्रचुर है । उनकी अपनी निजी शैली है। वे अलग तरह के  वितान,जनपदीय चेतना,चिंता व अनुभव के कवि हैं। लक्ष्मीकांत मुकुल 
अपनी कविताओं में सहज, सरल, गहरे अपनी जमीन से जुड़े है, वे कहीं भी अस्पष्ट, रहस्योन्मुख नही लगते। संग्रह की कविताएं  उनकी लंबी कविता यात्रा की प्रतिफल हैं, इस कारण वे  अधिक पारदर्शी व सहज हैं। 

लक्ष्मीकांत मुकुल अपनी कविता में कोई नया सिद्धांत या दर्शन नही गढ़ते है , बल्कि वे बोलचाल के भाषा मे मौजूदा समय की विकृति को चर्चा के केंद्र में लाने की भरपूर कोशिश करते हैं और वे इस प्रयास में सफल भी होते दिखाई पड़ते हैं। 
मुकुल जानते है कि पर्यावरण अनुकूल नही रहा, फिर भी वे  बारहमासा, चौमासा, कविता के माध्यम से प्रकृति से संवाद रचते है। इन कविताओं में वर्णित अनुभूति उनके अंतर्मन की व्याख्या है, सच है। वे उन दृश्य को ही छूते हैं जो छूने योग्य है। 
कवि का कोई परिवार, समाज, राष्ट्र या धर्म नही होता,वह तो इन चुनौतियों से लगातार टकराता आया है। हालांकि पिछले 30 सालों में रचनाकारों की जो नई कतार आई है। उसके काव्य की भाषा, तकनीकी, शिल्प भिन्न हैं। यह अब संकेतो में या रूपकों में छिप कर समय के अंतर्विरोधों को व्यक्त नहीं करतीं , बल्कि उससे सीधे सीधे आंख में आंख डालकर बात करती हैं।ऐसे में लाजमी है कि जब कविता की भाषा विमर्श से होकर आती है, तो उसमें स्थानीयता के साथ लोक व्यवहार का तीखापन, गुस्सा, क्षोभ और खींज भी होती है तथा उसमें समय काव्य- वस्तु को नए अंदाज व शक्ल देने का हुनर भी होता है।लक्ष्मीकांत मुकुल इसी काव्य परम्परा से आते है। उनके भीतर बसी रचनाशीलता में एक मौलिक नयापन है। और यह नयापन जीवंत है, जो सदा नया और कविता की बुनियादी है। वे केवल प्रतीक बिम्ब,व भाषा के वैभव ही नहीं, बल्कि उसके नये अर्थबोध ग्रहण करते है।वे नई भाषा कल्पनाशीलता, प्राणवत्ता के माध्यम कविता में एक सामाजिकता का अन्वेषण कर उसके सबल पैरोकार नजर आते हैं।

 लक्ष्मीकांत मुकुल अपने आप में अलग - से कवि हैं। वे अतीतजीवी बनकर  छुक-छुक गाड़ी में सवार हो अपने बचपन की स्मृतियों में लौट जाते हैं। वे अनेक दृश्यों को गढ़ते हैं,जैसे मामा का गांव, आरा-सासाराम नैरो गेज रेलवे लाईन व उस पर सवार आदमी, जानवर, बच्चे और इस तरह वे पाठक को अपनी स्मृति में बसे समय की यात्रा पर लेकर निकल पड़ते हैं। जो आज के अपेक्षा धीमा, किन्तु अधिक मानवीय समय है। दरअसल संग्रह की यह पहली कविता "  छोटी लाइन की छुक गाड़ी" मुकुल जी की कविता व उनके कवि संसार को जानने में अहम भूमिका निभाती है। वे सुपर फास्ट ट्रेन से नहीं नैरो गेज छोटी लाइन के  कविता की रेल गाड़ी से अपने भीतर बाहर की यात्रा पर पाठक को लिए चलते हैं। और जैसे जैसे पाठक के रूप में हमारा सामना संग्रह की उनकी अन्य कविता से होता जाता है। मुकुल जी  कविता की बड़ी लाइन के मुसाफिर में तब्दील हो जाते हैं।



कविता नदी की तरह प्रवाह मान होती है,वह हर समय में अपनी कल कल करती धाराओं में बहती रहती है। अतः उसे किसी कालखंड के  दायरे में बांधना  सम्भव नही है। आज विभिन्न औद्योगिक इकाइयां अपने  पांव फैला रही है, गांव से पलायन शुरू है। शहर में मिल- कारखाने बढ रहे है।शोषण का नया चक्र चालू है। मुकुल जी कविता में समय की अनेक विद्रूपता की झलक सहजता मिल जाती है, इस संग्रह की प्रतिनिधि कविता " घिस रहा है धन का कटोरा" एक लंबी कविता है, जिसके शुरुआत के चार खंडों में मुकुल इस क्षेत्र के बीते जमाने को याद करते हुए यदि करते हैं_ खेत को बादलों,  किसान को साठी के चावल, व बैल और बच्चों के साथ खुशहाल समय को! लेकिन पांचवें खंड में पहुँचते ही आज के यथार्थ को बयान करते हुए चिंतित व दुखी हैं। बैल की जगह ट्रैक्टर, नये बीज,नदी- ताल, रासायनिक खाद , भुखमरी से मरते किसान का, मेहनतकश बनिहारों का मार्मिक चित्रण करते हैं। कविता अंत मे वे दुखी हैं।अपने इस प्यारे आरा- दिनारा की दुर्दशा को देख ,गिरमिटिया बन फिजी,सूरीनाम व मॉरीशस को पलायन कर रहे खेतिहर मजदूरों के प्रति अपनी पीड़ा को रखते हैं। कविता के अन्तिम खण्ड में मैना, कबूतर, गोरैया ,कौओं से पूछते हैं,ऐसा लगता क्या बदलेगी यह त्रासद स्थिति? यहाँ कवि अपने अंतर्मन से यह पूछ रहा है। दरअसल घिस रहा धान का कटोरा, समय का बेजोड़ शोकगीत है। जिसमें किसान को बेदख़ल करने वाली अर्थव्यवस्था को जमकर लताड़ लगाते हैं। इस तरह मुकुल एक क्षेत्र विशेष नहीं, बल्कि अर्थनीति के नीचे दब रहे एक बड़े समाज की आवाज बन जाते हैं ।

मुकुल जी रचनाएं मूलतः उनके आसपास के परिवेश से पोषित हैं। ये कविताएं न केवल यथार्थ को जीते हुए लिखी गईं हैं, बल्कि बीते समय की यादों को भी समेटकर आज के बदले वातावरण में ला कर  तुलनात्मक भावों एवं विचारो के माध्यम से अपनी सार्थकता सुदृढ़ करती हैं। पिता की विशालता हो, छोटी लाइन की रेलगाड़ी का चित्रण हो , चलन से बाहर हुए सिक्कों की उपयोगिता या बिहारियों के रोजी रोटी  की जुगत में घर परिवार छोड़ दूर शहरों में रहने की विवशता, सभी का वर्णन आपने बहुत ही मार्मिक ढंग से किया है।किसानों की व्यथा को दिल्ली रामलीला मैदान में हुए किसान आंदोलन के उदाहरण के द्वारा बताया गया है। विलुप्त होते पशु पक्षियों के साथ ही विलुप्त होते मानव मूल्यों पर भी आप बात करते हैं। कोरोना काल और अपने वतन को लौटते गरीब लाचारों की दुखभरी दास्तान को आपने इतने अच्छे तरीके से लिखा है कि पढ़ते हुए कोरोनाकाल का  एक एक खौफनाक मंजर आंखों में तैरने लगता है। प्रवासी मजदूरों की दुखद स्थिति वे कुछ इस  तरह बयान करते हैं_

वे पक्षियों की तरह शीघ्र उड़कर
पहुंचना चाहते थे अपने मुल्क,
जल मार्ग से मछलियों की तरह तैरकर
छू लेना चाहते थे गांव की नदी का किनारा,



कविताओं के माध्यम से आप प्रत्यक्ष - अप्रत्यक्ष रूप से सत्ता पक्ष का पुरजोर विरोध करते भी दिखते हैं। मौजूदा न्याय व्यवस्था, आजादी का दोमुहा स्वरूप,बेरोजगारी पर लिखने के  साथ ही समाज में व्याप्त मनुषत्व के दोगलेपन को उजागर करते हुए अपनी पैनी कलम चलाते हैं।
नियोजित शिक्षकों की समस्याएं, शिक्षा में उनका भरपूर योगदान होते हुए भी उनके अत्यधिक शोषण को आपने ' नियोजित शिक्षक '  कविता के माध्यम से उजागर किया है_


शिक्षा माफिया मूंगफलियां चबाते हुए
इनके ऊपर फेंकते हैं छिलकों के ढेर
अधिकारी मुंह बिचकाते देखते हैं इनकी और
जैसे उनके पांव औचक पड़ गए हों ' खंखार' पर
वक्र दृष्टि से देखते हैं इनकी ओर
खींच लेने को
इनके फड़फड़ाते पंख, निचोड़ लेने को
इनका सारा जीवन द्रव्य।


न केवल नियोजित शिक्षक; बल्कि जितने भी मेहनतकश वर्ग के लोग हैं, सभी का शोषण किसी न किसी रूप में हो रहा है। सर्वहारा समूह हमेशा से दबाया गया और अपने अधिकारों के लिए सदियों से लड़ता आया है, लेकिन धन प्रिय समाज में जिसके पास जितना धन है वह उतना ही ऊपर है और अन्य लोगो के शोषण के लिए उसे अनगिनत अधिकार प्राप्त हो जाते हैं। आज पैसा सबसे बड़ी चीज बनकर रह गई है।

उनकी कविताओं को पढ़ते हुए एक और कविता में  मन अटक जाती है :

 यह कैसा समय है
जब कजररी घटाएं भूल जाती हैं
बरसने की जिम्मेदारी
वनस्पतियां भूल जाती हैं
समयानुसार फूलना फलना
ऋतु चक्र का प्रत्यावर्तन
मानसूनी हवाएं पाला बदलकर
पश्चिमी विक्षोभ में हो रही हैं शामिल..................

मनुष्य का प्रकृति के प्रति निर्मम होकर उसका दुरुपयोग करना जिसके कारण आज सारी प्राकृतिक घटनाएं ,पर्यावरण सब कुछ उलट पुलट गया है।
कब बाढ़ आ जाए, कब सूखा पड़ जाए, कब हवाएं अपना रुख मोड़ मोड़ दें कोई भरोसा नहीं।
यही नहीं इसके साथ ही सभ्यता, संस्कृति , न्याय, नैतिकता, मानवता सब कुछ  इस भयानक समय में अपने रौद्र रूप में आ गया है :

न्याय की गुहार करने वाले को
आतंकवादी
विश्वविद्यालय के होनहार छात्रों को
अर्बन नक्सली
रोटी के लिए भुखमरी झेल रहे लोगों को
देशद्रोही
संविधान की दुहाई देने वालों को
विदेशी घुसपैठिए
सही आजादी की मांग करने वालों को
देश का गद्दार.........
यह कैसा समय है

प्राकृतिक छेड़छाड़ से बसंत ऋतु पर कैसा असर पड़ा है देखिए:

व्याकुल है बसंत
बदल रही है ऋतुओं की समय तालिका
समय पूर्व केंचुल छोड़ने को
विवश हो रही है पृथ्वी।

तथाकथित अंडमानी जनजाति सेंटीनेलिस को सभ्यता की धारा में लाने की आड़ में उनसे उनकी मौलिकता छीनना, उन पर भी भौंडी राजनीति, स्वार्थपरक धर्म थोपना जिन्हें वे बिल्कुल भी अपनाना नही चाहते ,आपने अपनी कविता के माध्यम से उनका मर्म उजागर करते हुए गुहार लगाई है कि उन्हें स्वतंत्र रहने दो ,जैसा चाहते हैं जीने दो।

तुम क्यों छीनना चाहते हो हमारी स्वतंत्रता
संसद,कानून, न्यायपालिका के अपने ढोंग को
क्यों थोपना चाहते हो
हमारी परंपरागत जीवन शैली पर।

आप अपनी कविताओं में अगर समस्याओं की गंभीरता दिखाते हैं तो कविता के ही माध्यम से मौजूदा सिस्टम पर करारा  व्यंग भी कसते हैं। देखते हैं आपकी कुछ लाइनें :

छरबेंगा से भी अधिक
पलटी मारने में माहिर हैं पलटू राम
अपनी प्रेमिकाओं से खाते हैं बारंबार कसमें
सात जन्मों तक, साथ निभाने का
समयांतराल, भीड़ जाते हैं वे तलाशने में
अन्य किस्म की प्रेम बालाएं..............
हवा की दिशा देखकर मुड़ जाते हैं उस राह पर
तिलचट्टा जैसा सीलन भरी दीवाल को जकड़ने के लिए।

घर, खेत- खलिहान, किसानी जीवन व लोकव्यथा को पूरी जीवंतता तथा उसकी  बहुत सी सुंदरता को समोकर जमीनी हकीकत के कवि मुकुल वैज्ञानिक विचार के आधार पर अपने परिवेश के अंधविश्वास, अतार्किकता के विरोध में न केवल खड़े होते हैं, बल्कि आने वाली पीढ़ी को नई समझ, नया विचार, व विश्वास देते हैं। मुकुल अपनी कविताओं में जनपक्षधरता के माध्यम से नई संवेदना, नई जमीन की मांग करते हैं। उनकी पक्षधरता मनुष्यत्व की साधना है। 

मुकुल की इस संग्रह में ऐसी की कविताएं हैं। जिसमें बाजार की आप संस्कृति का मुखर विरोध भी दर्ज है। इन कविताओं में घृणा का भाव नहीं, बल्कि एक बड़े उपभोक्ता वादी समूह की पीड़ा है, जो इस मानव विरोधी व्यवस्था से आहत है। इसलिए वे इसे फटकारते हुए कहते हैं-बाजारवादी कोबरा- 
                " ऊँचे टीले पर
    कुंडली मारकर बैठा है बाजारवादी कोबरा
    मुँह से जहर उगलता हुआ
   अजीब ठांस रहा है। कमबख्त,

किसी भी कवि में हम उसकी मौलिकता को उसके विचार परम्परा से पहचानते व दूसरों से अलग पाते है। कोई भी कवि कथ्य शिल्प शैली में नया नहीं होता है उसका टटकापन उसकी काव्यानुभूति में होती है, यही से वह नये विचार अध्याय की शुरुआत करता है। यह अनुभूति कवि अपनी स्थानियता से आता है। हर बड़े कवि अपने क्षेत्र की कुछ विशेष चीज को कविता में लाकर करता है। मुकुल जी की कविता/बोधा वाला पीपल/ तैरती हुई लड़कियां/गूंगी जहाज/कत्तलपुर का बाल / में अपने गाँव,नगर ,लोक से इन नए विषयों को लेकर आते हैं। जिससे वे सहज ही अपनी पहचान तय कर लेते हैं। 

लक्ष्मीकांत मुकुल की कविता यात्रा अनवरत जारी है। विषय -वस्तु समृद्ध है। वे आगे भी अपनी जनपक्ष की मुखर आवाज बने रहेंगे। इसकी उम्मीद इस संग्रह से बंधती है। इस कविता संग्रह की कविताएं मनुष्य के पक्ष में लिखे गए गान की तरह पढ़ी लिखी व सराही जानी चाहिए।
मेरी बहुत शुभकामनाएं,

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पुस्तक का नाम- घिस रहा है धान का कटोरा
कवि/रचयिता   - लक्ष्मीकांत मुकुल
प्रकाशक         - सृजनलोक प्रकाशन, नई दिल्ली
आवरण           - रोहित प्रसाद पथिक
मूल्य।              -299 रूपये
समीक्षक           - मिथिलेश रॉय, शहडोल(म.प्र.)
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मिथिलेश रॉय
बाणगंगा रोड नया बस स्टैंड
बलपुरवा वार्ड नं.16
जिला- शहडोल (म. प्र.)
          पिन-484001
 Mobile no. 8889857854

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गाँव के जीवन के हर कोने में झांकता कवि 
                             कनक किशोर 
1.
           लक्ष्मीकांत मुकुल गाँव के आदमी है,गाँव में रहते हैं और गाँव को पढ़ते - लिखते हैं। मूलतः किसान कवि हैं। मुकुल की सद्यः प्रकाशित कविता संग्रह है ' घिस रहा है धान का कटोरा '। मुकुल का धान का कटोरा है पुराना शाहाबाद जिला का पूर्ण क्षेत्र और कवि मुकुल उसी धान के कटोरा में पले बढ़े हैं।कल और आज में आये परिवर्तन पर कवि की पैनी निगाह है।जो उसने देखा है,भोगा है,उसी अनुभूतियों को विचार की चासनी में डूबों कविता का रूप दिया है। मुकुल की कविताएं कल्पना के आकाश में उड़ना पसंद नहीं करतीं,वह तो खेत में,बधार में,,गाँवो के ऊबड़-खाबड़ जमीन और गली में, गिरते - भहराते मकान में, रिसते रिश्तों में, व्यवस्था के सड़ांध में, किसान - मजदूर के थकान अपने लिए कुछ खोजती नजर आती हैं जिसे शब्दों में पिरो कविता का रूप दे सकें। माटी के सपाट कवि मुकुल की कविताएं भी सपाट होती हैं। बिना लाग लपेट के कविता लिखना जानते हैं मुकुल।आप पायेंगे ये मैं नहीं कह रहा, उनकी कविताएं कह रही है ये बातें जब आप कविताओं से गुजरेंगे। मैं नहीं जानता कि मुकुल इतिहास  के विद्यार्थी रहे हैं आ नहीं पर इनकी निगाहें इतिहास पर टिकी होती हैं और कविताएं इतिहास समेटे रहती हैं।हम यहाँ इस संकलन की कुछ कविताओं पर बात करेंगे।यहाँ मैंने ' हम ' इसलिए लिखा है कि इन कविताओं पर बात करते हुए मेरे साथ मुकुल की कविताएं होंगी। कवि और कविता को छोड़ समीक्षा का कहाँ कोई अर्थ रह जाता है। कवि ने इस संकलन को किसान संस्कृति को बचाए रखने वाले कृषि योद्धाओं को समर्पित किया है। एक किसान कवि का कवि कर्म है किसानी संस्कृति को बचाए रखना। अतः किसान - मजदूर को पुस्तक समर्पित किया जाना कवि के कद को ऊँचा कर दिया है।इस कविता संकलन पर संक्षिप्त मंतव्य देनी हो तो इस संकलन के ही कविता का एक अंश कवि से उधार लूंगा,जो निम्नवत है -
ग्राम्य और शहरी काव्य रूपों के बीच
एक सीढ़ी था वह कवि ( था वह को यहाँ है यह पढ़ें)
जिसने समझाया हिन्दी कविता में स्थानियता का बोध
निजता में विश्व दृष्टि का फलक
जैसे वीराने में खड़ा एक पेड़
देसावर से आये पंछियों को सुनाता है
अपने संघर्ष की मिथकीय कथाएं

सीधा शांत दिखता
एकदम खेतिहर कवि लगा था वह (लगा था - लगता है पढ़ें)
जिसकी कविताओं में फूटती है
धनरोपनी के अविरल गीतों की ध्वनियाँ।

            इस संकलन की पहली कविता है ' छोटी लाइन की छुक- छुक गाड़ी ', जो आरा सासाराम लाइट रेलवे पर केंद्रित है । परंतु कविता केवल कवि के स्मृति में बसे छोटी लाइन पर दौड़ती गाड़ी की बखान नहीं करती है।बखान करती है मां,मामा,ममहर के स्मृति को, तत्कालीन समाज के रिश्तों की गर्माहट को,आज के बदलते परिवेश को,बाल विवाह और दहेज उत्पीड़न को, किसान और चरवाहों इत्यादि के साथ और बहुत सारी बातों को। कवि को रेल के डिब्बे धौरी - सोकनी -मैनी दिखाई पड़ते हैं, कवि अजनबी आगंतुक के प्रेम की तुलना गुड़ के पाग और कुआं के मीठे जल से करता है, कवि कहता है कि धीमी रेलगाड़ी की तरह जिंदगी धीमी थी पर संबंधों के लिए लोगों के पास समय था जो आज बुलेट ट्रेन के जमाने में नहीं रहा। कवि गाँव और किसानी संस्कृति के कितने करीब है यह खुद ये कविता बोल रही है।अंलकरण के लिए भी उसे किसानी शब्द ही मिलते हैं।
तब तो कवि कहता है-
दौड़ा करती थी जैसे धौरी - मौनी - सोकनी गायें/जा रही हों घास चरने के लिए परती पराठ में।
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स्मृतियों को सहेजते लोग अचानक जुड़ जाते थे/घर - परिवार - गाँव के भूले - बिसरे संबंधो के धागे में/गुड़ के पाग और कुआं के मीठे जल सा।

2.
                    
                    अनुभवों का आधार हो और विचारों के स्तंभ का सहारा दे कविता को खड़ा किया जाय तो कठिन और गूढ़ बातें बड़ी सरल भाषा में कही जा सकती है। मुकुल की कविताओं में अनुभव और विचार का सम्मिश्रण भरपूर नज़र आती है।जो कविताओं को त्रिआयामी बनाती हैं। कविताओं में लंबाई - चौड़ाई से गहराई अधिक है। पढ़ते समय गहराई में डूबने पर मोती भी हाथ आती है।कवि केदारनाथ सिंह ने कहा है कि ' अकेले मेरा दुख नहीं है। मैं सृष्टि के, समाज के दुख को देखता हूँ, मुझे बगल वाला दुख ज्यादा लगता है।तो मैं उसको देखता हूँ।अब दुख की कोई एक जगह नहीं है'। संवेदनशील लोगों को दुसरे का दुख सदा अपने दुख से बड़ा लगता है।इस संकलन की कविताओं में कवि मुकुल का चेहरा कुछ इसी प्रकार के एक संवेदनशील कवि का सामने आता है जो जगह - जगह पर अपनी कविताओं में किसी दूसरे के दुख को उद्धृत करते हैं चाहे वह किसान हो,चाहे पलायन या विस्थापन का मारा हो,या एक निविदा पर नियोजित शिक्षक हो,या बाजारवाद से त्रस्त गरीब और मध्य वर्गीय हो,या भ्रष्टाचार से त्रस्त आम नागरिक। पलायन एक व्यथा है जो आदमी के भीतर जा घर बनाती है और ताउम्र टीसती रहती है। पलायन चाहे दबाव में हो या स्वैच्छिक,कारण विस्थापन हो या रोजी - रोजगार का चक्कर अपनों एवं अपने परिवेश से दूर होने का दर्द भुलाये नहीं भुलता।माई, माटी एवं गाँव की यादें पीछा नहीं छोड़ती। इतिहास साक्षी है कि भोजपुरिया इलाका एवं पूर्वोत्तर प्रदेश पलायन को लंबे समय से झेल रहा है और आज भी पलायन की गति धीमी होने का नाम नहीं ले रही है। कवि अपने छत पर चढ़ता है तो आकाश के चाँद - तारे नहीं देखता। उसे दिखाई देता है बगल के टूटे घरों की खिसकती ईटें, बेचिरागी घर। पलायन के दुख पर कवि क्या कहता है हम देखें -

कुलधरा की तरह/ शाप के भय से नहीं/कुछ पेशे बस, कुछ शौक से छोड़ दिए घर - गाँव/खो गए दूर - सुदूर शहरों के कंक्रीटों के जंगल में/छूटे घर गौशाले मिलते गए मिट्टी के ढेर में।
                     (कुलधरा के बीच मेरा घर)

दुखों का पहाड़ लादे सिर पर/चले जाते हैं ये बिहारी/सूरत, पंजाब, दिल्ली,कहाँ - कहाँ नहीं/हड्डियां तोड़ती कड़ी मेहनत के बीच/उनके दिलों के कोने में बसा होता है उनका गाँव/बीबी बच्चों की चहकती हँसी।
                                              ( बिहारी)
बिहार से बाहर कमाने गए/युवकों के अंतस में महकती है मिट्टी की गंध/उनके पसीने के टपकन से/खिलखिलाता है गाँव का गुलाबी चेहरा।
                                                  (बिहारी)
वह एक तोतारटंत स्वदेशी स्वभाव का मानुष था/जो कमाता था अपने' देस 'के लिए,अपनी धरती के लिए/अपने बाल गोपालों,अपनी चहेती प्रिया के लिए/
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वह चला गया धड़धड़ाते लोहे की गाड़ी से/लौह पटरियों पर छुक - छुक करती हुई/बढ़ाती हुई उसकी असीम सपनों के तार/गाँव जवार के संग साथियों के साथ रहने/ झुग्गी बस्ती में कपड़े के कारखाने में करने/अपने लायक कार्य।
     ( करोना काल की जख्में टीसती है भगेलुआ को)

           इनके कविताओं के आईने में वर्तमान समाज का चेहरा स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।इन कविताओं में जीवन संघर्ष, प्रेम, बदलाव की चाह, वंचना से मुक्ति, मानवता का संदेश घुला हुआ है।देश में सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक स्तर पर हो रहे परिवर्तनों को अपनी कविता में समेटने का भरपूर कोशिश कवि ने किया है। आत्मीयता, संवेदना, मानवीय मूल्य आदि गुण आज समाज में बेमानी हो गयी हैं। इस सत्य को भी कवि ने पहचान कराने की कोशिश की है और अपने कोशिश में सफल हुए हैं।
3.
धान पुराण_

           अमूमन किसी संकलन की मुख्य कविता, जिस नाम से संकलन का नामकरण हुआ हो, संकलन के प्रारंभ में होती है। परंतु इस संकलन की अंतिम कविता है ' घिस रहा है धान का कटोरा '।एक लंबी कविता है जो सत्रह भागो में विभक्त है।जो समेटे हुए है अपने में धान के उद्भव से लेकर आज वर्तमान तक की यात्रा वृत्तांत।तो कविता हुई ना धान पुराण।कवि इसमें बात करता है रोपनी - डोभनी का,दवनी - ओसवनी का, किसान - मजदूर के दर्द का, मौसम के मार का, रसायन और कीटनाशक के भरमार का, मशीनीकरण और बाजारवाद का, बिचौलियों और कारपोरेट जमात का, किसान संस्कृति के पहचान का,बीती कल और आने वाले नया बिहान का। अपने आप में यह कविता एक पूरी संकलन है।इस कविता को पढ़ कवि को भी पढ़ा जा सकता है एक खुली किताब की तरह। कबीर की भांति आँखिन देखा को कविता का रूप दिया है कवि ने अपनी शैली में। यथार्थ को परोसने के लिए बिंब, प्रतीक, अलंकरण की जरूरत नहीं होती है।हाँ लोक भाषा के शब्द यथार्थ को रसमय और रोचक बनाते हैं जिसका भरपूर उपयोग कवि ने किया है। 
           जिधर देखो उधर फैले हैं/धान के खेत सद्य प्रसुता की तरह/गोभा का कोख निकलकर चौराते/कच्चे, अधपके बालियों के गुच्छे।
         ये कविता के शुरू के चार लाइन हैं। कविता धान के कटोरा पर केंद्रित है। कविता की शुरुआत देखें, कवि की सोच देखें इन पंक्तियों में। अच्छी शुरुआत,आधी पूर्णाहुति को चरितार्थ करती प्रारंभ की संज्ञा दी जा सकती है इन्हें। प्रकृति समय के साथ अपने को बदलती है,अपने परिवेश में पलने - बढ़ने वालों को सुरक्षा कवच देती है।इसे चावल से धान बनने की क्रिया में देखें कवि के शब्दों में -
आखिर कुदरत ने खोज लिया/चावल को बचाने का उपाय/सुरक्षित करने का नयाब तरीका/चावल के ऊपर लगा दी गई खोल/एक नोकदार खोईला/बच गया धान, धान का कटोरा,/कटोरे में एकत्र सुनहले धान/उत्तेजित हवा में झुलते हुए धान के बाल,/झुलाते हुए तन - मन कृषकों का ।

         धान के पौधों और किसान के बीच ताल मेल कवि के शब्दों में -
धान के पौधे हिलकोरे लेते हैं खेतों में/ हिलकोरे लता है किसान के भीतर का जल/ साथ मचलने को बारिश के बूंदों के साथ।
     बदलते समय के साथ कृषि के पारंपरिक औजार और तरीके के बदलाव पर कवि का विचार -

बदलता गया जमाना/ बदलते गये समय के रिवाज/खेती के औजार, बैलों की जोड़ी/हल - जुआठ, हेंगा,ढेंका,जात,ओखल - मूसल/सिमटते गये शुभ मुहूर्तों में अक्षत छीटने के रिवाज।
                 इतने पर नहीं रूकता है कवि। विलुप्त होती जा रही किसानी संस्कृति को देख बोल पड़ता है -
धान के भुस्से की तरह/ उड़ती गई ग्रामीण लोकधारा।
                किसान त्रासदी के घरी को अकले झेलता है।कवि इस सत्य को भी अपने कविता में दर्शाया है -
करते हुए खेती/कठोर कगार की तरह दृढ़ है किसान/अकाल, महामारियों के दिन में/ भीख मांगने नहीं गये इन गाँव।
                   कृषि क्षेत्र में मशीनीकरण और हाई ब्रीड बीज पर कवि के शब्द -
गड़गड़ाते ट्रैक्टर दौड़ने लगे खेतों में/ चिकरने लगी धान कटनी में/हार्वेस्टिंग कंबाइन की धमक/ खत्म हो गई गले में घुंघरू बजाते/ कबरा,गोला,मैनी बरधों की जोड़ियां।
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स्थानीय धान की प्रजातियां/गुम हो गई प्राकृतिक रूप से उपजने वाले/गुच्छ भरे अमागध के बीजवंश/
हाई ब्रीड बीजों की गर्दन काट/नई बाजार लूट संस्कृति के धमक में।
      बढ़ती रसायन और कीटनाशक का उपयोग पर कवि के शब्द देखें -
बदलते धान की खेती में/प्रकृति ने बदल लिया अपना रूप - रंग, गुण - धर्म/रासायनिक खादों की बढ़ती उपयोगिता ने/स्याही सोख्ता की तरह/ निचोड़ ली मिट्टी की उर्वरता/ कीटनाशक दवाओं के छिड़काव से/नष्ट होते जा रहे हैं प्रतिरोधक मित्रकीट।
       कवि यहाँ जैवविविधता के नष्ट होने की ओर इशारा भी कर रहा है। 
          कविता में एक किसान के मन में उपजे प्रेम को शब्दों में बांधने के कवि का प्रयास अद्भुत है -
ओसरे में खड़ी हुई तुम/भींग रही हो हवा के साथ/तिरछी आती बारिश बूंदों से/
खेतों से भींगा - भींगा/ लौट रहा हूँ तुम्हारे पास/मिलने की उसी ललक से/जैसे आकाश से टपकती बूंदें/बेचैन होती है छूने को/सूखी मिट्टी से उठती/धरती की भीनी गंध।
        रोपा करती औरतें का अपना दर्द होता है।कवि के आँखों से नहीं छुप पाता है -
बूंदाबांदी में भींग रही है गाँव के औरतें/रोपती हुई बिचड़े पंक्ति दर पंक्ति/रोप रही हैं अपने दर्द,/वेदना, धूसरित होते सपने/गाती हुई सावन में।
       कवि एक ओर रोपनी से उसके दुख को रोपवाता है तो दूसरी ओर कबरिया को बस एक आस के साथ दुख झेलने के मर्म को बयां करता है - 
आँखें लाल होता/तवँकनें लगती चमड़ियां/दोनों जाँघ छिलाने लगे अब/चनकता है चनचन/ मेरी देह का रोंवा - रोंवा/ चैन नहीं मिलती सारी रात/शायद एक ही आस हो/ मेरी जिंदगी में/ धान से भर जाते हमारे भंडार।
          कवि धान पुराण में मौसम के प्रतिकुल प्रभाव, कटनी का उल्लास,जल्लाद बनी सरकारी तंत्र के जाल में फंसा घिसता सुनहला धान का कटोरा के दुख, किसान मजदूरों के पलायन के दर्द का बड़ी मार्मिक और यथार्थ चित्रण किया है।
धान के कटोरा के घिसने के अनेक कारणों को बतलाते हुए कवि कहता है -
निश्च्छल किसानों को पूँजीग्रस्त बाजारों ने/विस्थापित होते देखते रह गये चुपचाप/सिमटते गये फसल चक्र के तरीके/हिलता रहा धान का कटोरा/ चुपचाप,बेआवाज!
हिल - हिलकर घिस रहा है/धान का कटोरा।
अंत में कवि प्रश्न छोड़ जाता है - क्या बदलेगी कभी/ धान के कटोरे की तकदीर?
     धान पुराण अपने आप में एक पूर्ण संकलन है। मात्र इस कविता को पढ़ संकलन पर विस्तृत बतकही की जा सकती है।
           
4.
कविता में इतिहास_

                  कवि का लगाव इतिहास से है जो कवि की साहित्यिक पृष्ठभूमि और इस संकलन की कविताएं बोल रही हैं। धान पुराण में धान और खेती के बेजोड़ इतिहास को कवि ने रखा है।इस संकलन की कविता सिक्के, एरिया फिफ्टी वन, अयोध्या में परदादी की धर्मशाला कहाँ है?,सेंटिनेलिस से छीन नहीं सकते मौलिकता,फिर लौटकर आएगा बुकानन,जोल्लहलूट में बचे बदरूद्दीन मियां, सैय्यद मियां की टांगी आदि में आप इतिहास को पायेंगे।पर कवि को वहाँ इतिहास के बहाने अपनी संस्कृति पर, सांप्रदायिकता पर, साहित्य पर, अपनी थाती पर, वर्तमान पर बात करते पायेंगे। उनमें आपको कवि के सुक्ष्म दृष्टि के खोज से निकली बड़ी बातें देखने को मिलेगी और सबके भीतर बैठा किसान और उसकी खेती दिखलाई पड़ेगा। कवि के शब्दों में इन्हें देखें -
हमारे जन्म के बहुत पहले ही/ केंचुल की तरह छुट गयी मुद्रायें/चित्ती, कौड़ी,दाम,छदाम/अंगूठा, ढेंगुचा, सवैया, अढ़ैया, के पहाड़े/कोकडऊर बउकवआ,माठ,गाजा, कसार/सरीखी देसी मिठाइयां। ( सिक्के)
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कभी यह डुमरांव राज की गैरमजरूआ मिल्कियत थी/जिस पर बबूल की घनी झाड़ियां फैली थी चारों ओर/ वन चइरआंठ, वन छिहुली,कुरखेत की तरह पसरा हुआ।( एरिया फिफ्टी वन)
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पचासी पार कर चुके बड़का बाबूजी/ कहते हैं कि किशोरावस्था में वे गए थे वहाँ/ धर्मशाला निर्माण के बाद के भंडारे में/कहीं रामघाट जाने वाले रास्ते पर/होगी वह धर्मशाला।( अयोध्या में परदादी की धर्मशाला कहाँ है? )
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कोई कोलंबस, वास्कोडिगामा, मार्कोपोलो/हमें बना नहीं पाया अपना गुलाम/न खरीद पाया हमारी मौलिकता, हमारी जैविकता।( सेंटिनेलिस से छीन नहीं सकते मौलिकता)
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फिर लौटकर आएगा बुकानन/हाथी पर सवार उन राहों से/जिस पर आये थे कभी मेगास्थनीज, ह्वेनसांग/ अलबरूनी,इब्बनबतूतआ, बर्नियर/अपरिचित लग रहे इस रहस्यमय इलाके को देखने/उसके वृत्तांत में पुनः जीवंत हो जायेगी/शाहाबाद की गाँवों की गलियां।( फिर लौटकर आएगा बुकानन)
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बचाता रहा मुस्लिम परिवार को/ रखते हुए बेखरोंच/खुद लहूलुहान होता रहा वह पंडित/ पड़ोसीपन के धागे को सहजता हुआ।( जोल्लहलूट में बचे बदरूद्दीन मियां)
          इतिहास साथ समाजशास्त्र का सुंदर सम्मिश्रण हैं ये कविताएं।

विविधा
         कोरोना महामारी की त्रासदी को हम सबने बहुत निकट से देखा है। एक तरफ मरते परिजनों और परिचितों को देखा आदमी उस काल में वहीं दूसरी तरफ हवा और दवा के नाम लूट देखने को मिला। कवि ने करोना काल के सच को अपनी कविता ' कोरोना काल की जख्में टीसती हैं भगेलुआ को ' एवं ' कोरोना महापिचास ' में खूबसूरती से रखा है। पर्यावरण और जैवविविधता की बिगड़ती स्थिति पर कवि जगह - जगह बातें करता नजर आता है। प्रकृति पर आदमी अत्याचार करता रहा है, जो अब भी कर रहा है तो प्रकृति का प्रकोप कभी न कभी झेलना पड़ेगा इसे बहुत जोर दे कवि ने कहा है। पलटू राम के किस्से में व्यंग्य से तो कहीं दशरथ मांझी के मेहनत और कहीं लोहिया के गुणगान करता नजर आता है कवि अपनी कविताओं में। कहीं बाजारवाद कोबरा का खेल दिखलाता है लोगों को तो कहीं जिंदा जवाहरलाल ला सामने खड़ा कर देता। बहुमुखी प्रतिभा का धनी कवि प्रेमी भी है जो प्रकृति का डोर पकड़ प्रेमाकाश में अपनी प्रेम पतंग को उड़ाता दिखता है लोगों के नजरों से बचा।पर खैर, खून,खाँसी, खुशी छुपाए नहीं छुपती और पाठक के नजरों से कवि नहीं बच पाता जिसे कई जगहों पर अपनी मौन स्वीकृति दी है कवि ने एक निश्च्छल प्रेमी बन। कहने का अर्थ विविध रूप में कविताएं पढ़ने को मिलती हैं इस संकलन में। शहरी संस्कृति के बढ़ते पैर, समाज में बढ़ते हिंसा, अपराध, भ्रष्टाचार और व्यभिचार जैसी घटनाओं को भी टाँका है अपनी कविताओं में। कवि अपनी लेखनी से गाँव के साथ ही जिंदगी के हर कोने में झांक आया है।
              मुकुल मुलतः किसान कवि हैं जो समाज - संस्कृति से गहरे जुड़े हुए हैं।कविताओं की भाषा स्वयं बोल रही हैं कि कवि मुकुल बनावटी भाषा एवं काल्पनिक उड़ान का सहारा नहीं लेते। इनकी अधिकांश कविताओं में गाँव जीवन - समाज के बदलते सच्चाइयों को बखूबी और ईमानदारी से दर्ज किया गया है तथा किसान संस्कृति के पुराने ढहते ढाँचे पर चिंता व्यक्त की गई है।सहज,सरल,लोक भाषा का सहारा ले संश्लिष्ट यथार्थ से अपनी कविता को बुना है कवि ने।जन मानुष के बीच रहकर कवि ने रचा है अपनी कविताओं को जो पाठक के चित्त पर जादुई छाप छोड़ने में सफल है। मुझे विश्वास है कोई भी पाठक इस संकलन से गुजरकर कवि और उसकी रचना संसार से एक गहन रिश्ता कायम कर सकता है। कवि के इस संकलन से गुजरने के बाद लगता है धान के कटोरा को बचाने हेतु पहल तत्काल करने की जरूरत है और कवि के भाव लेकर कहूंगा -

धान कटोरा घिस रहा, अब तो चेत किसान।
धरती को धरती समझ, समझ न कूड़ादान।।

किताब का नाम - घिस रहा है धान का कटोरा
विधा - कविता
पेपर बैक का मूल्य - 299/
प्रकाशक - सृजनलोक प्रकाशन,नई दिल्ली।
पृष्ठ संख्या -; 168    


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कृषि-संस्कृति के चित्रकार “लक्ष्मीकांत मुकुल”
_चंद्रबिंद सिंह

लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताओं से गुजरते हुए कुछ बातें स्मृति पटल पर अंकित रह जाती हैं| इनकी कविताओं को पढ़ना एक तरह की यात्रा करना है| आप इनकी कविताओं पर सवार होकर गाँव-जवार की लम्बी यात्रा पर निकल सकते हैं और पते की बात यह कि इस यात्रा में कवि हमेशा आपके साथ रहेगा| इस कदमताल में हर जगह कवि आपके सामने एक गाइड के रूप में खड़ा मिलेगा और आपके समक्ष धीरे-धीरे ग्रामीण संस्कृति के तमाम पक्ष अनावृत होते चले जाएँगे क्योंकि कवि हर एक चीज को बखूबी जानता है,उससे उसका परिचय बहुत पुराना है| वह सुनी सुनाई बातें आपको नहीं बताएगा| वह किताबों में पढ़ी हुई बातें भी आपको नहीं बताएगा| वह आपकों उतना ही बताएगा जितना उसने जिया,भोगा या फिर अपनी आँखों से देखा है| जब कवि स्वयं एक किसन है तो उसकी लेखनी ग्रामीण संस्कृति के चित्रण से कैसे अछूती  रह सकती है| असल में साहित्यकार उसी यथार्थ को अभिव्यक्त करता है या उसे अपनी लेखनी का माध्यम बनाता है, जिसे वह अनुभूत करता है| एक जगह प्रेमचंद स्वयं इस तथ्य को स्वीकार करते हुए कहते हैं कि ‘हम जीवन में जो कुछ भी देखते हैं या जो कुछ हम पर से गुजरती है वही अनुभव और चोटें कल्पना में पहुँचकर हमें साहित्य सृजन की प्रेरणा देती हैं’|बानगी के तौर पर हम इस संग्रह की बारहमासा कविता को देख सकते हैं-
“सावन भादो के रिमझिम फुहारों के बीच 
कुदाल लेकर जाऊंगा खेत पर 
तुम आओगी कलेवा के साथ 
चमकती बिजली,गरजते बादलों के बीच 
तुम गाओगी रोपनी के अविरल गीत 
बिचड़े डालते मोर सरीखे थिरकेगा मन”
                       कवि आगे लिखता है –
“धान काटते,खलिहान में ओसाते 
अगहन पूस के दिनों में बहेगी ठंडी बयार 
तुम सुलगाओगी अंगीठी भर आग 
चाहत के तपन से खिल उठेगा 
मेरी देह का रोंवा-रोंवा”
कितने कम शब्दों में कृषि-कर्म,खासकर धान की खेती की प्रक्रिया को चित्रित कर दिया गया है जहाँ दाम्पत्य का सौन्दर्य श्रम के सौन्दर्य में पिघलकर एकाकार हो जाता है और इसी का परिणाम है कि कविता का नायक किसान  अपने हाथ में कुदाल को लेकर गौरवान्वित हो रहा है जबकि बिहार जैसे राज्य में  खेती कितना थका देने वाला कार्य है, यहाँ यह बताने की आवश्यकता नहीं है। यह साफ़ स्पष्ट है कि ऐसा एक किसन कवि ही कर सकता है| इन पंक्तियों से गुजरते हुए मुझे अनायास ही रामधारी सिंह दिनकर की याद आ रही है,जब वे चीन की यात्रा पर थे| वे अपनी यात्रा-वृतांत में इस बात को कई जगह रेखांकित करते हैं कि चीन में क्रांति सरकार बनने के बाद लोगों के हाथों मे कुदाल का होना गर्व का विषय समझा जाता था|
ऐसा भी नहीं है कि किसानों की विकराल समस्याओं से कवि परिचित नहीं है | कवि को भलीभांति यह मालूम है कि आज बिहार में खेती की कमर लगभग टूट चुकी है और उसके कई कारण हैं| बीते तीन से चार दशकों में सिंचाई की तमाम सुविधाएँ एक-एक कर ध्वस्त हो चुकी हैं| जिन मंडियों से संबंधित एम एस पी के लिए देश में इतना बड़ा आन्दोलन चल रहा है,बिहार जैसे राज्य में उन मंडियों के नामों निशान तक नहीं हैं| ऐसा क्यों हुआ और कैसे हुआ? इस पर अलग से विस्तृत चर्चा की जा सकती है| कारण जो भी हो, पर आज बिहार का सच यही है- आभाव ही आभाव| कृषि-व्यवस्था के ध्वस्त होने के परिणाम स्वरूप बिहार के  गांव लगभग वीरान होते चले गए, जिस प्रकार नेपाल में एक प्रचलित कहावत है कि पहाड़ का पानी और जवानी उसके काम नहीं आता, ठीक उसी प्रकार आज हम यह कह सकते हैं कि बिहार का हाल भी नेपाल से कुछ अलग नहीं है| पलायन यहाँ की मुख्य समस्या ही नहीं बल्कि गरीबी से मुक्ति का मुख्य मार्ग है जो सीधे गुजरात और पंजाब जाता है| जहाँ “दुखों का पहाड़ लादे सिर पर / चले जाते हैं ये बिहारी/ सूरत, पंजाब, दिल्ली, कहाँ-कहाँ नहीं/ हड्डियाँ तोड़ती कड़ी मेहनत के बीच / उनके दिलों के कोने में बसा होता है गाँव/ बीबी,बच्चों की चहकती हँसी/ महानगरों की सतरंगी भीड़ में भी / कड़ी धूप में बोझ ढोते हुए /आती है उनके पसीने से देहात की गंध”| आज इसका परिणाम यह है कि हमारे गाँव कुलधरा की तरह शापित हो गए हैं –
“कुछ पेशे वश,कुछ शौक से छोड़ गए हैं घर-गाँव
खो गए दूर सुदूर शहरों के कंक्रीटों के जंगल में”  
और ऐसे में यदि कोई भूले-भटके गाँव आता भी है तो तब तक गाँव की गलियाँ अपरिचित हो चुकी होती हैं| जिन गलियों में उसका बचपन बीता था वे गलियाँ अपने ही भूमिपुत्रों को पहचानने से इनकार कर देती हैं| जब उनका गाँव उन्हें गले नहीं लगाता तो ऐसे लोग अजनबियत के शिकार हो पुनः शहर लौट जाते हैं| इस सन्दर्भ में इस बात पर भी गौर किया जाना समीचीन जान पड़ता है कि इस अजनबियत का कारण बदलता हुआ गाँव का स्वरूप और भूगोल नहीं बल्कि वह व्यक्ति है जो सुविधाभोगी हो जाने के बाद गांवों की सुध नहीं लेता और जब उसका मन सुविधाओं को भोगते-भोगते उब जाता जाता है तो उसे गाँव की याद आती है या फिर बुढ़ापे के कारण जब वह शहरी व्यवस्था के लिए अनुपयोगी हो जाता है तब उसे अपनी स्मृतियों में बसे गाँव की याद आती है| उसे वह उसी रूप में पाना चाहता है जिस रूप में छोड़ कर गया था जो कि संभव नहीं है| ऐसा होना स्वभाविक भी है, ख़ासकर उसके साथ जो अपनी जड़ से लंबे समय तक कटा रहता है| यहाँ ध्यान देने की बात यह भी है कि यह फ़नोमेना  सिर्फ गांवों पर ही लागू नहीं होती है बल्कि शहरों में भी आप इस फ़नोमेना के शिकार हो सकते हैं, पर  दोनों के कारक तत्व एक ही हैं| नगर में यह फ़नोमेना कैसे घटित हो रही है इसकी एक बानगी प्रसिद्ध कवि अरुण कमल के हवाले से देखिए --
“इन नए बसते इलाक़ों में / जहाँ रोज़ बन रहे हैं नए-नए मकान / मैं अक्सर रास्ता भूल जाता हूँ / धोखा दे जाते हैं पुराने निशान / खोजता हूँ ताकता पीपल का पेड़ / खोजता हूँ ढहा हुआ घर / और ज़मीन का ख़ाली टुकड़ा जहाँ से बाएँ / मुड़ना था मुझे / फिर दो मकान बाद बिना रंग वाले लोहे के फाटक का / घर था इकमंज़िला / और मैं हर बार एक घर पीछे / चल देता हूँ / या दो घर आगे ठकमकाता / यहाँ रोज़ कुछ बन रहा है / रोज़ कुछ घट रहा है / / यहाँ स्मृति का भरोसा नहीं / एक ही दिन में पुरानी पड़ जाती है दुनिया / जैसे वसंत का गया पतझड़ को लौटा हूँ /जैसे बैशाख का गया भादों को लौटा हूँ|” 
मैं यहाँ सिर्फ इतना कहना चाहता हूँ  कि कवि वसंत का गया हुआ पतझड़ में या फिर बैशाख का गया हुआ भादो में  तो  कतई नहीं लौटा है क्योंकि इतना कुछ बदलने में वर्षों लग जाते हैं| इस सन्दर्भ में यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि जिस समय यह कविता लिखी गई थी उस समय तक बिहार में बदलाव की गति भी बहुत धीमी थी| बावजूद इसके इस कविता का अपना सौन्दर्य है जो शाश्वत है क्योंकि कविता का वितान बहुत बड़ा है| 
“घिस रहा है धान का कटोरा” संग्रह में भी कवि का स्मृतियों पर बहुत अधिक जोर है| इस संग्रह में ऐसी कई रचनाएँ हैं जो स्मृतियों को आधार बनाकर लिखी गई हैं| उदहारण के तौर पर हम “छोटी लाइन की छुक छुक गाड़ी”, सिक्के, “किसी नाच पार्टी की नर्तकियाँ” जैसी कविताओं को देख सकते हैं| संतोष की बात यह है कि यहाँ  रचनाकार सिर्फ़ अतीतजीवी नहीं है बल्कि आज के बदलते परिवेश और हालात उसे अतीत में जबरन ले जाते हैं जहाँ उसे कुछ वैसा मिल जाता है जो आज भी मनुष्य को मनुष्य बनाये रखने के लिए ज़रूरी है और जो आज के इस आधुनिक समय में लगभग लुप्तप्राय हो चुका है क्योंकि पहले “अपाहिजों, गिरते यात्रियों को थाम लेने को/ उठते थे कई हाथ/ सामने वाले के दुःख को/ बांट लेने की ललक होती थी उनमें/ दिखता था जलकुम्भी के फूलों की तरह / सबके चहरे”| आज के इस दौर में चेहरों की पहचान मुश्किल हो गई है| अब कृत्रिम मेकअप के कारण  किसी का असली भाव उसके चेहरे पर दिखाई नहीं देता| आज बाजार ने सही और गलत के बीच के फर्क को धुंधला कर दिया है, इस नाते कवि का अतीत में जाना और उसकी पड़ताल करना आवश्यक है अन्यथा वर्तमान समय के क्रूर चेहरे को बेनकाब करना लगभग मुश्किल है| कवि समझाना चाहता है कि “कौन है वह शातिर चेहरा / जो छीन रहा है / जनता के कृषि योग्य भूमि का अधिकार / सेज,हाईवे,बांधों,रेलखंडों के नाम/ कौन बुला रहा है विदेशी कंपनियों को/ कॉर्पोरेट खेती कराने/ एग्रो प्रोसेसिंग इकाईयां बनाने के लिए/ हमारी छाती पर मूंग दलते हुए”| अत: यहाँ यह कहना गलत नहीं होगा कि कवि स्मृतियों  के माध्यम से समकालीन परिस्थितियों की पड़ताल के साथ-साथ अपने इतिहास बोध को भी समृद्ध करता है जो कवि के काव्य-बोध का हिस्सा है | अंत में फणीश्वर नाथ रेणु के शब्दों में हम कह सकते हैं कि लक्ष्मीकांत मुकुल के इस संग्रह में “फूल भी है, शूल भी है, धूल भी है, गुलाल भी है और कीचड़ भी है“ ‘कवि किसी से दामन बचाकर निकल नहीं पाया’।

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घिस रहा है धान का कटोरा (लंबी कविता) : एक मूल्यांकन
_तेज प्रताप नारायण

 बक्सर, बिहार के लक्ष्मीकांत मुकुल वैसे तो विधि स्नातक हैं लेकिन खेती-किसानी में ही उनका मन रमता है । ‘घिस रहा है धान का कटोरा’ उनकी एक लम्बी कविता है ।लम्बी कविताएँ वैसे भी इस भागती दौड़ती ज़िन्दगी में कवि कहाँ लिखते हैं और जो कुछ लिखी भी जा रहीं है वे इतना अमूर्तन रूप में है जिसमें कवि अपनी सारी विद्वता उड़ेलने के प्रयास में रहता है । ऐसे में ‘ घिस रहा है धान का कटोरा ‘ कविता का स्वागत किया जाना चाहिए ।

इस कविता में कवि की दृष्टि से कृषक संस्कृति का अतीत ,वर्तमान और भविष्य कुछ भी बचा नहीं है ।कवि की दृष्टि 360 डिग्री दौड़ी है और सब कुछ समेट लिया गया है कविता में । कवि ने अपनी कविता के माध्यम से कृषक संस्कृति के उत्थान और पतन ,उसमें हो रहे विकास या क्रमिक ह्रास सबकी बात रखी है ।गाँव से शहर की ओर पलायन हो ,कृषि का मशीनीकरण हो ,रसायनिक खादों का अत्यधिक उपयोग हो या अधिक उत्पादन की हवस ।
“अत्यधिक उत्पादन की हवस में फट गई धरती की कोख ।”

बदलाव इतनी तेजी से हुआ है कि बहुत कुछ उड़ गया है ।बाज़ारीकरण, मशीनीकरण, पूँजीवाद और अब नये कृषि कानून और इसका परिणाम ;
‘धान के भूसे की तरह उड़ती रही ग्रामीण लोकधारा ‘
अधिक यांत्रिकीकरण का नुकसान यह होता है कि पहले आदमी मशीन को चलाता है और फिर मशीन आदमी को चलाती है और आदमी मशीन में लुप्त हो जाता है ।
अति किसी भी वस्तु की सही नहीं होती है,चाहे वह निजीकरण हो,मशीनीकरण हो ,शहरीकरण हो,आदर्शवाद हो,राष्ट्रवाद हो या कुछ और ।अति का परिणाम हमेशा बुरा होता है । अति हमेशा सहअस्तित्व के विरुद होती है।

किसान ,इतिहास की लम्बी परंपरा का वाहक होता है ।किसान ही सभ्यता का जनक है ।किसान मेहनती और स्वाभिमानी होता है ;
अकाल महामारी के दिनों में भी
भीख माँगने नहीं गये आन गॉंव
कभी उनके गाँव की डलिया नहीं उठी ।

यही किसान जब खेतों की जुताई करता है तो मानों वह खेतों का श्रृंगार कर रहा हो ;

“जब्बर घासों से जकड़ी करइल मिट्टी को
जैसे चीरती है कंघी सिर के उलझे बालों को ।”,

या,

“खेतों के बीच से गुज़रती पगडंडियां
साँवरे बालों के बीच उभरती माँग की तरह “

किसान और प्रकृति का अद्भुत तादात्म्य होता है और यह बात एक किसान ही महसूस कर सकता है :

“जब भी घूमती हैं घने बादलों के साथ
आकाश में मानसूनी हवायें
धान के पौधे हिलकोरे लेते हैं खेतों में
हिलोरें लेता है किसान के भीतर का जल “

‘धान का कटोरा ‘ एक बिम्ब प्रधान कविता है ।ग्रामीण देशज शब्दों से पंक्ति दर पंक्ति सुन्दर बिम्बों से सजी हुई है ।चाहे वह रोपाई का समय हो,जुताई का समय अथवा रोपाई और मड़ाई का ।
कृषक संस्कृति में खेती एक व्यक्ति का काम नहीं होता है बल्कि पूरा परिवार ही उसमें शामिल होता है ।इसी सहधर्मिता के कारण राग-विराग,प्रणय,वेदना आदि की समवेत स्वर में रागात्मक अनुभूति होती है । रोपती हुई औरतें अपना सारा दुख- दर्द,वेदना ज़मीन में रोप 
देती हैं ।

‘धान का कटोरा ‘आदिम से आधुनिक की यात्रा भी कही जा सकती है । समाज में धान के कटोरे को हथियाने का संघर्ष ज़ारी है वह चाहे नई कृषि नीति के माध्यम से हो या नव पूँजी वाद के माध्यम से ।
गोदान के होरी से लेकर आज के किसान की भी हालत कमोबेश वैसी ही है ।पहले भी शासक बहरे थे और आज भी बहरे हैं ,तभी तो किसान आत्महत्या करने पर विवश है और खुले आसमान के नीचे हांड़ को कंपाने वाली सर्दी में आंदोलन रत है ।
आज के समय का बड़ा प्रश्न यही है कि क्या धान का कटोरा बचा रहेगा ?

संपर्क सूत्र_ tej.pratap.n2002@gmail.com

लक्ष्मीकांत मुकुल के प्रथम कविता संकलन "लाल चोंच वाले पंछी" पर आधारित कुमार नयन, सुरेश कांटक, संतोष पटेल और जमुना बीनी के समीक्षात्मक मूल्यांकन

लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताओं में मौन प्रतिरोध है – कुमार नयन आधुनिकता की अंधी दौड़ में अपनी मिट्टी, भाषा, बोली, त्वरा, अस्मिता, ग...