अदम्य इंसान थे दशरथ बाबा / लक्ष्मीकांत मुकुल
तुम्हारे छेनी - हथौड़ी के आगे माथा टेक दिया
तीन सौ साठ फुट लंबा भीमाकाय पर्वत
जो मुंह चिढ़ाता आ रहा था युगांतरों से
जिस की छांव में बढ़ता था गरीबों पर जुर्म
सभ्यता के विकास का सबसे बड़ा रोड़ा
देश आजाद होने के बावजूद
इतने छोटे हथियार से कैसे ढाह दिये
पच्चीस फुट ऊंचे पहाड़ को
जिसे तुम ने खरीदा था अपनी बकरियां बेचकर
पूरे बाईस साल कैसी जूझते रहे अपनी सनक भरी साहस से
किन आंतरिक बलों से लड़ते रहे अमानुषिक ता के विरुद्ध
बीस कोस के दुर्गम रास्ते बदल गए कोस भर में ही
न्याय युद्ध में पांव के सहारे ही नाप लिए दिल्ली तक की दूरी
यह जनहित के लिए किया गया काम था
कि फगुनिया की स्मृतियों से किया गया वादा
जो पहाड़ चढ़ती फिसल कर मरी थी यहीं पर
उसके बहते खून के छींटे अब भी इन चट्टानों पर
तुम्हारी जीवन - लीला में खलनायक बने
इन पर्वत - मेखलाओं के विरुद्ध यह कैसा भयंकर प्रतिरोध था तुम्हारा...?
जब कभी हवा से उड़ती आती हैं तुम्हारे कानों में
चूड़ियों की खनक , पायल की रुनझुन
तुम डूब जाते थे उसकी सुनहरी यादों में
अगले ही पल बनैले दैत्य - रूप में दिखाई देती थीं
तुम्हें गहलोत की पहाड़ियां
तुम चल देते थे बेहिचक उससे होड़ लेने अपने नन्हें औजारों के साथ
हथौड़ी के ठोकर से जूझती छेनी से गूंजता था श्रम का गीत
इतिहास के पन्ने पर दर्ज कराने मनुज की संघर्ष गाथाएं
उस इलाके के जिंदा - मुर्दा लाशों के जंगल में
एक तुम ही अदम्य इंसान थे दशरथ बाबा !
तुम्हारे नाम से ही जीवंत होती है बर्बर दौर में प्रेम की संकल्पनाएं
पथरीली घाटी में लगाए तुम्हारे गाछी से
बहती रहेगी शीतलता की बयार
उगते रहेंगे हर साल नए किसलय
प्रेरित होती रहेंगी नस्लें तुम्हारी साहसिक कथाओं से!
No comments:
Post a Comment