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Sunday, 10 November 2019
"लाल चोंच वाले पंछी' pdf {कविता संकलन}__ लक्ष्मीकांत मुकुल
"लाल चोंच वाले पंछी " [कविता संकलन] के पीडीएफ को इस लिंक को ब्राउजर/क्रोम में पेस्ट कर नि: शुल्क डाउनलोड करें.......!
Saturday, 9 November 2019
लक्ष्मीकांत मुकुल की आठ कविताएं
लक्ष्मीकांत मुकुल की आठ कविताएं
पलटू राम के किस्से
छरबेंगा से भी अधिक
पलटी मारने में माहिर हैं पलटू राम
अपनी प्रेमिका सिखाते हैं बारंबार कसमें
सात जन्मों तक साथ निभाने का
समयांतराल में वे तलाशने में
भीड़ जाते हैं अन्य किस्म की प्रेम बालाएं
कहा था घाघ कवि ने अपनी कविताई में
कि पेड़ पर गिरगिट को उलटे चढ़ते हुए देखो
तो जान लेना कि तुरत होगी झमाझम बारिश
पलटू राम अगर कर रहे होंगे सुंदरता पर बातें
तब जाहिर है कि वे विषयांतर वाले
किसी प्रेम कथा का नया मोड़ दे रहे हैं
पलटू राम की चहेतों की कमी नहीं हमारे इलाके में उनके आगमन की प्रतीक्षा में
पलक पावरे बिछाए बैठे रहते हैं कई लोग
वाम हों या दक्षिणपंथी
मंडल वाले हों या कमंडल वाले
सबकी प्रिय हैं पलटू राम
वे चारदीवारी को फांद कर पहुंचते हैं जिस हिस्से में वहां फहराए जाते हैं विजय के पताके
उत्सव -उल्लास के सजग पैरोकार हैं वे
हमारी जीवन के हरेक साल में
आती हैं छह ऋतुएं लेकर मौसमी खुशियां
समय की टभकते जख्मों के साथ
माहिर मौसम विज्ञानी हैं पलटू राम
हवा की दिशा को देख कर मुड़ जाते हैं राहें
तिलचट्टे जैसा
सीलन भरी दीवाल को जकड़ने के लिए।
उगता है चांद नियत समय पर
आज का चांद नहीं निकला आसमान में
आज तो अमावस की रात भी नहीं
पूनो की रात है कहीं बदली तो नहीं ढकी उसे
कोई तूफान ,चक्रवात ,सघन वृक्षों की छाया
वह दिखता था मुझे घर की खिड़की से
दमकता हुआ, अपनी आभा में छिप आता हुआ तारों को इमली के पत्तों - डहनियों के बीच झांकता हुआ
नदी की धार में झिलमिलाता हुआ
यह परीवा का चांद नहीं,
जिसे देखकर मुस्लिम लोग ईद मनाते
दूज का चांद भी नहीं, जिसे देखकर देसावर गए प्रेमियों को याद करती प्रेमिकायें
चौथ का चांद भी नहीं जिसे देखते ही कभी कृष्ण पर लगा था मणि चोरी का आरोप
पूर्णिमा का चांद निकलता है जब
अस्त हो रही हों सूरज की किरणें
हम तो उसे देखने बैठे हैं एक प्रहर पहले ही
वह उगा है अब छितिज की छोर से नियत समय पर लाल - उज्जवल - धवल
जैसे बारिश के बाद बिलबिला कर
उग आते हैं धरती की गर्भ में दबे अन्न के दाने
नए अवतार में चालबाज
जब से फैली है अफवाह
कि मुजफ्फरपुर की शाही लीचियों के खाने से
फैल रहा है बच्चों में चनकी रोग
मैंने छोड़ दिया है लीची वाले ठेले की तरफ देखना
वैसे लीची पसंद है मुझे बचपन से
लिचियों के स्वाद में होता है पहले प्यार जैसा सुखद एहसास, जैसे जीवन में पतझार के बाद पेड़ों पर आए हो कोमल पत्ते, मानसून की पहली बौछार से
भीग गए हों अंग - प्रत्यय
किसने फैला गया होगा इन अफवाहों को
आम बागान मालिकों ने
या लीची की खेती कर रहे किसानों के मुखालिफों ने कि फल के व्यापार को नियंत्रित कर रही बाजार व्यवस्था ने या, शेयर बाजार के सट्टेदारों ने ,
किसान विरोधी सरकारों ने
अंधेरे कोने से हवा उड़ाते कृषि हत्यारे जल्लादों ने
यह कौन -सी साजिश है कि किसानों की उत्पादित लीची को फेकवाया जा रहा है गड्ढे में और डिब्बाबंद लीचीयों को दिया जा रहा है बढ़ावा
शातिराना दिमाग वाले जल्लाद
हड़प लेना चाहते हैं सुरसा की तरह
हमारी खेतिहर व्यवस्थाएं
कल वे हवा बांध देंगे
कि हमारे धान गेहूं के अनाजों से निकल रहे हैं कीड़े कल वे शोर मचाएंगे कि दलहन तिलहन के दानों से आ रही है दुर्गंध
हमारे अमरूद, हमारी बेर के फलों को विषाक्त करार देंगे, हमारे लिसोध की फलियों से उसे आएगी बदबू
बाजार व्यवस्था की पीठ पर
पालथी मारे बैठे हैं जल्लाद
नए अवतार में नई चाल बाजियां चलते हुए हमारा ध्यान भटकाते हुए नित्य नई युक्तियों से ।
रैदास
अभिशप्त हो चुकी धरती पर
मनुष्यता की निर्मल जल धार लेकर आए थे तुम
अपने पदों ,ग्रंथों में
जैसे ली पर घूमती पृथ्वी
रोज लाती है भोर का उजास
तुम्हारी वाणियों को पूजने की नहीं
चूमने की होती है ललक
मधुमक्खियां जैसी चूमती हैं मदार के फूल
खुरपी चूमती है मिट्टी में लसरी दूब की जड़ें
संतान की चाहत में कोई मां
चूमती है फकीर के दरगाह की चौखट
संतों के शिरोमणि कहे जाने वाले
मेरे पुरखे रैदास !
तुम्हारे कथनों से मिलती है जीवन जीने की सबक दीया- बाती की तरह जलकर
उजियाला फैलाने का दुनिया में देते हो संदेश
चंदन -पानी -सा घिसकर कर
जीवन बचा लेने का उपदेश
तुम्हारे स्वर गुंजित हैं अब भी दसों दिशाओं में
जिसके बोध से होती है
जन-जन में सहमेल की घिसती डोर !
शिवपूजन जी
{1}
धोती - कुर्ता -टोपी झारे
चले जा रहे थे दनादन
चुपचाप ही
कोचानो तट की ओर शिवपूजन जी
मैंने पूछा -
"किधर चले आप
गांव घूमने
या, देखने अपनी समाधि
या कि, इच्छा हुई है नदी में तैरने की ?"
चुपचाप चले जा रहे
जैसे पल भर के लिए ठिठक गए वे
बोले - 'नहीं बंधु !
जा रहा हूं गवारू गांव
आज दूसरी बार जहां
अपने ही सौतेले से ब्याही
जा रही है भगजोगनी '
पुरवैया बयार डाक रहा था सांय - सांय
जिसे चीरते हुए बढ़े जा रहे थे वे
अगली बार जब मुझे दिखे
गहरी नींद में
तो गांव की गलियों में
फैली हुई सन्नाटे की धुंध को
बुहारते दिख रहे थे शिवपूजन!
{2}
बूढ़े पाकड़ की तरह खोंखड़ हो गए हैं देहात
दीमकों ने कमजोर कर दिया है उसकी जड़ों को बाजारों अंधड़ से झड़ रहे हैं उसके फूल पत्ते
नए टूस्सों की कोमलता सहेज नहीं पायी है आज के भोलानाथ की सहजता को
बचपन में भी वह खेल नहीं पाता बच्चों वाले खेल पाठशाला की घंटियां लुभा नहीं पाती उस नदी के कछार पर भैंसों के साथ जाता है रोज
सुनता थिरकता हुआ
मोबाइल पर निरहुआ के भद्दे गीत
सहरपुरवा ही नहीं, तेजी से बदल रहा देहात
अचंभित है अपनी दशा पर
अशिक्षा -दरिद्रता - अंधेरेपन की पांक में
अभी फंसे हुए हैं उसके पास पांव
शहरों के जैविक उपनिवेश बने गांव
घिर गए हैं वैश्वीकरण की गाजर घासों से
पूंजी व ताकत के नए शिकारियों की जाल में
छटपटाती तड़प रही है देहाती दुनिया
नए अवतार में बिखेर दिए हैं
पुरुखों के संगोरे सपनें
बदल दिए हैं सत- असत को आंकने के पैमाने
समय के इस पड़ाव पर
कहां ठिठक गई है देहाती दुनिया
कहिए शिवपूजन जी
बचेंगे गांव अपने रूप में
कि कल तक बन जाएंगे
शहरों के भोज्य - आहार !
मुलाकात
वह मिला मुझसे
जैसे पेड़ों से टूटे पत्ते
मिलते हैं खेतों की जोत में
भोर में खुलती पंखुड़ियां
भींग जाती हैं ओस- बूंदों से
बारिश की बौछारों से
मिट्टी में मिलते हैं सूख चुके ढेले
बाढ़ से बौराई दो नदियां
आपस में गूंथ जाती हैं मुहाने पर!
कुलधरा के बीच मेरा घर
जब भी चढ़ता हूं बांस की सीढ़ियों के सहारे छत पर मेरा घर दिखता है पुराने खंडहरों से घिरा हुआ
किसी के दीवारों की इट्टें खिसक रही हैं
तो किन्ही के घर भंसकर मिल गए हैं परती में
उनके आंगन, छत और छज्जे
भर गए हैं घास लताओं से
जहरीले कीड़ों ने उन बेचिरागी घरों में
बना लिया है रैन बसेरा
उनमें उग आए हैं वृक्ष और झाड़ियां
मिट्टी में मिल गए घरों के ऊपर छा गए हैं रेंड
ढलाऊ जमीन पर लहराते उन्हें देखकर
तुम्हें याद आ जाएंगे विराने के जंगल
उधर के पेड़ों की शाखाएं छूने लगी हैं मेरे घर का कोना
उसकी कटीली झाड़ियों से उलझने लगे हैं अलगनी पर के टंगे कपड़े
उनके घरों से आती है सड़न की बू
उनके घरों के सीलन से झड़ते हैं मेरे घर के प्लास्टर रात में उड़ते चमगादड़ के झुंड डरावने करते हुए आवाज
कभी आबाद हुआ करते थे वह खंडहर
उनके चूल्हे के धुएं छेंक लेते थे आकाश
बर्तनों की खड़खड़ाहट से झनकता था संगीत
उनके छतों पर आधी रात तक जमते थे नौवहों के ताश - पत्ते
मुंहअंधेरे कार्तिक के महीने में बड़ी होती लड़कियां गाती थीं पीडिया के गीत
उनके पशुओं के गले में बंधी घंटियां टुनटुनाती थीं पूरी रात
कुलधरा की तरह
शाप के भय से नहीं, कुछ पेशे बस कुछ शौक से छोड़ दिए घर -गांव
खो गए दूर - सुदूर शहरों के कंक्रीटो के जंगल में
छूटे घर गोसाले मिलते गए मिट्टी की ढेर में
पुरखों के संचित खेतों की आय से बनती गईं उनकी शहरी संरचनाएं
उन वंशवृक्षों की टहनियां फूल पत्ते लहराते गए महानगरों के सीमांतों में
वे जब भी कभी भूले भटके चले आते हैं देखने आदि मानव संग्रहालय
अपरिचित -सी हो जाती है गांव की गलियां
अब जुड़ नहीं पाते नदी - नाले - खेतों से वे अपने रिश्ते
कभी उनके श्रम की थकान से चूवे पसीना से भी नहीं भींगी धरती
उनकी आंखों से छलकते नहीं खंडहर होते घरों को देखकर पानी
कुलधरा बन चुके गांवों में
वीरान खंडहरों के बीच बसा है मेरा घर
जैसे बहाव के विरुद्ध उभरा डीला
वेगवती नदी की तेज लहरों से जूझता हुआ
अविचल - अडिग - बेखौफ !
सेंटिनिलिस से छीन नहीं सकते मौलिकता
तमाम भौगोलिक खोजों, सभ्यता की अनगिन ऊंचाइयां छूने के बावजूद
तुम्हारे लिए अनजानी,अनदेखी की रह गई हमारी दुनिया
कोई कोलंबस, वास्कोडिगामा ,मार्कोपोलो
हमें बना नहीं पाया अपना गुलाम
न खरीद पाया हमारी मौलिकता, हमारी जैविकता
तुम्हारे सभ्य समाज की नजरों में खटकता
गूलर का फूल बना सेंटिनिलिस हूं मैं
साठ हजार सालों से नीग्रोवंशी बसे हुए बंगाल की खाड़ी के साठ वर्ग किलोमीटर फैले एकल द्वीप में जिसे तुम कहते हो अपनी भाषा में आदमखोर- खूंखार
आत्मरक्षा में उठाए धनुष- बाण
संधान करते तीरों से दुश्मनों की
अपनी अनबिकी दुनिया के सजग पहरेदार हैं हम
भले ही हमें न आती हो खेती करने की कला
पशुओं को पालने के तरीके
न ही आग पैदा करने के गुण
तो भी हम मस्त रहते हैं अपनी आत्म निर्भरता से खाते हुए फल, कंदमूल ,चूसते हुए शहद
सूअर ,कछुआ, मछलियां मारकर कच्चे चबाते हुए हमारी जीभ के स्वाद से वंचित है तुम्हारे उत्पादित नमक ,शक्कर ,तेल - मसले
हम बनाते हैं तीर, भाला ,टोकरियां ,झोपड़ियां
हमें किसी राजा -रानी की प्रथा नहीं
हमने सीखा है हुनरमंदी को देना सम्मान
जैसे विशाल उठती लहरें करती हैं समुद्र को सलाम शिखर से उतरते झरने झर -झर करते हुए पर्वतों को करते हैं अलविदा
वैसे ही मृत व्यक्ति की झोपड़ी को त्याग कर
हम करते हैं अपने पुरखों को सादर नमन
तुम जनगणना करके क्यों गिनना चाहते हो हमारी तादाद, कोई जान एलिन चाउ
हमें क्यों कहता है _"शैतान का आखिरी गढ़ "
क्यों पढ़ाना चाहता है हमें ईसाईयत के पाठ
हम नंगे आदिम लक्षणों वाले दुनिया के दुर्लभ प्राणी दुनिया हमें किस लिए बनाना चाहती है
पूंजीवादी बाजार का अंग
तुम क्यों छीनना चाहते हो हमारी स्वतंत्रता
संसद, कानून ,न्यायपालिका के अपने ढोंग को क्यों थोपना चाहते हो हमारी परंपरागत जीवन शैली पर
मालूम है मुझे जारवा जनजाति की तरह
हमें भी बनाना चाहते हो उपहास के पात्र
निकोबारियों की तरह मनोरंजन के साधन
चरियार, कारो, ताबो, जुआरी समुदायों की तरह
हमें भी कर देना चाहते हो लुप्त प्राय
अपने सुग्गापोस बीमारियों को हमारे द्वीप में प्रसार कर हमारी वंश वृक्षों को जड़ों समेत उखाड़ फेंकना चाहते हो सागर के तलातल में
हम समुद्र के जीव
बहुत ही होते हैं कठ करेजी
हमारी भाषा में मृदुलता के साथ फूटती हैं बेचैनियां बचाने के लिए द्वीप की हरीतिमा
दिकुओं को खदेड़ने के लिए हथियार
सुनामी की उत्ताल तरंगे भी छू नहीं सकती हमें।
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