Wednesday 7 November 2018

एक उर्दू लेखिका की नजर में लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताएं

لکشمی کانت مکل کی ہندی شاعری  ترقی پسند نظریہ، مقامی علم ، وقت کی نذاقت، احلام کے حوالے سے دور دورہ کے حقیقت کی نقاب کشائی اور تعارف کا احصامی ہونا ہے۔ انکے اشارات میں گاؤں کی معطر فذا اور کھیتی باڑی کا مزاج وجہ ہے، چنانچہ اس میں خود وتن کے خام امرد کی مہک بھی ملتی ہے۔ شايري کے الفاظ میں یہ بولی ٹھولي سے متاثر پاكدامن اہل قلم ہیں، جہاں  بیابان میں سجر پر سرخ چوںچ کا پرندہ چیختا  ہے ۔  انکی شاعری سے گزرتے وقت  ایسا محسوس ہوتا ہے کہ قافلہ میں چلتے ہوئے ہم کسی ہمراہ اچانک اپنا دل دے چکے ہوں !          

     ✍ ربينا سهسرامي

डॉ. देवेंद्र चौबे की दृष्टि में लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताएं

Lakshmi kant Mukul is an active poet of our time . published a few years"Lal chonch wale panchhi" is an important collection of his Hindi poems. Buxar soil, there is their deep inside the ability to see the struggle of the traditions of philosophy, nature and life, etc. His poems indigenous mind and helps in understanding these variant expressions ----------- - Devendra Chaubey, Noted Writer and Academician.

लक्ष्मीकांत मुकुल की एक लंबी भोजपुरी कविता {देवनागरी लिपि व कैथी लिपि में रूपांतरित भी}

(भोजपुरी कविता)         


भरकी में चहुपल भईंसा /लक्ष्मीकांत मुकुल


( l )

आवेले ऊ भरकी से

कीच -पांक में गोड लसराइल

आर – डंड़ार प धावत चउहदी

हाथ में पोरसा भ के गोजी थमले

इहे पहचान रहल बा उनकर सदियन से

तलफत घाम में चियार लेखा फाट जाला

उनका खेतन के छाती

पनचहल होते हर में नधाइल बैलहाटा के

बर्धन के भंसे लागेला ठेहून

ट्रेक्टर के पहिया फंस के

लेवाड़ मारेले हीक भ

करईल के चिमर माटी चमोर देले

उखमंजलन के हाँक – दाब

हेठार खातिर दखिनहा, बाल के पछिमहा

भरकी के वासी मंगनचन ना होखे दउरा लेके कबो

बोअनी के बाद हरियरी, बियाछत पउधा के सोरी के

पूजत रहे के बा उनकर आदिये के सोभाव

जांगर ठेठाई धरती से उपराज लेलन सोना

माटी का आन, मेहनत के पेहान के मानले जीये के मोल


( ll )

शहर के सड़की पर अबो

ना चले आइल उनका दायें – बायें

मांड़ – भात खाए के आदी के रेस्तरां में

इडली – डोसा चीखे के ना होखल अब ले सहूर

उनकर लार चुवे लागेला

मरदुआ – रिकवंछ ढकनेसर के नांव प

सोस्ती सीरी वाली चिट्ठी बांचत मनईं

न बुझ पावल अबले इमेल – उमेल के बात

कउड़ा त बइठ के गँवलेहर करत

अभियो गंवार बन के चकचिहाइल रहेले

सभ्य लोगन के सामने बिलार मतिन

गोल – मोल – तोल के टेढ़बाँगुच

लीक का भरोसे अब तक नापे न आइल

उनका आगे बढे के चाह

माँल  में चमकऊआ लुग्गा वाली मेहरारू

कबो न लुझेलीसन उनका ओर

कवलेजिहा लइकी मोबाईल प अंगुरी फेरत चोन्हा में

कनखी से उनका ओर बिरावेलीसन मुंह

अंग्रेजी में किड़बिड़ बोलत इसकोलिहा बाचा

उनका के झपिलावत बुझेलसन दोसरा गरह के बसेना

शहरीन के नजर में ऊ लागेलन गोबरउरा अस

उनका के देखते छूछ्बेहर सवखिनिहाँ के मन में भभके लागेला

घूर के बास , गोठहुल के भकसी, भुसहुल के भकसी

( lll )

जब ले बहल बा बजरुहा बयार

धूर लेखा उधिया रहल बा भरकी के गाँव, ओकर चिन्हानी

खेत – बधार , नदी – घाट , महुआ – पाकड़

बिकुआ जींस मतीन घूम रहल बाड़ीसन मंडी के मोहानी प

जहवाँ पोखरी के गरइ मछरी के चहुपता खेप

चहुपावल जा रहल बा दूध भरल डिब्बा

गोड़ार के उप्रजल तियना

खरिहान में चमकत धान, बकेन, दुधगर देसिला गरु के देसावर

समय के सउदागर लूट रहल बा

हमनी के कूल्ह संगोरल थाती

धार मराइल बा सपना प

दिनोदिन आलोपित हो रहल बा मठमेहर अस

धनखर देस पुअरा से चिन्हइला के पहचान

मेट गइल फगुआ चइता – कजरी के सहमेल

भुला गइल खलिहा बखत हितई कमाये जाये के रेवाज

ख़तम हो रहल बा खरमेंटाव के बेरा

सतुआ खाये माठा घोंटे के बानि

छूट गइल ऊ लगन जब आदमी नरेटी से ना

ढोढ़ी के दम से ठठा के हँसत रहे जोरदार

जवानी बिलवारहल बाड़े एहीजा के नवहा

पंजाब, गुजरात, का कारखाना में देह गलावत

बूढ़ झाँख मारताड़े कुरसत ज़माना के बदलल खेल प

बढ़ता मरद के दारु, रोड प मेहरारू के चलन

लइका बहेंगवा बनल बुझा रहल बाड़ें जिये के ललसा

सूअर के खोभार अस बन रहल बा गाँव – गली

कमजोर हो रहल बा माटी के जकडल रहे के

घुड़ली घास ,बेंगची, भरकभांड़ के जड़न के हूब.


(IV)

दिनदुपहरिये गाँव के मटीगर देवाल में

सेंध फोरत ढुक गईल बा शहर

कान्ही प लदले बाज़ार

पीठी प लदले विकास के झुझुना

कपार प टंगले सरकारी घिरनई

अंकवारी में लिहले अमेरिकी दोकान

एह नया अवतार प अचंभों में

पडल बा गाँव भरकी के

ना हेठारो के ना पूरा दुनिया – जहान के

जइसे सोझा पड़ गईल होखे मरखाहवा भईंसा

भागल जाव कि भगावल जाव ओके सिवान से

भकसावन अन्हरिया रात में लुकार बान्ह के.


कैथी लिपि में रूपांतरित_


𑂦𑂩𑂍𑂲 𑂧𑂵𑂁 𑂒𑂯𑂳𑂣𑂪 𑂦𑂆𑂁𑂮𑂰 /𑂪𑂍𑂹𑂭𑂹𑂧𑂲𑂍𑂰𑂁𑂞 𑂧𑂳𑂍𑂳𑂪


( l )

𑂄𑂫𑂵𑂪𑂵 𑂈 𑂦𑂩𑂍𑂲 𑂮𑂵

𑂍𑂲𑂒 -𑂣𑂰𑂁𑂍 𑂧𑂵𑂁 𑂏𑂷𑂚 𑂪𑂮𑂩𑂰𑂅𑂪

𑂄𑂩 – 𑂙𑂁𑂚𑂰𑂩 𑂣 𑂡𑂰𑂫𑂞 𑂒𑂇𑂯𑂠𑂲

𑂯𑂰𑂟 𑂧𑂵𑂁 𑂣𑂷𑂩𑂮𑂰 𑂦 𑂍𑂵 𑂏𑂷𑂔𑂲 𑂟𑂧𑂪𑂵

𑂅𑂯𑂵 𑂣𑂯𑂒𑂰𑂢 𑂩𑂯𑂪 𑂥𑂰 𑂇𑂢𑂍𑂩 𑂮𑂠𑂱𑂨𑂢 𑂮𑂵

𑂞𑂪𑂤𑂞 𑂐𑂰𑂧 𑂧𑂵𑂁 𑂒𑂱𑂨𑂰𑂩 𑂪𑂵𑂎𑂰 𑂤𑂰𑂗 𑂔𑂰𑂪𑂰

𑂇𑂢𑂍𑂰 𑂎𑂵𑂞𑂢 𑂍𑂵 𑂓𑂰𑂞𑂲

𑂣𑂢𑂒𑂯𑂪 𑂯𑂷𑂞𑂵 𑂯𑂩 𑂧𑂵𑂁 𑂢𑂡𑂰𑂅𑂪 𑂥𑂶𑂪𑂯𑂰𑂗𑂰 𑂍𑂵

𑂥𑂩𑂹𑂡𑂢 𑂍𑂵 𑂦𑂁𑂮𑂵 𑂪𑂰𑂏𑂵𑂪𑂰 𑂘𑂵𑂯𑂴𑂢

𑂗𑂹𑂩𑂵𑂍𑂹𑂗𑂩 𑂍𑂵 𑂣𑂯𑂱𑂨𑂰 𑂤𑂁𑂮 𑂍𑂵

𑂪𑂵𑂫𑂰𑂚 𑂧𑂰𑂩𑂵𑂪𑂵 𑂯𑂲𑂍 𑂦

𑂍𑂩𑂆𑂪 𑂍𑂵 𑂒𑂱𑂧𑂩 𑂧𑂰𑂗𑂲 𑂒𑂧𑂷𑂩 𑂠𑂵𑂪𑂵

𑂇𑂎𑂧𑂁𑂔𑂪𑂢 𑂍𑂵 𑂯𑂰𑂀𑂍 – 𑂠𑂰𑂥

𑂯𑂵𑂘𑂰𑂩 𑂎𑂰𑂞𑂱𑂩 𑂠𑂎𑂱𑂢𑂯𑂰, 𑂥𑂰𑂪 𑂍𑂵 𑂣𑂓𑂱𑂧𑂯𑂰

𑂦𑂩𑂍𑂲 𑂍𑂵 𑂫𑂰𑂮𑂲 𑂧𑂁𑂏𑂢𑂒𑂢 𑂢𑂰 𑂯𑂷𑂎𑂵 𑂠𑂇𑂩𑂰 𑂪𑂵𑂍𑂵 𑂍𑂥𑂷

𑂥𑂷𑂃𑂢𑂲 𑂍𑂵 𑂥𑂰𑂠 𑂯𑂩𑂱𑂨𑂩𑂲, 𑂥𑂱𑂨𑂰𑂓𑂞 𑂣𑂇𑂡𑂰 𑂍𑂵 𑂮𑂷𑂩𑂲 𑂍𑂵

𑂣𑂴𑂔𑂞 𑂩𑂯𑂵 𑂍𑂵 𑂥𑂰 𑂇𑂢𑂍𑂩 𑂄𑂠𑂱𑂨𑂵 𑂍𑂵 𑂮𑂷𑂦𑂰𑂫

𑂔𑂰𑂁𑂏𑂩 𑂘𑂵𑂘𑂰𑂆 𑂡𑂩𑂞𑂲 𑂮𑂵 𑂇𑂣𑂩𑂰𑂔 𑂪𑂵𑂪𑂢 𑂮𑂷𑂢𑂰

𑂧𑂰𑂗𑂲 𑂍𑂰 𑂄𑂢, 𑂧𑂵𑂯𑂢𑂞 𑂍𑂵 𑂣𑂵𑂯𑂰𑂢 𑂍𑂵 𑂧𑂰𑂢𑂪𑂵 𑂔𑂲𑂨𑂵 𑂍𑂵 𑂧𑂷𑂪


( ll )

𑂬𑂯𑂩 𑂍𑂵 𑂮𑂚𑂍𑂲 𑂣𑂩 𑂃𑂥𑂷

𑂢𑂰 𑂒𑂪𑂵 𑂄𑂅𑂪 𑂇𑂢𑂍𑂰 𑂠𑂰𑂨𑂵𑂁 – 𑂥𑂰𑂨𑂵𑂁

𑂧𑂰𑂁𑂚 – 𑂦𑂰𑂞 𑂎𑂰𑂉 𑂍𑂵 𑂄𑂠𑂲 𑂍𑂵 𑂩𑂵𑂮𑂹𑂞𑂩𑂰𑂁 𑂧𑂵𑂁

𑂅𑂙𑂪𑂲 – 𑂙𑂷𑂮𑂰 𑂒𑂲𑂎𑂵 𑂍𑂵 𑂢𑂰 𑂯𑂷𑂎𑂪 𑂃𑂥 𑂪𑂵 𑂮𑂯𑂴𑂩

𑂇𑂢𑂍𑂩 𑂪𑂰𑂩 𑂒𑂳𑂫𑂵 𑂪𑂰𑂏𑂵𑂪𑂰

𑂧𑂩𑂠𑂳𑂄 – 𑂩𑂱𑂍𑂫𑂁𑂓 𑂛𑂍𑂢𑂵𑂮𑂩 𑂍𑂵 𑂢𑂰𑂁𑂫 𑂣

𑂮𑂷𑂮𑂹𑂞𑂲 𑂮𑂲𑂩𑂲 𑂫𑂰𑂪𑂲 𑂒𑂱𑂗𑂹𑂘𑂲 𑂥𑂰𑂁𑂒𑂞 𑂧𑂢𑂆𑂁

𑂢 𑂥𑂳𑂕 𑂣𑂰𑂫𑂪 𑂃𑂥𑂪𑂵 𑂅𑂧𑂵𑂪 – 𑂇𑂧𑂵𑂪 𑂍𑂵 𑂥𑂰𑂞

𑂍𑂇𑂚𑂰 𑂞 𑂥𑂅𑂘 𑂍𑂵 𑂏𑂀𑂫𑂪𑂵𑂯𑂩 𑂍𑂩𑂞

𑂃𑂦𑂱𑂨𑂷 𑂏𑂁𑂫𑂰𑂩 𑂥𑂢 𑂍𑂵 𑂒𑂍𑂒𑂱𑂯𑂰𑂅𑂪 𑂩𑂯𑂵𑂪𑂵

𑂮𑂦𑂹𑂨 𑂪𑂷𑂏𑂢 𑂍𑂵 𑂮𑂰𑂧𑂢𑂵 𑂥𑂱𑂪𑂰𑂩 𑂧𑂞𑂱𑂢

𑂏𑂷𑂪 – 𑂧𑂷𑂪 – 𑂞𑂷𑂪 𑂍𑂵 𑂗𑂵𑂜𑂥𑂰𑂀𑂏𑂳𑂒

𑂪𑂲𑂍 𑂍𑂰 𑂦𑂩𑂷𑂮𑂵 𑂃𑂥 𑂞𑂍 𑂢𑂰𑂣𑂵 𑂢 𑂄𑂅𑂪

𑂇𑂢𑂍𑂰 𑂄𑂏𑂵 𑂥𑂛𑂵 𑂍𑂵 𑂒𑂰𑂯

𑂧𑂰𑂀𑂪 𑂧𑂵𑂁 𑂒𑂧𑂍𑂈𑂄 𑂪𑂳𑂏𑂹𑂏𑂰 𑂫𑂰𑂪𑂲 𑂧𑂵𑂯𑂩𑂰𑂩𑂴

𑂍𑂥𑂷 𑂢 𑂪𑂳𑂕𑂵𑂪𑂲𑂮𑂢 𑂇𑂢𑂍𑂰 𑂋𑂩

𑂍𑂫𑂪𑂵𑂔𑂱𑂯𑂰 𑂪𑂅𑂍𑂲 𑂧𑂷𑂥𑂰𑂆𑂪 𑂣 𑂃𑂁𑂏𑂳𑂩𑂲 𑂤𑂵𑂩𑂞 𑂒𑂷𑂢𑂹𑂯𑂰 𑂧𑂵𑂁

𑂍𑂢𑂎𑂲 𑂮𑂵 𑂇𑂢𑂍𑂰 𑂋𑂩 𑂥𑂱𑂩𑂰𑂫𑂵𑂪𑂲𑂮𑂢 𑂧𑂳𑂁𑂯

𑂃𑂁𑂏𑂹𑂩𑂵𑂔𑂲 𑂧𑂵𑂁 𑂍𑂱𑂚𑂥𑂱𑂚 𑂥𑂷𑂪𑂞 𑂅𑂮𑂍𑂷𑂪𑂱𑂯𑂰 𑂥𑂰𑂒𑂰

𑂇𑂢𑂍𑂰 𑂍𑂵 𑂕𑂣𑂱𑂪𑂰𑂫𑂞 𑂥𑂳𑂕𑂵𑂪𑂮𑂢 𑂠𑂷𑂮𑂩𑂰 𑂏𑂩𑂯 𑂍𑂵 𑂥𑂮𑂵𑂢𑂰

𑂬𑂯𑂩𑂲𑂢 𑂍𑂵 𑂢𑂔𑂩 𑂧𑂵𑂁 𑂈 𑂪𑂰𑂏𑂵𑂪𑂢 𑂏𑂷𑂥𑂩𑂇𑂩𑂰 𑂃𑂮

𑂇𑂢𑂍𑂰 𑂍𑂵 𑂠𑂵𑂎𑂞𑂵 𑂓𑂴𑂓𑂹𑂥𑂵𑂯𑂩 𑂮𑂫𑂎𑂱𑂢𑂱𑂯𑂰𑂀 𑂍𑂵 𑂧𑂢 𑂧𑂵𑂁 𑂦𑂦𑂍𑂵 𑂪𑂰𑂏𑂵𑂪𑂰

𑂐𑂴𑂩 𑂍𑂵 𑂥𑂰𑂮 , 𑂏𑂷𑂘𑂯𑂳𑂪 𑂍𑂵 𑂦𑂍𑂮𑂲, 𑂦𑂳𑂮𑂯𑂳𑂪 𑂍𑂵 𑂦𑂍𑂮𑂲

( lll )

𑂔𑂥 𑂪𑂵 𑂥𑂯𑂪 𑂥𑂰 𑂥𑂔𑂩𑂳𑂯𑂰 𑂥𑂨𑂰𑂩

𑂡𑂴𑂩 𑂪𑂵𑂎𑂰 𑂇𑂡𑂱𑂨𑂰 𑂩𑂯𑂪 𑂥𑂰 𑂦𑂩𑂍𑂲 𑂍𑂵 𑂏𑂰𑂀𑂫, 𑂋𑂍𑂩 𑂒𑂱𑂢𑂹𑂯𑂰𑂢𑂲

𑂎𑂵𑂞 – 𑂥𑂡𑂰𑂩 , 𑂢𑂠𑂲 – 𑂐𑂰𑂗 , 𑂧𑂯𑂳𑂄 – 𑂣𑂰𑂍𑂚

𑂥𑂱𑂍𑂳𑂄 𑂔𑂲𑂁𑂮 𑂧𑂞𑂲𑂢 𑂐𑂴𑂧 𑂩𑂯𑂪 𑂥𑂰𑂚𑂲𑂮𑂢 𑂧𑂁𑂙𑂲 𑂍𑂵 𑂧𑂷𑂯𑂰𑂢𑂲 𑂣

𑂔𑂯𑂫𑂰𑂀 𑂣𑂷𑂎𑂩𑂲 𑂍𑂵 𑂏𑂩𑂆 𑂧𑂓𑂩𑂲 𑂍𑂵 𑂒𑂯𑂳𑂣𑂞𑂰 𑂎𑂵𑂣

𑂒𑂯𑂳𑂣𑂰𑂫𑂪 𑂔𑂰 𑂩𑂯𑂪 𑂥𑂰 𑂠𑂴𑂡 𑂦𑂩𑂪 𑂙𑂱𑂥𑂹𑂥𑂰

𑂏𑂷𑂚𑂰𑂩 𑂍𑂵 𑂇𑂣𑂹𑂩𑂔𑂪 𑂞𑂱𑂨𑂢𑂰

𑂎𑂩𑂱𑂯𑂰𑂢 𑂧𑂵𑂁 𑂒𑂧𑂍𑂞 𑂡𑂰𑂢, 𑂥𑂍𑂵𑂢, 𑂠𑂳𑂡𑂏𑂩 𑂠𑂵𑂮𑂱𑂪𑂰 𑂏𑂩𑂳 𑂍𑂵 𑂠𑂵𑂮𑂰𑂫𑂩

𑂮𑂧𑂨 𑂍𑂵 𑂮𑂇𑂠𑂰𑂏𑂩 𑂪𑂴𑂗 𑂩𑂯𑂪 𑂥𑂰

𑂯𑂧𑂢𑂲 𑂍𑂵 𑂍𑂴𑂪𑂹𑂯 𑂮𑂁𑂏𑂷𑂩𑂪 𑂟𑂰𑂞𑂲

𑂡𑂰𑂩 𑂧𑂩𑂰𑂅𑂪 𑂥𑂰 𑂮𑂣𑂢𑂰 𑂣

𑂠𑂱𑂢𑂷𑂠𑂱𑂢 𑂄𑂪𑂷𑂣𑂱𑂞 𑂯𑂷 𑂩𑂯𑂪 𑂥𑂰 𑂧𑂘𑂧𑂵𑂯𑂩 𑂃𑂮

𑂡𑂢𑂎𑂩 𑂠𑂵𑂮 𑂣𑂳𑂃𑂩𑂰 𑂮𑂵 𑂒𑂱𑂢𑂹𑂯𑂅𑂪𑂰 𑂍𑂵 𑂣𑂯𑂒𑂰𑂢

𑂧𑂵𑂗 𑂏𑂅𑂪 𑂤𑂏𑂳𑂄 𑂒𑂅𑂞𑂰 – 𑂍𑂔𑂩𑂲 𑂍𑂵 𑂮𑂯𑂧𑂵𑂪

𑂦𑂳𑂪𑂰 𑂏𑂅𑂪 𑂎𑂪𑂱𑂯𑂰 𑂥𑂎𑂞 𑂯𑂱𑂞𑂆 𑂍𑂧𑂰𑂨𑂵 𑂔𑂰𑂨𑂵 𑂍𑂵 𑂩𑂵𑂫𑂰𑂔

𑂎𑂺𑂞𑂧 𑂯𑂷 𑂩𑂯𑂪 𑂥𑂰 𑂎𑂩𑂧𑂵𑂁𑂗𑂰𑂫 𑂍𑂵 𑂥𑂵𑂩𑂰

𑂮𑂞𑂳𑂄 𑂎𑂰𑂨𑂵 𑂧𑂰𑂘𑂰 𑂐𑂷𑂁𑂗𑂵 𑂍𑂵 𑂥𑂰𑂢𑂱

𑂓𑂴𑂗 𑂏𑂅𑂪 𑂈 𑂪𑂏𑂢 𑂔𑂥 𑂄𑂠𑂧𑂲 𑂢𑂩𑂵𑂗𑂲 𑂮𑂵 𑂢𑂰

𑂛𑂷𑂜𑂲 𑂍𑂵 𑂠𑂧 𑂮𑂵 𑂘𑂘𑂰 𑂍𑂵 𑂯𑂀𑂮𑂞 𑂩𑂯𑂵 𑂔𑂷𑂩𑂠𑂰𑂩

𑂔𑂫𑂰𑂢𑂲 𑂥𑂱𑂪𑂫𑂰𑂩𑂯𑂪 𑂥𑂰𑂚𑂵 𑂉𑂯𑂲𑂔𑂰 𑂍𑂵 𑂢𑂫𑂯𑂰

𑂣𑂁𑂔𑂰𑂥, 𑂏𑂳𑂔𑂩𑂰𑂞, 𑂍𑂰 𑂍𑂰𑂩𑂎𑂰𑂢𑂰 𑂧𑂵𑂁 𑂠𑂵𑂯 𑂏𑂪𑂰𑂫𑂞

𑂥𑂴𑂜 𑂕𑂰𑂀𑂎 𑂧𑂰𑂩𑂞𑂰𑂚𑂵 𑂍𑂳𑂩𑂮𑂞 𑂔𑂺𑂧𑂰𑂢𑂰 𑂍𑂵 𑂥𑂠𑂪𑂪 𑂎𑂵𑂪 𑂣

𑂥𑂜𑂞𑂰 𑂧𑂩𑂠 𑂍𑂵 𑂠𑂰𑂩𑂳, 𑂩𑂷𑂙 𑂣 𑂧𑂵𑂯𑂩𑂰𑂩𑂴 𑂍𑂵 𑂒𑂪𑂢

𑂪𑂅𑂍𑂰 𑂥𑂯𑂵𑂁𑂏𑂫𑂰 𑂥𑂢𑂪 𑂥𑂳𑂕𑂰 𑂩𑂯𑂪 𑂥𑂰𑂚𑂵𑂁 𑂔𑂱𑂨𑂵 𑂍𑂵 𑂪𑂪𑂮𑂰

𑂮𑂴𑂃𑂩 𑂍𑂵 𑂎𑂷𑂦𑂰𑂩 𑂃𑂮 𑂥𑂢 𑂩𑂯𑂪 𑂥𑂰 𑂏𑂰𑂀𑂫 – 𑂏𑂪𑂲

𑂍𑂧𑂔𑂷𑂩 𑂯𑂷 𑂩𑂯𑂪 𑂥𑂰 𑂧𑂰𑂗𑂲 𑂍𑂵 𑂔𑂍𑂙𑂪 𑂩𑂯𑂵 𑂍𑂵

𑂐𑂳𑂚𑂪𑂲 𑂐𑂰𑂮 ,𑂥𑂵𑂁𑂏𑂒𑂲, 𑂦𑂩𑂍𑂦𑂰𑂁𑂚 𑂍𑂵 𑂔𑂚𑂢 𑂍𑂵 𑂯𑂴𑂥.


(IV)

𑂠𑂱𑂢𑂠𑂳𑂣𑂯𑂩𑂱𑂨𑂵 𑂏𑂰𑂀𑂫 𑂍𑂵 𑂧𑂗𑂲𑂏𑂩 𑂠𑂵𑂫𑂰𑂪 𑂧𑂵𑂁

𑂮𑂵𑂁𑂡 𑂤𑂷𑂩𑂞 𑂛𑂳𑂍 𑂏𑂆𑂪 𑂥𑂰 𑂬𑂯𑂩

𑂍𑂰𑂢𑂹𑂯𑂲 𑂣 𑂪𑂠𑂪𑂵 𑂥𑂰𑂔𑂺𑂰𑂩

𑂣𑂲𑂘𑂲 𑂣 𑂪𑂠𑂪𑂵 𑂫𑂱𑂍𑂰𑂮 𑂍𑂵 𑂕𑂳𑂕𑂳𑂢𑂰

𑂍𑂣𑂰𑂩 𑂣 𑂗𑂁𑂏𑂪𑂵 𑂮𑂩𑂍𑂰𑂩𑂲 𑂐𑂱𑂩𑂢𑂆

𑂃𑂁𑂍𑂫𑂰𑂩𑂲 𑂧𑂵𑂁 𑂪𑂱𑂯𑂪𑂵 𑂃𑂧𑂵𑂩𑂱𑂍𑂲 𑂠𑂷𑂍𑂰𑂢

𑂉𑂯 𑂢𑂨𑂰 𑂃𑂫𑂞𑂰𑂩 𑂣 𑂃𑂒𑂁𑂦𑂷𑂁 𑂧𑂵𑂁

𑂣𑂙𑂪 𑂥𑂰 𑂏𑂰𑂀𑂫 𑂦𑂩𑂍𑂲 𑂍𑂵

𑂢𑂰 𑂯𑂵𑂘𑂰𑂩𑂷 𑂍𑂵 𑂢𑂰 𑂣𑂴𑂩𑂰 𑂠𑂳𑂢𑂱𑂨𑂰 – 𑂔𑂯𑂰𑂢 𑂍𑂵

𑂔𑂅𑂮𑂵 𑂮𑂷𑂕𑂰 𑂣𑂚 𑂏𑂆𑂪 𑂯𑂷𑂎𑂵 𑂧𑂩𑂎𑂰𑂯𑂫𑂰 𑂦𑂆𑂁𑂮𑂰

𑂦𑂰𑂏𑂪 𑂔𑂰𑂫 𑂍𑂱 𑂦𑂏𑂰𑂫𑂪 𑂔𑂰𑂫 𑂋𑂍𑂵 𑂮𑂱𑂫𑂰𑂢 𑂮𑂵

𑂦𑂍𑂮𑂰𑂫𑂢 𑂃𑂢𑂹𑂯𑂩𑂱𑂨𑂰 𑂩𑂰𑂞 𑂧𑂵𑂁 𑂪𑂳𑂍𑂰𑂩 𑂥𑂰𑂢𑂹𑂯 𑂍𑂵.


Friday 14 September 2018

लक्ष्मीकांत मुकुल की राम मनोहर लोहिया पर कविता

घना बरगद थे लोहिया / लक्ष्मीकान्त मुकुल






झाड-झंखाड़ नहीं, घना बरगद थे लोहिया 
जिसकी शाखाओं में झूलती थी समाजवाद की पत्तियां 
बाएं बाजू की डूलती टहनियों से 
गूंजते थे निःशब्द स्वर 
‘दाम बांधो, काम दो,
सबने मिलकर बाँधी गाँठ,
पिछड़े पाँवें सौ में साठ’
दायें बाजू की थिरकती टहनियों से 
गूंजती थी सधी आवाज़ 
‘हर हाथ को काम, हर खेत को पानी’
बराबरी, भाईचारा के उनके सन्देश 
धुर देहात तक ले जाती थीं हवाएं दसों दिशाओं से 
सामंतवाद, पूंजीवाद की तपती दुपहरी में 
दलित, गरीब, मजदूर-किसान
ठंढक पाते थे उसकी सघन छाँव में 
 
बुद्धीजीवियों के सच्चे गुरु 
औरतों के सच्चे हमदर्द 
भूमिहीनों के लिए फ़रिश्ता थे लोहिया 
बरोह की तरह लटकती आकांक्षाओं में 
सबकी पूरी होती थी उम्मीदें 

अपराजेय योद्धा की तरह अडिग 
लोहिया की आवाज़ गूंजती थी संसद में 
असमानता के विरुद्ध 
तेज़ कदम चलते थे प्रतिरोध में मशाल लिए
उनकी कलम से उभरती थी तीखी रोशनी 
चश्मे के भीतर से झांकती 
उनकी आँखें टटोल लेती थीं 
देश के अन्धेरेपन का हरेक कोना

लक्ष्मीकांत मुकुल की सूचना के अधिकार पर कविता

सूचनाधिकार कानून / लक्ष्मीकान्त मुकुल






सत्तासीनों ने सौंपा है हमारे हिस्से में 
गेंद के आकर की रुइया मिठाई 
जो छूते ही मसल जाती है चुटकी में 
जिसे चखकर समझते हो तुम आज़ादी का मंत्र

यह लालीपाप तो नहीं 
या, स्वप्न सुंदरी को आलिंगन की अभिलाषा
या, रस्साकशी की आजमाईश
कि बच्चों की ललमुनिया चिरई का खेल 
या, बन्दर – मदारी वाला कशमकश 
जिसमें एक डमरू बजता है तो दूसरा नाच दिखाता
या, सत्ता को संकरे आकाश-फांकों से निरखने वाले 
निर्जन के सीमांत गझिन वृक्षवासियों की जिद 
या कि, नदी - पारतट के सांध्य – रोमांच की चुहल पाने 
निविडमुखी खगझुंडों की नभोधूम 

सूचनाधिकार भारतीय संसद द्वारा 
फेंका गया महाजाल है क्या ?
जिसके बीच खलबलाते हैं माछ, शंख, सितुहे
जिसमें मछलियाँ पूछती हैं मगरमच्छों से 
कि वे कब तक बची रह सकती हैं अथाह सागर में
जलीय जीव अपील-दर-अपील करते हैं शार्क से 
उसके प्रलयंकारी प्रकोप से सुरक्षित रहने के तरीके 
छटपटाहट में जानने को बेचैन सूचना प्रहरी 
छान मारते हैं सागर की अतल गहराई को
हाथों में थामे हुए कंकड़, पत्थर, शैवाल की सूचनाएं 

एक चोर कैसे बता सकता है सेंधमारी के भेद 
हत्यारा कैसे दे सकता है सूचना 
जैसा कि रघुवीर सहाय की कविता में है - ‘आज 
खुलेआम रामदास की हत्या होगी और तमाशा देखेंगे लोग ‘
मुक्तिबोध जैसा साफ़ – स्पष्ट 
कैसे सूचित करेगा लोक सूचना पदाधिकारी 
जैसा कि उनकी कविता में वर्णित है कि
अँधेरे में आती बैंड पार्टी में औरों के साथ 
शहर का कुख्यात डोमा उश्ताद भी शामिल था 
एक अफसर फाइल नोटिंग में कैसे दर्ज करेगा 
टाप टू बटम लूटखसोट का ब्यौरा 
कि विष-वृक्षों की कैसी होती हैं
जडें, तनें, टहनियाँ और पत्तियां?

बेसुरा संतूर बन गया है सूचना क़ानून 
बजाने वाला बाज़ नहीं आता इसे बजाने से 
यह बिगडंत बाजा, बजने का नाम नहीं ले रहा 
आज़ाद भारत के आठ दशक बाद 
शायद ही इसे बजाने का कोई मायने बचा हो 
गोरख पाण्डेय की कविता में कहा जाए तो _

" ये आंखें हैं तुम्हारी

 तकलीफ का उड़ता हुआ समंदर

 इस दुनिया को

 जितनी जल्दी हो

 बदल देना चाहिए ।"





Thursday 13 September 2018

लक्ष्मीकांत मुकुल की नदी पर कविता


झींगा मछली की पीठ पर
तैरती नदी में
नहा रहे थे कुछ लोग
कुछ लोग जा रहे थे
काटने गेहूं की बालियां
पेड़ों की ओट में
अपना सिर खुजलाते
देख रहे थे तमाशा
कुछ लोग
सूरज के उगने
दिन चढ़ने
और झुरमुटों में दुबकने की घड़ी
कंघों पर लादे उम्मीदों का आसमान
पूरा गांव ही तन आया था
उनके भीतर
जो खोज रहे होते थे
कोचानो का रोज बदलता हेलान
क्षितिज की तरफ वह
आवाज भर रहा है अंध
आंखों से दीख नहीं रहा उसे कुछ भीद्ध
कुछ लोग चले जा रहे थे तेज कदम
जिध्र लिपटते धुंध् से
उबिया रहा था उसके
नदी पार का गांव।

लक्ष्मीकांत मुकुल की हवाई जहाज पर कविता

गूंगी जहाज

सर्दियों की सुबह में


जब साफ़ रहता था आसमान


हम कागज़ या पत्तों का जहाज बनाकर


उछालते थे हवा में


तभी दिखता था पश्चिमाकाश में


लोटा जैसा चमकता हुआ


कौतूहल जैसी दिखती थी वह गूंगी जहाज

बचपन में खेलते हुए हम सोचा करते


कहा जाती है परदेशी चिड़ियों की तरह उड़ती हुई


किधर होगा बया सरीखा उसका घोसला


क्या कबूतर की तरह कलाबाजियाँ करते


दाना चुगने उतरती होगी वह खेतों में


कि बाज की तरह झपट्टा मार फांसती होगी शिकार

भोरहरिया का उजास पसरा है धरती पर


तो भी सूर्य की किरणें छू रही हैं उसे


उस चमकीले खिलौने को


जो बढ़ रहा है ठीक हमारे सिर के ऊपर


बनाता हुआ पतले बादलों की राह


उभरती घनी लकीरें बढ़ती जाती है


उसके साथ


जैसे मकड़ियाँ आगे बढ़ती हुई


छोडती जाती है धागे से जालीदार घेरा


शहतूत की पत्तियाँ चूसते कीट


अपनी लार ग्रंथियों से छोड़ते जाते हैं


रेशम के धागे


चमकते आकाशीय खिलौने की तरह


गूंगी जहाज पश्चिम के सिवान से यात्रा करती हुई


छिप जाती है पूरब बरगद की फुनगियों में


बेआवाज तय करती हुई अपनी यात्रायें


पूरब से पश्चिम, उत्तर से दक्षिण निश्चित किनारों पर


पीछे – पीछे छोड़ती हुई


काले – उजले बादलों की अनगढ़ पगडंडियां.


नोट – हमारे भोजपुरांचल में ऊंचाई पर उड़ता बेआवाज व गूंगा जहाज को लोगों द्वारा स्त्रीवाचक सूचक शब्द “गूंगी जहाज” कहा जाता है. इसलिए कवि ने पुलिंग के स्थान पर स्त्रीलिंग शब्द का प्रयोग किया है.


लक्ष्मीकांत मुकुल की इतिहास परक कविता


इतिहास  का गढ़



पहले पहल बगीचे में जाते हुए 
पहली ही बार हमें दिखा था 
मूंजों से ढंका 
रेड़ों से जाने कब का लदा
खेतबारी के पास यूँ ही खड़ा पड़ा 
हमें मिला था पहली ही बार 
मैरवां का गढ़


मगर ये गढ़ है क्या 
ऊँचे टीले की आकृति लिए 
सबका ध्यान क्यों खींचता है अपनी ओर
आखिर क्यों आधी रात गए 
गढ़ में हुए धमाके से 
हिलने लगता है सारा गाँव


बंसवार से निकलते हैं शब्द 
पेड़ों से निकलती है कहानियाँ 
कहानियों से बनती हैं पहेलियाँ 
जिन पहेलियों को बुझाते हैं लोग 
कि कब बना होगा यह गढ़ 


पगडंडियों से गुजरता आदमी 
पहुंचता है जब नदी के पास 
तो उसे बबूल की 
कांटेदार झाड़ियों के बीच से ही 
कांपता दीखता है गढ़


तुम्हें सच नहीं लगता
कि बस्ती के लोग 
जब दोपहरी में करते हैं आराम 
तो पछुआ बयार से तवंका हुआ 
सूखे झंखाड़ – सा भयावह दिखता है यह गढ़


कितने लगे होंगे मिटटी के लौंदे
पत्थर कितने लगे होंगे 
उस गढ़ को बनाने में कितने लगे होंगे हाथ 
तुम भी देखोगे उसे एक बार 
शायद कहीं दिख जाए उनकी परछाइयाँ


कितने अचरज की खान है गढ़ 
इस बस्ती के लिए सबसे बड़ा अचरज 
कि हर के होश संभालने के पूर्व से ही 
हर किसी के अन्दर 
कछुए – सा दुबका पैठा है यह गढ़ .


लक्ष्मीकांत मुकुल की रेल पर कविता

🏝छोटी लाइन की छुक-छुक गाड़ी / लक्ष्मीकांत मुकुल🏝


बचपन में एक्का पर जाते हुए ननिहाल 
मन ही मन दुहराते थे कि  अब आया मामा का गाँव 
रास्ते में दिखती थीं छोटी लाइन की पटरियां 
बताती थीं माँ – ‘तेरे मामा इसी छुक – छुक गाडी में आते थे पटना से’


अब नहीं चलती वह छुक – छुक गाड़ी 
बस घुमती है माँ की यादों में लगातार 
नहीं आये मामा बरसों से पटना से, न आयीं उनकी चिट्ठियां......!
आरा – सासाराम नैरो गेज की लाईट रेलवे 
चलती हुई किन्हीं सपनों से कम नहीं थीं उन दिनों 
कोयला खाती, पानी पीती ,धुंआ उगलती 
खेतों के पास से गुजरती भोंपू बजती हुई 
उसकी रफ्तार भी इतनी मोहक 
कि  चलती हालत में कूदकर कोई यात्री 
बेर तोड़कर खाता हुआ फिर चढ़ सकता था उस पर


देहाती लोगों के लिए छकडा गाड़ी थी वह
एक इंजन कुछ डब्बे साथ लिए 
दौड़ा करती थी जैसे धौरी - मैनी - सोकनी गायें 
जा रही हो घास चरने के लिए परती  पराठ में 
मुसाफिर ठुसकर, लटककर ,इंजन के ऊपर भी बैठ-पसर 
टिकट-बेटिकट पूरा करते थे सफ़र ,पहुँचते ठिकाना 
अपाहिजों,गिरते यात्रियों को थाम लेने को उठते थे कई हाथ
सामने वालों के दुखों को बाँट लेने की ललक होती थी उनमे 
दिखता था जलकुम्भी  के खिले फूलों की तरह सबके चहरे


नोखा के पिछवाड़े में उन दिनों मुझे दिखा था मार्टिन रेलवे का डिब्बा 
गंदे पोखर में नहाये नंगे – धडंग बच्चे जिसमें 
खेला करते थे छुपा – छुप्पी , चिक्का – बीत्ति के खेल


नैहर जाती हुई नयी दुल्हनों के मन में थिरकती थी छुक – छुक गाड़ी 
बूढों के लिए सहारे की लाठी 
तो नौजवानों का खास याराना था उससे 
यात्री लोककवि को बेवफा महबूबा की तरह लगी थी छुक-छुक गाड़ी 
बाँधा था कविता के तंतुओं में जिसने –
           ‘आरा से अररा के चललू , उदवंतनगर उतरानी 
            कसाप में आके कसमस कईलु , गडहनी में पियलू पानी 
            हो छोटी लाइन चल चलेलु मस्तानी .’
बुलेट ट्रेन के चर्चा के ज़माने में
अब कही नहीं नज़र आतीं उसकी पटरियां 
पुराने डिब्बे ,गार्ड की झंडियाँ 
राह चलते बुजुर्ग उँगलियों से बताते है 
उसके गुजरने के मार्ग 
जिसकी शादी में पूरी बारात गयी थी ट्रेन से


यादों को टटोलते है वे की रेल-यात्रा में 
किस कदर अपना हो जाते थे अपरिचित चहरे 
निश्छल ,निःस्वार्थ जिनसे बांध जाते थे लीग भावना की बवंर में 
अँधेरे में उतरा अनचीन्हा ,अनजाना किओ यात्री
बन जाता था किसी भी दरवाजे का मेहमान 
स्मृतियों को सहेजते लोग अचानक जुड़ जाते थे 
घर – परिवार – गाँव के भूले बिसरे संबंधों के धागे में 
गुड की पाग व कुँओं के मीठे जल सा तृप्त हो जाता यह सहयोगियों का साथ 
मोथा की जड़ों की तरह गहरी हो जाती थी उसकी दोस्ती


भलुआही मोड़ की फुलेसरी देवी के मन में बसी है छोटी लाइन 
वह बालविवाहिता दहेज़ दानवों से उत्पीड़ित खूंटा तोड़कर भागी थी घर से 
इसी रेलगाड़ी पर किसी ने दी थी उसे पनाह 
जोगी बन गए रमेसर के बेटे को खोजने में 
दिन रात एक कर दिए थे छोटी लाइन के यात्री 
जैसे हेरते है बच्चे भूसे की ढेर में खोयी हुई सुई


अब शायद ही याद करता है कोई छोटी लाइन के ज़माने को 
स्मार्टफोन में उलझी कॉलेज की लड़कियों की 
खिलखिलाहट में उड़ाते है छोटी लाइन के किस्से
गाँव के बच्चे खुले में शौच करने जाते है उसके रास्ते में


भैसों के चरवाहे बरखा – धूप में छिपाने आते थे
घोसियाँ कलां की छोटी लाइन की कोठरी में
संझौली टिकट – घर में चलता है अब थाना
कही वीरान में पड़ा एक शिवमंदिर  
जिसे बनवाया था छोटी लाइन के अधेड़ स्टेशन मास्टर ने 
लम्बी प्रतीक्षा के बाद 
उसके आँगन में गूंजी थी नन्हा की किलकारी 
टूट – फुटकर बिखर रहा है वो मजार 
जिसके अन्दर सोया है वह साहसी आदमी 
जो मारा गया था रेल लुटेरों से जूझते हुए


नयी बिछी बड़ी लाइन की पटरियों पर दौड़ रही है सुपरफास्ट ट्रेन 
सडकों पर सरक रही है तेज चल की सवारियां 
गावों से शहरों तक की भागम – भाग, अंधी थकन में भी 
अचानक मिल जाता है बरसों का बिछड़ा कोई परिचित 
भोला - भला , सीधा – साधा दुनियादारी के उलझनों से दूर 
सहसा याद आता है छोटी लाइन की छुक – छुक गाडी वाले दिन 
ममहर के रास्ते में फिर जाते हुए


धीमी रेलगाड़ी , धीमी चलती थी सबकी जीवनचर्या 
तब मिलते थे लोग हाथ मिलाते हुए , बल्कि 
गलबहियां करने को आतुर खास अंदाज में 
छा जाती थी रिश्ते नाते के उपस्थिति की महक


लक्ष्मीकांत मुकुल का बारहमासा

बारहमासा



सावन भादों के रिमझिम फुहारों के बीच 
कुदाल लेकर जाऊँगा खेत पर 
तुम आओगी कलेवा के साथ 
चमकती बिजली , गरजते बादलों के बीच 
तुम गाओगी रोपनी के अविरल गीत 
बिचड़े डालते मोर सरीखे थिरकेगा मन


खडरिच – सा फुदकेंगे कुआर – कार्तिक में 
कास के उजले फूलों के बिच 
सोता की धार - सी रिसती रहेगी तुम 
गम्हार वृक्ष – सा जडें सींचता रहूँगा कगार पर


धान काटते , खलिहान में ओसाते 
अगहन – पूस के दिनों में बहेगी ठंढी बयार 
तुम सुलगाओगी अंगीठी भर आग 
चाहत की तपन से खिल उठेगा मेरी देह का रोंवा


माघ – फागुन के झड़ते पत्तों के बीच 
तुम दिखोगी तीसी के फूल जैसी
छाएगी आम के बौराए मंज़र की महक
तुमसे मिलने को छान मारूंगा  
चना – मटर – अरहर से भरी बधार


चैत्र – बैसाख में चलेगी पूर्वी – पश्चिमी हवाएं 
गेहूं काटने जायेंगे हम सीवान में
लहराओगी रंग – बिरंगी साड़ी का आँचल 
बोझा उठाये उडता रहूँगा
सपनों की मादक उड़ान में


तेज़ चलती लू में बाज़ार से लौटते हुए 
जेठ – आसाढ़ के समय 
सुस्तायेंगे पीपल की घनी छाँव में 
पुरखे तपन में ठंढक देते हैं वृक्षों का रूप धर 
हम बांटेंगे यादें अपने बचपन की 
तुम कहोगी हिरनी – बिरनी के साहसिक किस्से  
खडखडाउंगा कष्टप्रद दिनों से जूझने की 
शिरीषं फलियों की अपनी खंजड़ी .


लक्ष्मीकांत मुकुल का चौमासा

चौमासा

घिर रहे होंगे जब आकाश में बादल


देव जा रहे होंगे शेष शैया पर शयन को


बरसेगी मानसून की पहली बारिश


तड़पेगा कालिदास का यक्ष


प्रियतमा के वियोग में उदास अकेला


आषाढ़ शुक्ल पक्ष की हरिशयनी एकादशी से


शुरू होगी हमारी कृषि यात्रा


हल प्रवहण, वीजोप्ति, पौध – रोपण


जैसे चले जाते हैं भूख मिटाने को


क्षितिज तक बकुल – झुंड

आती रहेंगी दक्ष राजा की भुवन मोहिनी पुत्रियाँ


कभी दूज , चौथ , पूनों सा अनुराग लिए


मृगशिरा के गमन करते ही आर्द्रा लाएगी पियूष वर्षी


मेघों के समूह / सारी धरती हो जाएगी जल - थल


पुनर्वसु आएगी हरी साड़ियों में लिपटी हुई


बारिश से बचने मत जाना तुम महुआ - कहुआ पेड़ों के पास


सघन बूंदों के बीच गिरती बिजलियाँ दबोचेंगी तुम्हें


खड़ा न होना बड़हल , जामुन के तनों के पास


अरराकर टूटेगी डालियाँ / बरखा मुड़ – मुड़कर भिंगों देंगी तुम्हें

पुत्र शोक में रोयेगी पुष्य वह मड्जरनी


रिमझिम फुहारों से तृप्त हो जायेगी धरती की कोख


बिलबिलाकर अंकुरित हो जायेंगे बरसों के सोये बीज


अश्लेशा , मघ्घा नक्षत्रों की बेवफाइयों को याद करेगा


मुनेसर मेड़ों पर घास गढ़ता हुआ -- सन् 66 का अकाल

आएगी फाल्गुनियां पूर्वी हवाओं के साथ मदमाती


उत्तरा उतरेगी भूमि पर खारा बूंदों के साथ


जलाती हुई हमारे अभिलाषा के पसरे लत्तरों को

हहराती – घहराती पवन वेगों - सी आएगी हस्त


लोहा, ताम्बा, चांदी, सोना, पावों वाले हाथी पर सवार


बढ़ जायेगा नदी का वेग / जुडा जायेंगे खेत


चित्रा व स्वाती की राह देखेंगे किसान


निहारते धान की बालियाँ


जब पक रही होंगी उसकी फसलें

गुलामी से मुक्त हो रहा होगा तब कालिदास का यक्ष


कार्तिक शुक्ल पक्ष हरिबोधिनी एकादशी को


चिरनिद्रा से जागेंगे देव , कठिन दिनों में सबका साथ छोड़ सोने वाले


जैसे बालकथा ‘मित्रबोध’ में खतरा का संकेत होते ही


एक – एक कर टूट जाती है मित्रता की अटूट डोर

तब चतुर्मास के दुखों का पराभव हो चूका होगा


कृषक मना रहे होंगे फसल कटने के त्यौहार


उम्मीदों के असंख्य पंखों पर होकर सवार .


Wednesday 12 September 2018

लक्ष्मीकांत मुकुल का गीत

आओ चलें परियों के गाँव में ,
नदिया पर पेड़ों की छाँव में.
सूखी ही पनघट की आस है
मन में दहकता पलास है
बेड़ी भी कांपती औ’ ज़िन्दगी 
सिमटी लग रही आज पांव में .


अनबोले जंगल बबूल के 
अरहर के खेतों में भूल के 
खोजें हम चित्रा की पुरवाई 
बरखा को ढूँढते अलाव में .


बगिया में कोयल का कूकना 
आँगन में रचती है अल्पना 
झुटपुटे में डूबता सीवान वो 
रिश्ते अब जलते अब आंव में .


डोल रही बांसों की पत्तियां 
आँखों में उड़ती हैं तीलियाँ 
लोग बाग़ गूंगे हो गए आज
टूटते रहे हैं बिखराव में .


लक्ष्मीकांत मुकुल की प्रेम -कविता

उस भरी दुपहरी में 
जब गया था घास काटने नदी के कछार पर 
तुम भी आई थी अपनी बकरियों के साथ 
संकोच के घने कुहरे का आवरण लिए 
अनजान, अपरिचित, अनदेखा
कैसे बंधता गया तेरी मोह्पाश में

जब तुमने कहा कि
तुम्हें तैरना पसंद है 
मुझे अच्छी लगने लगी नदी की धार
पूछें डुलाती मछलियाँ 
बालू, कंकडों, कीचड़ से भरा किनारा 

जब तुमने कहा कि
तुम्हें उड़ना पसंद है नील गगन में पतंग सरीखी 
मुझे अच्छी लगने लगी आकाश में उड़ती पंछियों की कतार

जब तुमने कहा कि
तुम्हें नीम का दातून पसंद है 
मुझे मीठी लगने लगी उसकी पत्तियां, निबौरियां 

जब तुमने कहा कि
तुम्हें चुल्लू से नहीं, दोना से
पानी पीना पसंद है
मुझे अच्छी लगने लगी
कुदरत से सज्जित यह कायनात 

जब तुमने कहा की 
तुम्हें बारिश में भींगना पसंद है 
मुझे अच्छी लगने लगी
जुलाई – अगस्त की झमझम बारिश, जनवरी की टूसार 

जब तुमने कहा की यह बगीचा
बाढ़ के दिनों में नाव की तरह लगता है 
मुझे अच्छी लगने लगी 
अमरुद की महक, बेर की खटास 

जब तुमने कहा कि
तुम्हें पसंद है खाना तेनी का भात 
भतुए की तरकारी, बथुए की साग
मुझे अचानक अच्छी लगने लगीं फसलें 
जिसे उपजाते हैं श्रमजीवी
जिनके पसीने से सींचती है पृथ्वी

तुम्हारे हर पसंद का रंग चढ़ता गया अंतस में 
तुम्हारी हर चाल, हर थिरकन के साथ 
डूबते – खोते – सहेजने लगी जीवन की राह 
मकड़तेना के तना की छाल पर 
हंसिया की नोक से गोदता गया तेरा नाम, मुकाम 

प्रणय के उस उद्दात्त क्षणों में कैसे हुए थे हम बाहुपाश 
आलिंगन, स्पर्श, साँसों की गर्म धौकनी के बीच
मदहोशी के संवेगों में खो गये थे
अपनी उपश्थिति का एहसास 
हम जुड़ गए थे एक दूजे में, एकाकार
पूरी पवित्रता से, संसार की नज़रों में निरपेक्ष
मनुष्यता का विरोधी रहा होगा वह हमारा अज्ञात पुरखा 
जिसने काक जोड़ी को अंग – प्रत्यंग से लिपटे 
देखे जाने को माना था अपशकुन का संदेश
जबकि उसके दो चोंच चार पंख आपस में गुंथकर 
मादक लय में थाप देते सृजित करते हैं जीवन के आदिम राग 

पूछता हूँ क्या हुआ था उस दिन 
जब हम मिले थे पहली बार 
अंतरिक्ष से टपक कर आये धरती पर
किसी इंद्र द्वारा शापित स्वर्ग के बाशिंदे की तरह नहीं 
बगलगीर गाँव की निर्वासिनी का मिला था साथ 
पूछता हूँ कल-कल करती नदी के बहाव से 
हवा में उत्तेजित खडखड़ाते ताड के पत्तों से 
मेड के किनारे छिपे, फुर्र से उड़ने वाले ‘घाघर’ से 
दूर तक सन्-सन् कर सन्देश ले जाती पवन-वेग से
सबका भार उठाती धरती से
ऊपर राख के रंग का चादर फैलाए आसमान से

प्रश्नोत्तर में खिलखिलाहट 
खिलखिलाहटों से भर जाती हैं प्रतिध्वनियाँ 
यही ध्वनि उठी थी मेरे अंतर्मन में 
जब तुमने मेरे टूटे चप्पल में बाँधी थी सींक की धाग
देखना फिर से शुरू किया मैंने इस दुनिया को
कि यह है कितनी हस्बेमामूल, कितनी मुक़द्दस

कथाकार सुरेश कांटक की दृष्टि में लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताएं


मेरे सामने युवा कवि लक्ष्मीकांत मुकुल का काव्य संकलन ‘लाल चोंच वाले पंछी’ है. इस संग्रह में उनसठ कवितायें संकलित हैं. इन तमाम कविताओं को पढ़ने और उन पर विचार करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि आज जब चारों तरफ बाजार अपनी माया फैला रहा है, हमारे मानव मूल्य इसी प्रचंड – धारा में तिरोहित हो रहे हैं, रिश्ते – नाते तिजारती जींस में बदल रहे हैं, भूमंडलीकरण के नाम पर आयातित विचार और जींस हमारी संस्कृति को निगलने में कामयाब है. एक कवि की चिन्ता अपनी मौलिकता को बचाने में संलग्न है. उसके शब्द उसके सपनों को साकार करने के लिए आकुल – व्याकुल हैं.


कवि अपनी रचनाओं में अपने गाँव को बचाने की चिन्ता जाहिर करता है. उनकी कविताओं में ‘पथरीले गाँव की बुढ़िया’ के पास बहुत बड़ी थाती है, वह थाती लोक कथाओं की थाती है. साँझा पराती की है.


जंतसार और ढेंकसारर की है. वह अपनी जिंदगी की नदी में लोककथाओं को ढेंगी की तरह इस्तेमाल करती हुई अपनी हर शाम काट लेती है. अतीत की घाटियों से पार करती वह वर्त्तमान की जिंदगी को भी देखती है, जहाँ तकनीकी हस्तक्षेप उसके गाँव की मौलिकता को निगलती जा रही है. कौवों के काँव – काँव के बीच उसे अपना अस्तित्व कोयल की डूबती कूक - सा लगता है. कवि कहता है –


‘रेत होते जा रहे हैं खेत / गुम होते जा रहे बियहन / अन्न के दाने / टूट – फूट रहे हैं हल जुआठ / जंगल होते शहर से अउँसा गए हैं गाँव /......दैत्याकार मशीन यंत्रों , डंकली बीजों / विदेशी चीजों के नाले में गोता खाते / खोते जा रहे हैं निजी पहचान.’


यहाँ निजी पहचान के खोने का दर्द कवि लक्ष्मीकान्त मुकुल की कविता में ढल कर आया है. गाँव की सुबह और गाँव का भोर कवि की आँखों में कई – कई दृश्य लेकर आते हैं, जहाँ आस्था के पुराने गीतों के साथ किसानों का बरतस है, ओसवनी का गीत है, महुआ बीनती लड़की का गौना के बाद गाँव को भूल जाने का दर्द है, हज़ार चिन्ताओं के बीच बहते हुए नाव की तरह अपने गाँव के बचपन की स्मृतियाँ है.


इस संग्रह में संकलित ‘लुटेरे’ और ‘चिड़ीमार’ जैसी कवितायें मुकुल की वर्त्तमान चिंताओं की कवितायें हैं, जिसमे बाजारवाद का हमारे जीवन में पैठ जाना, बिना किसी हथियार के ध्वस्त कर देना शामिल है. हमारी हर जरूरत की चीजों में मिला है उसका जहर, जो सोख लेगा हमारी जिंदगी को, अर्थव्यवस्था में दौड़ रही धार को.


‘अंगूठा छाप औरतों के लिए विदा गीत’ भी गाँव के मौसम और ढहते सपनों का दर्द बयान करती कविता हैं. इसमें खेत – खलिहान के कर्ज में डूबते जाने और प्रकृति में चिड़ियों का क्रंदन भी शामिल है. ‘धूमकेतु’ में गाँव को बचाने की चीख है, जिसे धूमकेतुनुमा भूमंडलीकरण ध्वस्त करने का संकेत देता है. “जंगलिया बाबा का पुल “जैसी कविता में हरे - भरे खेत को महाजन के हाथों रेहन रखने वाले किसानों की चीख समायी हुई है, जिससे जीवन के सारे मूल्य दरकते हुए लगते हैं.


कवि लक्षमीकांत मुकुल गाँव के साथ – साथ प्रकृति के दर्द को भी अपनी कविता में समेटने का प्रयास करते हैं. प्रकृति और फसलों का साहचर्य धुन इनकी कविताओं का मर्म है. ‘ धूसर मिट्टी की जोत में ‘ गाँव की उर्वरा शक्ति की ओर संकेत करता है कवि.


जब गाँव की बात आती है, तब किसान और मजदूर की छवि बरबस कौंध जाती है, ‘ पल भर के लिए ‘ कविता में गाँव की दहशत की आवाज है, जिसे खेत जोतकर लौटते हुए मजदूर झेलने को विवश होते हैं. ‘ इंतजार ‘ जैसी कविता में थके हारे आदमी और बांस के पुल घरघराना एक रूपक रचाता है, जिंदगी की बोझ और टूटते हुए साँसों की नदी का, जिसे सम्हालने में डरता है बांस का पुल.


शीर्षक कविता ‘ लाल चोंच वाले पंछी ‘ की पंक्तियाँ हैं –


“ तैरते हुए पानी की तेज धार में / पहचान चुके होते हैं वे अनचिन्हीं पगडंडीयां / स्याह होता गाँव / और सतफेडवा पोखरे का मिठास भरा पानी. “ ये पंछी नवंबर के ढलते दिन की कोंख से चले जाते हैं. धान कटनी के समय और नदी किनारे अलाप भर रहे होते हैं. वे दौड़ते हैं आकाश की ओर / उनकी चिल्लाहट से / गूँज उठता है बधार.....अटक गया है उनपर लाल रंग / बबूल की पत्ती पर. ये पंछी कौन ? ललाई लेकर आते हैं , पूरब का भाल लाल करने के लिए , स्याह होते गाँव में उजास भरने के लिए. इसलिए लाल रंग के रेले से उमड़ आता है घोसला


कवि इन पंक्तियों के माध्यम से यथास्थिति को तोड़ने वाले वैचारिक संदर्भों को चिन्हित करता है. बहुत बारीकी से वह प्रकृति का वह रूपक रचता है, जिसमें पंछी अपने विचारों की लाली लिए उतरते हैं. चिड़ीदह में झुटपुटा छाते ही जैसे और लगता है टेसू का जंगल दहक रहा हो, फ़ैल रही हो वह आग जो तमाम उदासियों को छिन्न – भिन्न कर देने का लक्ष्य पालती है अपने सपनों में.


अन्य कवितायें जिसमें ‘ कौवे का शोकगीत ‘ , ‘ पौधे ‘ , ’ बदलाव ‘ , ’ बचना – गाँव ‘ , ’ लाठी ‘, ‘इधर मत आना बसंत ‘ , ’ तैयारी ‘ , ’ आत्मकथा ‘ , ’ टेलीफोन करना चाहता हूँ मैं ‘ शामिल हैं, जो गाँव की विभिन्न स्थितियों का बखान करती हैं जिसमें कवि की बेचैनी साफ़ – साफ़ दृष्टिगोचर होती है. राजनीतिक दलों एवं नेताओं के हंगामे से मरती उम्मीदों की छाया भी दिखाती है, ‘ कौवे का शोकगीत ‘ जैसी कविता में अब निराशा के कुहरे जैसी लगती है नेताओं की बयानबाजी. गाँव के किसान मजदूर मगन रहते हैं अपने काम में. कौवा शोर होता रहता है. नये का आगम संकेतवाहक रूप नहीं दिखता उनमें.


फिर भी कवि भविष्य की उम्मीद जगाने की कविता ‘ पौधे ‘ लिखता है. अपने गाँव को हजार बाहों वाले दैत्य बाजारीकरण से बचने की सलाह देता है.


कुछ कविताओं में कवि का अतीत मोह भी चुपके – चुपके झांकता सा लगता है जैसे ‘लाठी‘


में. कहीं बाबा की मिरजई पहनकर गायब हो जाना चाहता है. पोख्ता वैचारिक दृष्टि सम्पन्न रचनाकार नये सृजन के नये आयामों को टटोलना बेहतर समझता है गुम हो जाने से.


कवि की प्रेम के प्रति गहरी आस्था भी एक कविता ‘ पहाड़ी गाँव में कोहबर ‘ को देखकर झलक जाती है. भयंकर दिनों में भी प्रेम की पुकार जिन्दा थी. बीहड़ जंगल की अँधेरी गुफा में भी रक्तरंजित हवा के साथ प्रेम की अमरता की शिनाख्त कर लेता है कवि. जो मानव सृष्टि का आधार है. कोहबर पेंटिंग में पूरे युग की त्रासदी बोलती है. प्रकृति, पंछी , जीव जंतु, मानव हृदय की धड़कन सब दिख जाता है उसे.


लोरिक - चंदा की प्रेम - लीला जैसे झांकती है लोकगाथा में.


इस तरह कवि में संभावनायें उमड़ती दिखती हैं. वैचारिक धार इसमें बहुत कुछ जोह जाती है. संग्रह की कवितायें उम्मीद जगाती है. पठनीय है. इसका स्वागत होना चाहिए