Sunday 31 March 2024

लक्ष्मीकांत मुकुल के प्रथम कविता संकलन "लाल चोंच वाले पंछी" पर आधारित कुमार नयन, सुरेश कांटक, संतोष पटेल और जमुना बीनी के समीक्षात्मक मूल्यांकन

लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताओं में मौन प्रतिरोध है
– कुमार नयन


आधुनिकता की अंधी दौड़ में अपनी मिट्टी, भाषा, बोली, त्वरा, अस्मिता, ग्राम्यता, को बचाए रखना बहुत कठिन है, खासकर कविता में जहाँ रोज-ब-रोज शब्द अपना अर्थ खोते जा रहे हैं. ऐसे में कोई कविता या संग्रह अपनी जड़ों को तलाश करते हुए मानवीय संवेदना को स्पर्श करे, तो निश्चय ही मन की व्याकुलता और चिन्ता को एक

आलंबन मिलता है. युवा कवि लक्षमीकांत मुकुल का हाल में ही प्रकाशित काव्य संग्रह ‘लाल चोंच वाले पंछी’ की अधिकांश कवितायें इस अर्थ में पाठकों को काफी सुकून दे जाती हैं. पुष्पांजलि प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित इस संग्रह में कुल 59 कवितायें हैं, जो स्मृतियों के झरोखे से मानवीय मूल्यों की प्रतीति कराने में सचेष्ट दिखती हैं. कविताओं में अतीत के प्रति व्यामोह है, जो छूट गया, वह कितना जरूरी और मूल्यवान था, इसका एहसास बड़ी सिद्दत से इन कविताएँ में किया जा सकता है. आज के इस क्रूर समय में जहाँ रिश्तों पर बाज़ार का प्रभाव छाने लगा है, कवि एक पहाड़ी गाँव में प्रेम में पगे कोहबर की पेंटिंग को देखकर आशान्वित हो उठता है कि पृथ्वी के जीवित रहने की संभावनाएँ अभी भी जीवित है.


लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताओं में संवेदना का ज्वार है, तो मानवीय मूल्यों के टूटने की पीड़ा भी. सभ्यता के विकास के नाम पर जो शहरीकरण और बाजारीकरण हो रहा है, उसमें गाँव – जवार के तमाम प्राकृतिक अवयव और संसाधन हमसे दूर होते जा रहे हैं और तमाम सुविधाओं के बीच जीवन दूभर होता जा रहा है. आधुनिकता का अँधा दौर हमारी संवेदना को लीलता जा रहा है. हम न स्वयं को, न अपनों को, न अपने गाँव को, न छवर (पतला रास्ता) को पहचान पा रहे हैं – ‘बदलते युग की इस दहलीज पर / मानचित्र के किस कोने में बसा है तुम्हारा गाँव / किन सडकों से पहुंचा जा सकता है उस तक?’ (बदलते युग की दहलीज पर). कवि आधुनिकता की दौड़ में हो रहे बदलाव में विघटन देख रहा है. ‘गाँव तक / सड़क आ गयी / गाँव वाले / शहर चले गये’ संग्रह की इस छोटी कविता में त्रासदी भी है, पीड़ा भी. संग्रह की शीर्षक कविता ‘लाल चोंच वाले पंछी’ बहुत सहज और सरलता से यह एहसास करा जाती है कि जहाँ भी श्रम है, प्रकृति है, बदलाव है, सौंदर्य है, वहां लाल रंग है. कवि ने इस कविता द्वारा तथाकथित रूढ़ी को तोड़ने की कोशिश की है कि लाल रंग कोई हिंसा या खूनी क्रांति का प्रतीक है. लाल रंग तो प्रकृति, प्रगति और सकारात्मक परिवर्तन का द्योतक है.

लक्ष्मीकांत मुकुल की इन कविताओं पर आरोप है कि वे पूरी तरह से नोस्टाल्जिक हैं. कवि किसी भी तरह की आधुनिकता या कोई नयापन से गुरेज करता हुआ दिखाई देता है, परन्तु इसके बावजूद कविताओं में एक अनुपस्थित या परोक्ष प्रतिरोध का स्वर है. जो पूरी तरह मौन होकर भी वैश्विक पूंजीकरण और उत्तर आधुनिकता के समक्ष तन कर चीख रहा है.


बहुत ही शालीनता और सूक्ष्मता से कवि ‘चिड़ीमार’ कविता में आम लोगों को आगाह करता है – ‘वे आयेंगे तो बुहार ले जायेंगे हमारी खुशियाँ, हमारे ख्वाब, हमारी नींदें, वे आयेंगे तो सहम जायेगा नीम का पेड़, वे आयेंगे तो भागने लगेंगी गिलहरियाँ.’ कविताओं में व्यवस्था के प्रति मौन विरोध है, किन्तु कहीं-कहीं संयमित आक्रोश भी मुखर हुआ है, ‘इधर मत आना वसंत’ में कवि का आक्रोश प्राथमिकी दर्ज कराता हुआ चीख पड़ता है – ‘दूर – दूर तक फैली हैं / चीत्कारों के बीच चांचरों की चरचराहटें / फूस – थूनी – बल्लों से ढंकी दीवालों पर / पसर रही है रणवीर सेना की सैतानी हरकतें.’ कवि मन इस क्रूर व्यवस्था से इतना व्यथित है कि वह इस दुनिया से ही पलायन करने को संकल्पित हो उठता है. ‘आत्मकथ्य’ कविता में ब्यक्त इन भावात्मक विचारों को पढ़कर पाठक यह समझ सकते हैं कि कवि क्रूरता, अन्याय, कुव्यवस्था से लड़ने के बजाय कायरतापूर्वक पलायन को तरजीह देता है, जो कवि प्रकृति के सर्वथा प्रतिकूल है. परन्तु विचारणीय है कि जब मानवीय मूल्यों पर घोर संकट छाया हुआ हो और आम आदमी नियतिवाद के दुष्चक्र में फँसा हुआ नैराश्य और अवसादग्रस्त हो तो कवि की अभिव्यक्ति का विचलित हो जाना स्वाभाविक है. यहाँ कवि अवसादग्रस्त पीड़ित व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करता हुआ यह निर्णय लेने को विवश दिखता है – ‘देखोगे / किसी शाम के झुरपुटे में / चल दूंगा उस शहर की ओर / जिसे कोई नहीं जानता ......  लोग खोज नहीं पायेंगे / कहीं भी मेरा अड़ान...... परिकथाओं से मांग लाऊंगा वायु वेग का घोड़ा / और चल दूंगा उस अदृश्य शहर की ओर.’ ऐसा नहीं है कि लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताओं में सिर्फ अतीत प्रेम और निराशात्मक बिम्ब हैं. इसमें भविष्य भी है और ‘अंखुवाती उम्मीद’ भी–

‘काश ! ऐसा हो पाता / पिता लौट आते खुशहाल / माँ की आँखों में पसर जाती / पकवान की सोंधी गंध / मेरी अंखुवाती उम्मीदों को मिल जाते / अँधेरे में भी टिमटिमाते तारे.’

दरअसल कवि की चिन्ता मानवीय रिश्तों की मिठास और प्रगाढ़ता बचाए रखने की है, जो सिर्फ और सिर्फ उन तमाम चीजों और क्रिया – कलापों को संजोकर रखने से ही संभव है, जो हमारे लिए बेहद आत्मीय प्राणदायी है, इसलिए – ‘महुआ बीनती हुई / हज़ार चिंताओं के बीच / नकिया रही है वह गंवार लड़की / कि गौना के बाद / कितनी मुश्किल से भूल पाएगी / बरसात के नाले में / झुक – झुककर बहते हुए / नाव की तरह / अपने बचपन का गाँव.’ उम्मीद जगाती कविता ‘उगो सूरज’ में कवि अपने मन की इच्छाएँ बेलौस होकर ब्यक्त करता है – ‘सूरज ऐसे उगो ! / छूट जाए पिता का सिकमी खेत / निपट जाए भाइयों का झगड़ा / बच जाए बारिश में डूबता हुआ घर / माँ की उदास आँखों में / छलक पड़े खुशियों के आंसू.’ कुछ ऐसे ही भाव ‘गाँव बचाना’ में भी उभर कर आये हैं.

कवि अपने गाँव और गाँव से जुड़ी सभी चीजों को, सात पुश्तों से चली आ रही इंसानी परंपरा की बुनियाद पर टिकी संस्कृति को बचाये रखने की गुहार लगाता है.


संग्रह की सबसे लम्बी कविता ‘कोचानो नदी’ जिसके किनारे कवि का गाँव ही नहीं हजारों गाँव बसते हैं, जो जन – जन के लिए ही नहीं, पेड़ – पौधों, पशु – पंछियों के लिए भी जीवनदायिनी है, वह संकटग्रस्त है. कवि को डर है कि नदियों और पर्वतों का सौदा करने वाली यह ब्यवस्था – ‘कहीं रातों – रात पाट न दे कोई / मेरे बीच गाँव में बहती हुई नदी को / लम्बे – चौड़े नालों में बंद करके / बिखेर दे ऊपरी सतह पर / भुरभुरी मिट्टी की परतें / जिस पर उग आये / बबूल की घनी झाड़ियाँ / नरकटों की सघन गांछें.’ संग्रह की अनेक कवितायें उल्लेखनीय हैं, जिसमें कवि की स्मृतियों का भावुक प्रलाप विविध प्रतीकों व बिम्बों में झलकता है, वस्तुतः ये कवितायें समय के दबाव को झेलती हुई मनुष्यता की कराह है, जो यथास्थिति एवं जड़ होती जा रही व्यवस्था के विरुद्ध प्रतिरोध रचती हैं. बेहद आंचलिक या देशज , ठेठी बोली के शब्दों के प्रयोग ने इसे लोकभाषाई ताना – बाना से पूरी तरह सराबोर कर दिया है. कहीं – कहीं ठेठ गंवई शब्दों के व्यामोह में अभिव्यक्ति कि स्पष्टता बाधित हुई सी लगती है. कवि को इसमें सावधानी बरतने की आवश्यकता है.

फिर भी सीधे सपाट बिम्बों और प्रतीकों में अभिव्यक्त लोक चेतना से आप्लावित ये कवितायें सफल और सार्थक वितान रचती हैं. सर्वत्र कवि का शिल्प वैशिष्ट्य और निजपन पाठकों को सुखद स्मृतियों के सहारे मानवीय संवेदना की अनुभूति प्रदान करते हैं. कहना चाहिए कि समकालीन आंचलिक कवियों के बीच लक्ष्मीकांत मुकुल अपनी कविताओं के खुरदरे रचाव और अपनी अल्हड अभिव्यक्ति में अलग और अभिनव हैं.

संपर्क –
कुमार नयन
खलासी मोहल्ला,
बक्सर – 802101

*******"*******************""""********

लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताओं में भूमंडलीकरण की आंधी में गाँव की चिन्ता
- सुरेश कांटक, कथाकार

मेरे सामने युवा कवि लक्ष्मीकांत मुकुल का काव्य संकलन ‘लाल चोंच वाले पंछी’ है. इस संग्रह में उनसठ कवितायें संकलित हैं. इन तमाम कविताओं को पढ़ने और उन पर विचार करने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूँ कि आज जब चारों तरफ बाजार अपनी माया फैला रहा है, हमारे मानव मूल्य इसी प्रचंड – धारा में तिरोहित हो रहे हैं, रिश्ते – नाते तिजारती जींस में बदल रहे हैं, भूमंडलीकरण के नाम पर आयातित विचार और जींस हमारी संस्कृति को निगलने में कामयाब है. एक कवि की चिन्ता अपनी मौलिकता को बचाने में संलग्न है. उसके शब्द उसके सपनों को साकार करने के लिए आकुल – व्याकुल हैं.

कवि अपनी रचनाओं में अपने गाँव को बचाने की चिन्ता जाहिर करता है. उनकी कविताओं में ‘पथरीले गाँव की बुढ़िया’ के पास बहुत बड़ी थाती है, वह थाती लोक कथाओं की थाती है. साँझा पराती की है. जंतसार और ढेंकसार की है. वह अपनी जिंदगी की नदी में लोककथाओं को ढेंगी की तरह इस्तेमाल करती हुई अपनी हर शाम काट लेती है. अतीत की घाटियों से पार करती वह वर्त्तमान की जिंदगी को भी देखती है, जहाँ तकनीकी हस्तक्षेप उसके गाँव की मौलिकता को निगलती जा रही है. कौवों के काँव – काँव के बीच उसे अपना अस्तित्व कोयल की डूबती कूक - सा लगता है. कवि कहता है –

‘रेत होते जा रहे हैं खेत / गुम होते जा रहे बियहन / अन्न के दाने / टूट – फूट रहे हैं हल जुआठ / जंगल होते शहर से अउँसा गए हैं गाँव /......दैत्याकार मशीन यंत्रों , डंकली बीजों / विदेशी चीजों के नाले में गोता खाते / खोते जा रहे हैं निजी पहचान.’

यहाँ निजी पहचान के खोने का दर्द कवि लक्ष्मीकान्त मुकुल की कविता में ढल कर आया है. गाँव की सुबह और गाँव का भोर कवि की आँखों में कई – कई दृश्य लेकर आते हैं, जहाँ आस्था के पुराने गीतों के साथ किसानों का बरतस है, ओसवनी का गीत है, महुआ बीनती लड़की का गौना के बाद गाँव को भूल जाने का दर्द है, हज़ार चिन्ताओं के बीच बहते हुए नाव की तरह अपने गाँव के बचपन की स्मृतियाँ है.

इस संग्रह में संकलित ‘लुटेरे’ और ‘चिड़ीमार’ जैसी कवितायें मुकुल की वर्त्तमान चिंताओं की कवितायें हैं, जिसमे बाजारवाद का हमारे जीवन में पैठ जाना, बिना किसी हथियार के ध्वस्त कर देना शामिल है. हमारी हर जरूरत की चीजों में मिला है उसका जहर, जो सोख लेगा हमारी जिंदगी को, अर्थव्यवस्था में दौड़ रही धार को.


‘अंगूठा छाप औरतों के लिए विदा गीत’ भी गाँव के मौसम और ढहते सपनों का दर्द बयान करती कविता हैं. इसमें खेत – खलिहान के कर्ज में डूबते जाने और प्रकृति में चिड़ियों का क्रंदन भी शामिल है. ‘धूमकेतु’ में गाँव को बचाने की चीख है, जिसे धूमकेतुनुमा भूमंडलीकरण ध्वस्त करने का संकेत देता है. “जंगलिया बाबा का पुल “जैसी कविता में हरे - भरे खेत को महाजन के हाथों रेहन रखने वाले किसानों की चीख समायी हुई है, जिससे जीवन के सारे मूल्य दरकते हुए लगते हैं.

कवि लक्षमीकांत मुकुल गाँव के साथ – साथ प्रकृति के दर्द को भी अपनी कविता में समेटने का प्रयास करते हैं. प्रकृति और फसलों का साहचर्य धुन इनकी कविताओं का मर्म है. ‘ धूसर मिट्टी की जोत में ‘ गाँव की उर्वरा शक्ति की ओर संकेत करता है कवि.

जब गाँव की बात आती है, तब किसान और मजदूर की छवि बरबस कौंध जाती है, ‘ पल भर के लिए ‘ कविता में गाँव की दहशत की आवाज है, जिसे खेत जोतकर लौटते हुए मजदूर झेलने को विवश होते हैं. ‘ इंतजार ‘ जैसी कविता में थके हारे आदमी और बांस के पुल घरघराना एक रूपक रचाता है, जिंदगी की बोझ और टूटते हुए साँसों की नदी का, जिसे सम्हालने में डरता है बांस का पुल.

शीर्षक कविता ‘ लाल चोंच वाले पंछी ‘ की पंक्तियाँ हैं –

“ तैरते हुए पानी की तेज धार में / पहचान चुके होते हैं वे अनचिन्हीं पगडंडीयां / स्याह होता गाँव / और सतफेडवा पोखरे का मिठास भरा पानी. “ ये पंछी नवंबर के ढलते दिन की कोंख से चले जाते हैं. धान कटनी के समय और नदी किनारे अलाप भर रहे होते हैं. वे दौड़ते हैं आकाश की ओर / उनकी चिल्लाहट से / गूँज उठता है बधार.....अटक गया है उनपर लाल रंग / बबूल की पत्ती पर. ये पंछी कौन ? ललाई लेकर आते हैं , पूरब का भाल लाल करने के लिए , स्याह होते गाँव में उजास भरने के लिए. इसलिए लाल रंग के रेले से उमड़ आता है घोसला

कवि इन पंक्तियों के माध्यम से यथास्थिति को तोड़ने वाले वैचारिक संदर्भों को चिन्हित करता है. बहुत बारीकी से वह प्रकृति का वह रूपक रचता है, जिसमें पंछी अपने विचारों की लाली लिए उतरते हैं. चिड़ीदह में झुटपुटा छाते ही जैसे और लगता है टेसू का जंगल दहक रहा हो, फ़ैल रही हो वह आग जो तमाम उदासियों को छिन्न – भिन्न कर देने का लक्ष्य पालती है अपने सपनों में.

अन्य कवितायें जिसमें ‘ कौवे का शोकगीत ‘ , ‘ पौधे ‘ , ’ बदलाव ‘ , ’ बचना – गाँव ‘ , ’ लाठी ‘, ‘इधर मत आना बसंत ‘ , ’ तैयारी ‘ , ’ आत्मकथा ‘ , ’ टेलीफोन करना चाहता हूँ मैं ‘ शामिल हैं, जो गाँव की विभिन्न स्थितियों का बखान करती हैं जिसमें कवि की बेचैनी साफ़ – साफ़ दृष्टिगोचर होती है. राजनीतिक दलों एवं नेताओं के हंगामे से मरती उम्मीदों की छाया भी दिखाती है, ‘ कौवे का शोकगीत ‘ जैसी कविता में अब निराशा के कुहरे जैसी लगती है नेताओं की बयानबाजी. गाँव के किसान मजदूर मगन रहते हैं अपने काम में. कौवा शोर होता रहता है. नये का आगम संकेतवाहक रूप नहीं दिखता उनमें.


फिर भी कवि भविष्य की उम्मीद जगाने की कविता ‘ पौधे ‘ लिखता है. अपने गाँव को हजार बाहों वाले दैत्य बाजारीकरण से बचने की सलाह देता है.


कुछ कविताओं में कवि का अतीत मोह भी चुपके – चुपके झांकता सा लगता है जैसे ‘लाठी‘

में. कहीं बाबा की मिरजई पहनकर गायब हो जाना चाहता है. पोख्ता वैचारिक दृष्टि सम्पन्न रचनाकार नये सृजन के नये आयामों को टटोलना बेहतर समझता है गुम हो जाने से.

कवि की प्रेम के प्रति गहरी आस्था भी एक कविता ‘ पहाड़ी गाँव में कोहबर ‘ को देखकर झलक जाती है. भयंकर दिनों में भी प्रेम की पुकार जिन्दा थी. बीहड़ जंगल की अँधेरी गुफा में भी रक्तरंजित हवा के साथ प्रेम की अमरता की शिनाख्त कर लेता है कवि. जो मानव सृष्टि का आधार है. कोहबर पेंटिंग में पूरे युग की त्रासदी बोलती है. प्रकृति, पंछी , जीव जंतु, मानव हृदय की धड़कन सब दिख जाता है उसे.लोरिक - चंदा की प्रेम - लीला जैसे झांकती है लोकगाथा में.

इस तरह कवि में संभावनायें उमड़ती दिखती हैं. वैचारिक धार इसमें बहुत कुछ जोह जाती है. संग्रह की कवितायें उम्मीद जगाती है. पठनीय है. इसका स्वागत होना चाहिए.

---संपर्क :- कांट, ब्रह्मपुर,
बक्सर,बिहार - 802112

*******""**************************"""****
पुस्तक समीक्षा : लाल चोंच वाले पंछी

- समीक्षक: सन्तोष पटेल

काव्य मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति का सर्वाधिक जीवंत माध्यम है।प्रभाव उत्पन्न करने  की दृष्टि से काव्य मानवीय अंतश्चेतना को प्रभूतत: आकृष्ट एवं प्रेरित करता है। अतः अनादिकाल से आज तक कविता का महत्व स्वीकारा गया है।

मैक्सिकन कवि ऑक्टविया पाज ' कविता' को दूसरी आवाज़ कहता है। इतिहास या प्रति इतिहास की आवाज़ नहीं, बल्कि एक ऐसी आवाज़ जो (लय और झंकार तात्कालिकता की) इतिहास के भीतर हमेशा कुछ अलग कहती है।'

ऐसी ही एक आवाज़ लक्ष्मीकांत मुकुल के सद्य: काव्य संग्रह ' लाल चोंच वाले पंछी' में दर्ज है। 59 कविताओं को पढ़ने के बाद लगता है कि कवि का गाँव की मिट्टी से कितना लगाव है। मुकुल ग्रामीण परिवेश में रहना पसंद करते हैं।वे नगर के 'मेडिंग क्राउड' दूर रहकर प्रकृति से करीबी रिश्ता में विश्वास करते हैं। खेत -खलिहान, पोखर, तलाब, नदियाँ, चिरई-चिरुंग से कंसर्न तो हैं ही, साथ ही समाज के मुख्यधारा में अब तक नहीं आये घुमन्तु जन जनजातियों, आदिवासी, महिलाओं के हक-हुक़ूक़ और मरते नदियों के बचाव के लिए भी मुखर हैं। देशज शब्दों से लदी इनकी कविताएं बोधगम्यता को कहीं बाधित नहीं करतीं, वरन सहजता से सम्प्रेषित होती हैं। 

अमेरिकन कवि एडगर ए पोई ( Edger A Poe) लिखता है कि - कविताओं की सबसे अच्छी बात यह है कि सत्य को उद्घाटित करती है और यह एक नैतिकता का संचरण करती हैं और इसी नैतिकता की एक काव्यात्मक योग्यता की परख कविता में ही की जाती है। 
इस संग्रह में एक कविता है - बदलाव। मुकुल ने इस छोटी से गात की कविता में मानो एक बड़ी चिंता को अभिव्यक्त कर दिया है-

"गाँव तक सड़क
आ गई
गाँव वाले
शहर चले गए।"

इन चार पंक्तियों में मुकुल ने भारतीय समाज की समस्याओं और समाधान का एक महाकाव्य रच दिया है। सत्य है कि जहाँ कवि गाँव से नगर की ओर तेज़ी से हो रहे पलायन से आहत है ; लेकिन यह फौरी तौर पर है ,परन्तु जब कविता की अंतवस्तु का विश्लेषण किया जाए ;तो कवि इस 'बदलाव' से आहत नहीं, बल्कि प्रसन्न है कि गाँव वर्ण व्यवस्था का संपोषक होता है ,ऐसी स्थिति में पलायन इस अर्थ में मानवता को सम्पोषित करना का टूल है, जहाँ इंसान जाति नहीं, आवश्यकता और काम से जाना जाता है और तब यह कविता मनुष्यता की भाव - दशा के सबसे करीब है।

इस संग्रह में एक कविता है 'धूमकेतु'। बिंम्बों से लबरेज यह कविता दुनिया में तेजी से हो रहे बाजारीकरण और ग्लोबलाइजेशन की मुख़ालफ़त बड़ी ताकत से करती है। मुकुल इस कविता में बिंम्बों ( image) का करीने से प्रयोग  करते हैं और कविता सबलाइम हो जाती है। उद्दात भाव की इस कविता को देखें-

"चाँद तारों के पार से
अक्सर ही आ जाता है धूमकेतू
और सोख ले जाता है हमारी
जेबों की नमी।" 

मुकुल बिंम्बों का प्रयोग मुक्तिबोध की तरह करते हैं ;जो अर्थ सर्जन करते है ,बोझिल नहीं बनाते। एजरा पाउंड की बात याद रखना चाहिए- उन्होंने बिम्बवादियों को अपने बहुचर्चित आलेख' अ फ़्यू डोनट्स' (1913) में चेताया था कि बिम्ब के नाम पर जरूरत से ज्यादा शब्द विशेषकर विशेषण नहीं प्रयोग करें।' 

मुकुल के काव्य संग्रह से गुजरने के बाद उनकी काव्यशैली (poetic diction) पर कविता की जानिब से बात करना वाजिब होगा। इस संग्रह की बहुतायत कविताएं यथा, लाल चोंच वाले पंछी, कौए का शोकगीत, बसंत आने पर, बदलते युग की दहलीज पर, गाँव बचना, लाठी आदि में देशज शब्दों का प्रयोग लालित्य पूर्ण है-
 
नवम्बर में ढलते दिन की
सर्दियों की कोख से
चले आते हैं ये पंछी
शुरू हो जाती है जब
धान की कटनी
वे नदी किनारे आलाप 
भर रहे होते है।"
( 'लाल चोंच वाले पंछी' कविता से)

कवि प्रवासी पंछियों के कलरव और जल क्रीड़ा  को देख भावविह्वल है। नवंबर माह में हज़ारों किलोमीटर की यात्रा कर विदेशी पक्षियों का आगमन कवि ह्रदय को मुग्ध कर देता है और कवि देशज शब्दों में विदेशों पक्षियों का अभिवादन करता है। इस भाषा को विलियम वर्ड्सवर्थ लिखता है_ Langauage near to the language of man.

मुकुल की कविताओं में ऐसे सहज शब्द जो गाँव के हो, किसान के हो , हलवाहों के हो , चरवाहों के हो  और कविता का विषय भी उनका ही हो, यह सुगमता से दिखता है। 
चमघिंचवा, अदहन, बीजू का तना हुआ लोहबान, बथान, करवन की पत्तियां, जतसार और पराती, पीली मिट्टी से पोता उसका घर, लाल सिंहोरा, चितकाबर चेहरे, ड़ेंगी, बिअहन अन्न के दाने, हल-जुआठ और झँउसा आदि अनेक शब्द ग्रामीण जीवन की सहजता को सम्प्रेषित करते हैं।

मुकुल की कविताएं सामाजिक सरोकार रखती है उसका एक उदाहरण हम उनकी कुछ कविताओं में देख सकते हैं जैसे सियर -बझवा। सियर-बक्षवा या सियार मरवा यह एक स्थानीय नामकरण है ,दरअसल यह एक घुमन्तु जन जाति (नोमेडिक ट्राइब) होते हैं। ऐसी बंजारा जाति खानाबदोश का जीवन जीती है और अपने भोजन के लिए बिलाव ,स्यार आदि जानवरों का शिकार कर अपना भोज्य बनाती है। ये यायावर  जातियां देश की मुख्यधारा से कोसों दूर हैं और आदिम युग में जीने को अभिशप्त है। कवि उनकी दशा को अपनी कविता में उल्लेखित करता है -

"दौड़ रहे हैं उनके पांव
समय के हाशिए की पीठ पर
वे सिंयर-बझवे हैं
शिकारी कुत्तों के साथ उछलते हुए
जैसे कोई प्रश्न प्रतीक।" (सिंयर-बझवा)

जर्मन कवि बेन ने कहा है कि आदर्श कविता वह है जो आदि से अंत तक कविता ही कविता है, जिसके भीतर न तो कोई आशा है, न विश्वास जो किसी को भी सम्बोधित नहीं है, जो केवल उन्हीं शब्दों का जोड़ है, जिन्हें हम मोहिनी अदा के साथ एकत्र करते हैं। परंतु मुकुल की कविता बदलते गाँव के बानगी है-
" जिस जमाने में
गांवों जैसे बनने को आतुर हैं शहर
और शहर जैसे गाँव
जिन घरों में बजती थी काँसे की थाली
गूंजते थे मंडप में ढोल की थाप
जिस जमाने में गाये जाते थे
होरी-चैता कजरी के गीत
कहीं बैठती थी बूढ़ों की चौपाल।"

इस कविता में कवि परिवर्तन को बहुत आसानी से स्वीकार नहीं कर पाता। वह इस परिवर्तन के कारण लगातार नॉस्टेल्जिया से जूझता रहता है। कवि को बुद्ध के उस सन्देश याद रखना था। बुद्ध के अनुसार "परिवर्तन ही सत्य है। पश्चिमी दर्शन में हैराक्लाइटस और बर्गसाँ ने भी परिवर्तन को सत्य माना। इस परिवर्तन का कोई अपरिवर्तनीय आधार भी नहीं है। बाह्य और आंतरिक जगत् में कोई ध्रुव सत्य नहीं है।"

मुकुल की कविताओं में प्रतीकों का प्रयोग बहुतायत है जो मूर्त नहीं हो पाती हैं ,जिसके कारण पाठक इन कविताओं में उलझ जाता है ,क्योंकि अर्थवत्ता के आधार पर पाठक को कुछ रचनाएँ सहजता से समझ नहीं आती। 

वैसे बिम्ब विधान में जो सम्मुर्तन और चित्रोपमता की प्रधानता होनी चाहिए थी ,वह कुछ कविताओं में नहीं हैं जिसके कारण कुछ कविताएं सम्प्रेषण के स्तर और कमजोर हैं। पाठक बेकन के शब्दों में उन कविताओं का टेस्ट भर करता है, रसास्वादन नहीं। 
बाबजूद इसके कवि की कारयित्री प्रतिभा इस कृति में दिखती है और कविता प्रेमियों को इसे जरूर पढ़ना चाहिए। इस बेहतरीन कविता संग्रह के लिए लक्ष्मीकांत मुकुल बधाई के पात्र है।

कृति- लाल चोंच वाले पंछी
रचनाकार- लक्ष्मीकांत मुकुल
विषय- कविता
प्रकाशक- पुष्पांजलि प्रकाशक, दिल्ली,
संस्करण- 2016
मूल्य-  रुपये 300

***********"""**"""""******************

विचारशील व्यक्ति की आर्द्र भरी पुकार है लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताएं

_ जमुना बीनी 



मैं किसी आलोचकीय दृष्टि से लैस नहीं हूँ। अतः यहाँ लक्ष्मीकांत मुकुल के कविता संकलन"लाल चोंच वाले पंछी"पर कविता संबंधी जो विचार व अनुभूति मैंने प्रकट की है,इसे आप एक पाठक की हृदय से निकली प्रतिक्रिया मात्र ही समझें।मेरी छोटी-छोटी प्रतिक्रियाएँ इस तरह हैं_

"अंगूठा छाप औरतों के लिए विदा गीत"  कविता को पढ़ते हुए यह महसूसा कि गाँव के अपढ़ स्त्रियों के साथ प्रकृति अनायास ही गाने लगती है क्योंकि यह गीत उनके अंतरतम या कहे कि पोर-पोर से निसृत है_

मेरे गांव की अंगूठा छाप औरतें
उतरने लगता सूरज उनींदी झपकियों के झीने जाल में
वे गाने लगतीं
हवा के हिंडोले पर बैठकर तैरने लगती पक्षियों की वक्र पंक्तियां
वे गाने लगतीं
गाने लगती तेज चलती हुई लू में चंवर डुलाती हुई

"लाल चोंच वाले पंछी"कविता को पढ़ते ही मुझे स्वतः मेरे गाँव में जाडे़ में सुदूर तिब्बत से उड़कर आते प्रवासी पक्षियों की याद आ गयी। 'गुत' नामक यह पक्षी जाडे़ में उष्णता की खोज में तिब्बत के बर्फीले पहाडो़ं से मीलों की दूरी तय कर हमारे गाँव आया करती थी। माँ बताती थी कि अतीत में केलेण्डर का चलन था नहीं, अतः गुत पक्षी के आगमन पर ही हमारा लोकपर्व 'बूरी-बूत' का आयोजन होता था_

नवंबर के ढलते दिन की

सर्दियों की कोख से

चले आते हैं ये पंछी

शुरु हो जाती है जब धान की कटनी

वे नदी किनारे आलाप भर रहे होते हैं

लाल चोंच वाला उनका रंग

अटक गया है बबूल की पत्ती पर

सांझ उतरते ही

वे दौड़ते हैं आकाश की ओर

उनकी चिल्लाहट से

गूंज उठता है बधार

और लाल रंग उड़कर चला आता है

हमारे सूख चुके कपड़ों में

बदलाव:- संग्रह की सबसे छोटी मगर सबसे मार्मिक व मन-मष्तिस्क को भेदने वाली कविता है यह। कविता सवाल करती है कि क्या विकास का मात्र भौतिक पक्ष महत्वपूर्ण है ! साल दर साल सड़कों का जाल बिछता जा रहा है। सड़कों को जीवनरेखा कहकर प्रचारित किया जाता रहा। पर सड़कों के साथ कई अवांछित वस्तु-स्थिति भी गाँव में प्रवेश करती है। यह वस्तु-स्थिति गाँव और गाँव वासी को गहरे तक प्रभावित करती है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि सड़कें अगर जीवनरेखा है तो पलायन का सबसे आसान मार्ग भी है। लोग झुण्ड के झुण्ड इन्हीं सड़कों से पलायन कर एक हँसता-खेलता गाँव को रातोंरात भूतहा गाँव में तब्दील कर चले जाते हैं। पलायन मानवजाति की सबसे प्राचीन गतिविधि रही है पर आज तथाकथित विकास ने इसे तीव्र गति प्रदान की है_

गांव तक सड़क
आ गई
गांव वाले
शहर चले गये।

"गाँव बचना" इस बिंबप्रधान कविता की भाषा अत्यंत महीन एवं पारदर्शी है। कविता में आज के प्रत्येक विचारशील व्यक्ति की आर्द्र भरी पुकार है_

गांव बचना
कि इस युग में कुछ भी नहीं बचने वाला
माटी कोड़ती
सुहागिनों के मंगल-गीत में बचना
बचना दुल्हिन की
चमकती हुई मांग में
बचना
जैसे बच जाती हैं सात पुश्तों के बाद भी
धुंध्ली होती पूर्वजों की जड़ें!।

धीमे-धीमे :- कविता में तब और अब यानी अतीत तथा वर्तमान का सच्चा एवं प्रामाणिक चित्र अंकित है। परिवर्तन अवश्यंभावी है तथापि मन कहता है कुछ स्थितियाँ ज्यों की त्यों बनी रहें, स्थिति की शाश्वतता खत्म न हो_

कोमल धागों के संबंध
बिखरे नहीं थे उन दिनों
बुझी नहीं थी दीया-बाती की
जलती-तपती लपटें
तब धीमे-धीमे चलते थे लोग
धीमे-धीमे पौधे बढ़ते थे
आंधी धीमे-धीमे चलती थी।

प्रसंग :- कारुणिक कविता है यह। मन बींध गया कविता को पढ़कर। कल्पनालोक और यथार्थलोक में बहुत बडा़ फासला होता है, इस सत्य को कविता में बखूबी चिन्हित किया गया है_

नींद उचटते ही
बदल चुकी होती है पूरी दुनिया
हमारी पहचान खत्म हो चुकी होती है
हमें कोई काम नहीं मिल पा रहा होता
हमारे बच्चे भूल गये होते हैं
स्कूल से निकलते हुए
हमारी घरनियां लूट गयी होती हैं
कितनी झूठी आशाएं थीं
मां की वे कहानियां
सफेद झूठ
जिनको आज संजोते वक्त
सपनों के मोती बिखर जाते हैं
अनायास ही।

" टेलीफोन करना चाहता हूँ मैं" कविता से स्पष्ट है कि जो व्यक्ति जितना जडो़ं से दूर होता है वह जडो़ं की ओर उतना खिंचाव महसूस करता है। इस खिंचाव को हम कविता में शिद्दत से महसूस कर सकते है_

 इतने मीलों दूर बैठकर टेलीफोन से

बातें करना चाहता हूं अपने गांव के खेतों से

जिसकी पक चुकी होंगी फसलें
पर उसका नंबर मेरी डायरी में अब तक दर्ज नहीं
बातियाना चाहता हूं
खलिहान के दौनी में लगे उन बैलों से
जो थक गये होंगे शाम तक भांवर घूमते हुए
उन भेडों से, जो आर-डन्डार पर
घासें टूंग रही होंगी

मुकुल जी के संग्रह की अन्य कविताएँ जैसै जंगलिया बाबा का पुल, पल भर के लिए, पौधे, कोचानो नदी, लाठी, गान, उगो सूरज, आत्मकथ्य, प्रलय के दिनों में, दहकन आदि कविताओं ने मुझे बहुत प्रभावित किया है। आपकी भाषा बिंबात्मक भाषा मसलन उकताहट भरी शाम, सूरज की उनींदी झपकी, बहते पानी में चेहरा नापते बचपन के खोए झाग, नदी के पालने में झूलते हुए गाँव आदि ऐसे अनेक पंक्तियों को मैंने रेखांकित कर रखा है।  आपको बधाई इस सार्थक व सफल संग्रह के लिए.....!

                         _ डॉ.जमुना बीनी तादर

                            हिंदी विभाग,

                             राजीव गांधी विश्वविद्यालय, 

                            दोइमुख (अरुणाचल प्रदेश)

  ***""**"*****"""********************


No comments:

लक्ष्मीकांत मुकुल के प्रथम कविता संकलन "लाल चोंच वाले पंछी" पर आधारित कुमार नयन, सुरेश कांटक, संतोष पटेल और जमुना बीनी के समीक्षात्मक मूल्यांकन

लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताओं में मौन प्रतिरोध है – कुमार नयन आधुनिकता की अंधी दौड़ में अपनी मिट्टी, भाषा, बोली, त्वरा, अस्मिता, ग...