मैं किसी आलोचकीय दृष्टि से लैस नहीं हूँ। अतः यहाँ लक्ष्मीकांत मुकुल के कविता संकलन"लाल चोंच वाले पंछी"पर कविता संबंधी जो विचार व अनुभूति मैंने प्रकट की है,इसे आप एक पाठक की हृदय से निकली प्रतिक्रिया मात्र ही समझें।मेरी छोटी-छोटी प्रतिक्रियाएँ इस तरह हैं.......!
अंगूठा छाप औरतों के लिए विदा गीत:- इस कविता को पढ़ते हुए यह महसूसा कि गाँव के अपढ़ स्त्रियों के साथ प्रकृति अनायास ही गाने लगती है क्योंकि यह गीत उनके अंतरतम या कहे कि पोर-पोर से निसृत है।
लाल चोंच वाले पंछी:-कविता को पढ़ते ही मुझे स्वतः मेरे गाँव में जाडे़ में सुदूर तिब्बत से उड़कर आते प्रवासी पक्षियों की याद आ गयी। 'गुत' नामक यह पक्षी जाडे़ में उष्णता की खोज में तिब्बत के बर्फीले पहाडो़ं से मीलों की दूरी तय कर हमारे गाँव आया करती थी। माँ बताती थी कि अतीत में केलेण्डर का चलन था नहीं, अतः गुत पक्षी के आगमन पर ही हमारा लोकपर्व 'बूरी-बूत' का आयोजन होता था।
बदलाव:- संग्रह की सबसे छोटी मगर सबसे मार्मिक व मन-मष्तिस्क को भेदने वाली कविता है यह। कविता सवाल करती है कि क्या विकास का मात्र भौतिक पक्ष महत्वपूर्ण है ! साल दर साल सड़कों का जाल बिछता जा रहा है। सड़कों को जीवनरेखा कहकर प्रचारित किया जाता रहा। पर सड़कों के साथ कई अवांछित वस्तु-स्थिति भी गाँव में प्रवेश करती है। यह वस्तु-स्थिति गाँव और गाँव वासी को गहरे तक प्रभावित करती है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सड़कें अगर जीवनरेखा है तो पलायन का सबसे आसान मार्ग भी है। लोग झुण्ड के झुण्ड इन्हीं सड़कों से पलायन कर एक हँसता-खेलता गाँव को रातोंरात भूतहा गाँव में तब्दील कर चले जाते हैं। पलायन मानवजाति की सबसे प्राचीन गतिविधि रही है पर आज तथाकथित विकास ने इसे तीव्र गति प्रदान की है।
गाँव बचना:- इस बिंबप्रधान कविता की भाषा अत्यंत महीन एवं पारदर्शी है। कविता में आज के प्रत्येक विचारशील व्यक्ति की आर्द्र भरी पुकार है।
धीमे-धीमे :- कविता में तब और अब यानी अतीत तथा वर्तमान का सच्चा एवं प्रामाणिक चित्र अंकित है। परिवर्तन अवश्यंभावी है तथापि मन कहता है कुछ स्थितियाँ ज्यों की त्यों बनी रहें, स्थिति की शाश्वतता खत्म न हो।
प्रसंग :- कारुणिक कविता है यह। मन बींध गया कविता को पढ़कर। कल्पनालोक और यथार्थलोक में बहुत बडा़ फासला होता है, इस सत्य को कविता में बखूबी चिन्हित किया गया है।
टेलीफोन करना चाहता हूँ मैं :- जो व्यक्ति जितना जडो़ं से दूर होता है वह जडो़ं की ओर उतना खिंचाव महसूस करता है। इस खिंचाव को हम कविता में शिद्दत से महसूस कर सकते है।
मुकुल जी के संग्रह की अन्य कविताएँ जैसै जंगलिया बाबा का पुल, पल भर के लिए, पौधे, कोचानो नदी, लाठी, गान, उगो सूरज, आत्मकथ्य, प्रलय के दिनों में, दहकन आदि कविताओं ने मुझे बहुत प्रभावित किया है। आपकी भाषा बिंबात्मक भाषा मसलन उकताहट भरी शाम, सूरज की उनींदी झपकी, बहते पानी में चेहरा नापते बचपन के खोए झाग, नदी के पालने में झूलते हुए गाँव आदि ऐसे अनेक पंक्तियों को मैंने रेखांकित कर रखा है। आपको बधाई इस सार्थक व सफल संग्रह के लिए.....!
_ डॉ.जमुना बीनी तादर
हिंदी विभाग,
राजीव गांधी विश्वविद्यालय,
दोइमुख (अरुणाचल प्रदेश)