समकालीन हिंदी कविता के वरिष्ठ कवि और "सूत्र" पत्रिका के संपादक जगदलपुर निवासी श्री विजय सिंह जी ने मेरे कविता संकलन "घिस रहा है धान का कटोरा" पर बहुत ही धारदार, अनूठा और विस्तृत आलोचनात्मक लेख प्रस्तुत किया है। सम्माननीय कवि के प्रति हृदय से आभार व्यक्त करते हुए उक्त आलेख को आप सभी मित्रों के समक्ष रख रहा हूं...
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कविता की लोक हिस्सेदारी में अपनी अनगढ़ नैसर्गिक कविता प्रतिभा से उपजे कवि लक्ष्मीकांत मुकुल जीवन और प्रतिरोध के कवि हैं.....
कविता संग्रह : घिस रहा है धान का कटोरा
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विजय सिंह
कविता का जनपद सुनिश्चित करने का समय है! इस समय जब कवि होने की होड़ में कविता की मिट्टी, कविता का जनपद कवि के जीवन में न हो तब चिंता स्वाभाविक है । हिन्दी कविता का जनपद अपनी पूरी आभा, ताप और संघर्ष के साथ हमारे सामने मौजूद है केदारनाथ अग्रवाल ,नागार्जुन ,त्रिलोचन , विजेन्द्र, विष्णुचंद्र शर्मा, शलभश्रीराम सिंह जैसे कवियों से हमारी कविता समृद्ध हुई है । इस परंपरा से एक नई सशक्त संभावनाशील कवियों की पीढ़ी दूर गाँव, नगर - जनपद, कस्बों में रहते हुए अपने भूगोल ,परिवेश जन- जीवन और अपनी मिट्टी की अनगढ़ता में रच बस कर जनपदीय कविता, लोक की कविता को समृद्ध कर रहे हैं ! भले ही इन कवियों को महानगर, बड़े संपादकों के नाम से निकलने वाली पत्रिकाओं में जगह न मिल पा रही हो लेकिन जनपद - कस्बों ,छोटे शहरों से निकलने वाली प्रतिबद्ध साहित्यिक पत्रिकाओं में यह सब छप रहे हैं और पढ़े भी जा रहे हैं। आज बाज़ार कीआवाजाही, उदारीकरण ,वैश्वीकरण ,माल संस्कृति ने जब जीवन को चारों ओर से अपने गिरफ्त में लेने की साजिश में मशगूल है तब एेसे विकट परिस्थिति में गाँव के किसान कवि लक्ष्मीकांत मुकुल जी का नया काव्य संग्रह " घिस रहा है धान का कटोरा " अभी छप कर आया है. जनपद के महत्वपूर्ण कवि के रूप में प्रतिरोध के साथ समकालीन कविता में अव्वल पंक्ति में खड़े कवि मुकुल का संग्रह अपने कविताएँ तेवर और प्रतिरोध के कारण आकर्षित करता है कवि मुकुल के इस संग्रह में 75 कविताएँ संकलित हैं जो अपनी मिट्टी, अपने परिवेश, अपने लोग बाग से उपजी हैं .कवि मुकुल की दिनचर्या में गांव है जन सामान्य के जीवन में आने वाले उतार - चढ़ाव हैं संघर्ष है, आशा है , ताप है जिसकी अनुगूँज इस संग्रह की कविताएँ पढ़ते हुए आप महसूस करते हैं . कवि मुकुल की संग्रह की कविताएँ खेत में पक रहे अनाज की तरह पक रही हैं आज कविता लिखना सचमुच जोखिम, का काम है जैसे किसान का जीवन जीवन अच्छी बात यह कि कवि लक्ष्मीकांत मुकुल के जीवन में ही किसानी है, खेत है इसलिए इस संग्रह की कविताओं में मिट्टी की सौंधी महक है तो पके अनाज की तरह चमक! ! किसान का जीवन मौसम की तरह है उतार - चढ़ाव से भरा रहता है जैसे कवि अपने समय से जूझता है जिस कवि में यह हौसला है, अपने समाज, अपनी मिट्टी के रंग में सरोबोर होकर जीवन से जूझने की ताकत है वही कवि अपनी कविता सामर्थ्य को दूर तक पहुँचा पाता है लक्ष्मीकांत मुकुल एेसे ही सहज कवि हैं जो अपने जनपद में रहकर समकालीन कविता परिदृश्य में रेखांकित किये जा रहे हैं संग्रह की कविताएं सहज जीवन संसार रचती हैं इनकी कविताओं में उनके आसपास का जीवन है । प्रकृति को आत्मसात करते कवि के पास कविता का बड़बोला पन नहीं है बल्कि कविता की जीवंतता है, कवि का रचना संसार मदार के उजले फूलों की तरह है, सूरज से धमाचौकड़ी मचाते गाँव के मछुआरों से समृद्ध होता वसंत का अधखिला प्यार भी है । कवि लक्ष्मीकांत मुकुल से मेरी बात होती रहती है उनके कवि को मैं लगातार महसूस करता रहता हूँ यह कवि कविता को लेकर अपने गाँव, देश शहर की चिंता के साथ अपने परिवेश में, खेती किसानी , जनपद के लोगों के जीवन यापन में आ रहे विषमताओं ,अंतविरोधों को लेकर सजग रहता हैं वह उनके कवि होने की स्वभाविक पहचान है कवि मुकुल के कविताओं में जीवन के प्रति जो लगाव दिखाई पड़ता है वह उन्हें अपनी पीढ़ी के कवियों में और महत्वपूर्ण बनाता है. आज कवि होना आम बात सी हो गई है ,क्या कवि होना सचमुच आम होना है। नहीं कवि होना आम होना नहीं बल्कि कवि होना जिम्मेदार होना है मुकुल जी के इस संग्रह की कविताओं जिम्मेदारी की भाषा आप अलग से पढ़ सकते हैं आज जब कविता में एक सिरे से संवेदना को नकार कर एक ठस कविता जीवन गढ़ने की साजिश रची जा रही हो तब लक्ष्मीकांत मुकुल की कविता संग्रह " घिस रहा है धान का कटोरा " की कविताएं आशा जगाती हैं कवि मुकुल के पास कविता की सहज भाषा है देशज शब्द हैं तो अनुभव संसार व्यापक है इस संग्रह की दूसरी कविता ' कुलधरा के बीच मेरा घर ' जीवट कविता है. इस कविता से आप मुकुल के कविता जीवन को और बेहतर समझ सकते हैं ! राजस्थान के शापित गांव कुलधरा के बारे में आप सभी को पता है । जिस तरह से इस गांव के निवासी आताताईयों के डर से गाँव छोड़कर चले गये और कभी इस गांव की ओर लौट कर नहीं आये जैसे किसी ने इस गांव को शापित कर दिया खण्डहर में तब्दील हो जाने के लिए आज वर्षों बीत गये कुलधरा में कोई नहीं आया वर्षो बाद भी यहाँ मकान है लेकिन खंडहर रूप में खेत, तालाब, नदी नाले खेल मैदान पेड़ सब आज भी खंडहर रूप विद्यमान है कुलधरा की स्मृतियों को जीते हुए कवि लक्ष्मीकांत मुकुल ने अपने देश ,गाँव, जनपद को देखा है जिस तेजी से शहरीकरण ,औद्योगीकरण , माल संस्कृति ,नये नये बाज़ार, पैसों का आतंक ने अपने गिरफ्त लिया है जिससे मनुष्य का जीवन ,मनुष्य की तरह नहीं रहकर एक मशीन में तब्दील हो गया जिसमें संवेदना, प्यार ,हरियाली दुख दर्द मनुष्य का मनुष्य से दूर हो जाना जैसे सब कुलधरा गांव की तरह शापित हो गये हैं अन्यथा एक समय गांव, गांव हुआ करता था, घर, घर जैसे दिखता था जहां जिंदगी बसती थी, चूल्हे के धुएं से आकाश निखर जाता था, बर्तनों की खड़खड़ाहट से संगीत लहरी की धुन से जीवन खिल उठता था, आपसी प्रेम, भाईचारा से जीवन उमगता था लेकिन कहाँ गये वे दिन जैसे कुलधरा श्राप से सारे अच्छे दिन, अच्छा समय खंडहर हो गया है...
कुलधरा की तरह
शाप के भय से नहीं ,कुछ पेशे बस कुछ शौक से छोड़ दिए घर - गांव
खो गए दूर - सुदूर शहरों के कंक्रीट के जंगलों में छूटे घर गोसाले मिलते गए मिट्टी के ढेर में ( कुलधरा के बीच मेरा घर) कहने को तो हम आधुनिक समय में जी रहे हैं ज्ञान - विज्ञान के क्षेत्र में हमने काफी उन्नति कर ली है लेकिन सोच और समझ के स्तर पर आज भी हम पिछड़े हैं धर्म, आडम्बर जाति, छूआछूत और सांम्प्रदायिकता के आग में झुलस रहे हैं सांम्रदायिकता का ज़हर आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी वहीं स्थिति हैं मानवता जार - जार कर आंसू बहा रही है, कट्टरपंथी ताकतों, धार्मिक उन्माद ने कई घर जला दिये, कई जिन्दगी छीन ली लेकिन यह उन्माद आज भी कम होने की जगह सब दूर फैलता जा रहा है सचमुच यह चिंता का विषय है । लेकिन कवि लक्ष्मीकांत मुकुल आश्वस्त हैं कि इस देश में कुछ एेसे पड़ोसी आज भी जीवित हैं जो ' जोल्लहहट में बचे बदरुद्दीन मिंया ' को बचाने के लिए खुद लहूलुहान होते रहेंगे.... तुम्हें याद है न बदरूददीन मिंया, वह अमावस की रात कैसे बचाने आया था तुम्हारे पास वह पंडित परिवार जो बांचता था / भिनसारे में रामायण - गीता की पोथियां वह निरामिष तुलसी दल से भोग लगाने वाला / जिसका समाज तुम्हारे इलाके को / मलेच्छों का नर्क मानता और तुम मानते रहे उसे काफिरों की औलाद / किन रिश्तों को जोड़ता हुआ आया था तुम्हारे पास लुटेरों के बीच के भीषण चक्रवात में / बचाता रहा मुस्लिम परिवार को रखते हुए भी बेखरोंच खुद लहुलूहान होता रहा वह पंडित पड़ोसी पना के धागे को सहेजता हुआ... ( जोल्लहहूट में बचे बदरुद्दीन )कवि लक्ष्मीकांत मुकुल
तमाम प्रतिकूलताओं में जीवन की सच्चाई ,प्रेम - भाईचारे के लिए उठ खड़े होने का संकल्प कवि की दृड़ता, संवेदना जीवन दृष्टि को व्यापकता प्रदान करती है । अपने समय के अंधकार, कुरीतियों सकीर्ण सोच ,कठमुल्लापन के खिलाफ यह कविता कवि मुकुल को एक प्रतिबध्द संवेदनशील कवि के रूप में पहचान देती है ।किसी भी कवि के पास प्रेम संवेदना नहीं है तो उसकी कविता नदी बहुत जल्दी सूख जाती है इस भाव दृष्टि में भी कवि लक्ष्मीकांत मुकुल ,अन्य कवियों से अलग दिखाई पड़ते हैं वे प्रेम के जीवन को बहुत मासूमियत से लोक रंग, लोक भाषा और देशज शब्दों से बुन कर प्रेम का जीवंत संसार रचते हैं ' हरेक रंगों में दिखती हो तुम ' सीरिज की कविता है जिसमें कवि का काव्य वैभव कितनी सरलता से प्रेम को ऊंचाई प्रदान करता है इस कविता में कवि ने देशज शब्द जैसे मदार, पोखर, बभनी पहाड़ी ,गहवर, पुुलुई पात, टभकते घाव जैसे शब्दों का उपयोग अद्भुत ढंग से किया है जिससे यह प्रेम कविता पढ़ते ही पाठक के मन में घर कर जाती है कभी न विस्मृत करने के लिए ! इसी तरह से ' वसंत का अधखिला प्यार ' कविता भी है जिसमें कवि प्रेयसी की आँख में वसंत को देखते हैं यह देखना पृथ्वी को भी देखना है कवि इस कविता में कवि जीवन को धड़कता देखता है आज जब व्यक्ति काठ हुआ जा रहा है जैसे स्वभाविक रूप से जीवन जीना ही भूल गया है एेसे रिक्त, बेजार समय में प्रेम ही व्यक्ति को जिंदा कर सकता है कवि की यह सोच इस कविता को और अर्थवान बनाती है --
मदार के उजले फूलों की तरह / तुम आई हो कूड़ेदान भरे मेरे इस जीवन में / तितलियों, भौरों जैसा उमड़ता/ तुम्हारी पनीली आंखों में छाया पोखरे का फैलाव .. / शगुन की पीली साड़ी मैं लिपटी / तुम दिखी थी पहली बार / जैसे बसंत बहार की टहनियों में भर गए हों फूल.. ( हरेक रंगों में दिखती हो तुम)
मैं तो अभी वही ठिठका हूँ, जहां मिली थी तुम / जैसे मिलते हैं दो खेत बीच की मेड़ों पर / आंखें गड़ाए कभी न लौटोगी तुम / वनतुलसी की मादक गंध लिए / इस पगडंडी पर कभी किसी वसंत में.... ( वसंत का अधखिला प्यार) किसी भी रचना की कसौटी क्या हो, कविता पढ़ने - गुनने के बाद हमारी मन:स्थिति कैसे बनती है हम खुद से किस तरह बतियाते हैं लक्ष्मीकांत मुकुल की कविता ' जहर से मरी मछलियां ' पढ़कर आप यह सोचने के लिए बाध्य होंगे हमारी संवेदना को झिंझोड़ती यह कविता अपने समय में मनुष्य के पतनशीलता को इंगित करती है अजीब समय है यह मनुष्य अपनी छवि, अपना व्यवहार ,अपनी अच्छाई स्वयं नष्ट करने में तुला हुआ है, जंगल को नष्ट करने वह सबसे आगे है तो वन प्राणियों का संहार कर जंगल को शिकारगाह बनाये हुआ है तो अब उसकी नज़र नदी की ओर है, निशब्द बहने वाली नदी और वहाँ अठखेलियां करती मछलियों पर भी उसकी नज़र है । मुकुल का कवि इस जघन्य कृत के लिए अपनी कविता के माध्यम से कड़ा विरोध करता है । यह कैसा समय है मछलियां भी नदी में सुरक्षित नहीं है । मनुष्य अपने स्वार्थ ,लाभ के चलते मछलियों की भी हत्या कर रहा है -
नदियों को हीड़ने वाले शिकारी मछुआरे / बदल दिए हैं अपनी शातिर चालें / वे नदी में लगा रहे हैं तार से करंट / पानी में फेंकने लगे हैं कीटनाशक दवाईयां / बीच लहरों में करते हैं डायनामाइट का विस्फोट ( जहर से मरी मछलियां) कवि लक्ष्मीकांत मुकुल सचेत कवि हैं ,अपने परिवेश से ही कविता के बीज ढूँढंते हैं उनके आसपास चीन्हे जाने वाले लोग हैं उनकी जीवनचर्या में मृत्यु के समीप पहुंचे व्यक्ति की इच्छा में जीवन जीने की चाह, उम्मीद की रोशनी जलते - बूझते देखते हैं यह देखने समझ कवि को अपनी समकालीन स्थितियों की गहरी समझ , जुड़ाव से है तभी वह ' मृत्यु के समीप पहुंचा व्यक्ति ' कविता लिख पाते हैं ' कुछ ही देर पहले भी इसी सोच की कविता है .. कवि समाज की नब्ज पर गहरी नज़र रखते हैं यह पंक्तियां देखिए -
मृत्यु सैया के मुहाने पर खड़ा आदमी / आखिरी दम तक कोशिश करता है कि वह बना रहे जीवित व्यक्तियों की दुनिया में.... कवि मुकुल की सभी कविताएं एक नया मुहावरा रचती हैं जहां मानवीय पक्ष, जनपक्षधरता, जन संस्कृति के साथ उपस्थित है ये सभी कविताएं जीवन को कई रूपों खोलती हैं जहाँ मृत्यु शैया में पड़ा व्यक्ति है तो हत्यारों की खौफनाक गलियां हैं, शहर के पुराने रास्ते हैं ,जहर से मरी मछलियां हैं ,शापित कुलधरा है तो प्यार का पीला रंग है यह सभी कविताएं मानवीय सरोकारों से अवगत कराती हैं, स्मृतियों से जुड़ी ये वस्तुएं पूरी मानवीयता के साथ कविता के लोक पक्ष को जीवटता और जीवन के संघर्ष को पूरी व्यापकता के साथ पाठकों के समक्ष उपस्थित होती हैं! लक्ष्मीकांत मुकुल जैसे सजग कवि जो कविता के जीवन चुनने के लिए कोई लोभ नहीं पालते बल्कि कविता की लोक हिस्सेदारी में अपनी अनगढ़ स्वभाविक नैसर्गिक कविता प्रतिभा से कविता लिखते हैं कवि मुकुल की सभी कविताएं अपने समाज, अपने जनपद से उपजी हैं .कवि लक्ष्मीकांत मुकुल का नया कविता संग्रह " घिस रहा है धान का कटोरा " पठनीय है इस संग्रह की कविताएँ खूब पढ़ी जानी चाहिए .....
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विजय सिंह
बंद टाकीज के सामने
जगदलपुर ( बस्तर)
छत्तीसगढ़
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