_लक्ष्मीकांत मुकुल
1.
तुम धनहर खेत की तरह हो मां
जिसे जोतते - कोड़ते उपजते हैं हम अनाज
जीवन भर की भूख मिटाने के लिए
तुम नदी सरीखी हो मां
जिससे बुझाता रहा
सूख रहे कंठ में प्राण
तुम बारिश जैसी हो मां
जेठ की तीखी तपन में
दहकते मेरे तन - मन को
हरसाने आ जाती हो
आषाढ़ की टप - टप बूंदों से
तुम सांझ के ढिबरी की लौ हो मां
जो बाती की तरफ तिलतिल कर जलती हुई
भरती रहती हो मेरे अंतर्तम में उजास
तुम रात की चांदनी हो मां
जिसकी भीनी किरणें दिखाती हैं मुझे
घुप्प अंधेरे में भी बच निकलने की राहें !
2.
चूल्हे के घुएं के बीच
अदहन में भात सींझाती हुई
तुलसी चौराहा के पास दीप चलाती हुई
दरवाजे पर खड़ी
खेत - खलिहान से मेरे आने की बाट जोहती
दूर रिश्तेदारी से मेरे कई दिनों से न लौटने
नहीं कोई संदेशा पाने से
डभडभाई आंखों से सगुन का टोटम करती हुई
कई तस्वीरें हैं मां की मेरे जेहन में
जिसे सजा कर रखा हूं अपने दिल में
अनोखे एल्बम की तरफ।
3.
कभी नहीं गया देखने
संथाल परगना के आमड़ापड़ा के उस स्कूल को
जिसमें अपने बचपन में पढ़ा करती थी मेरी मां
बासलोई नदी का किनारा
उस पर अंग्रेजों के जमाने का पुल
जंगल विभाग का डाक बंगला
सहपाठी आदिवासी बच्चे
गुम्मा पहाड़ की वो शैक्षिक यात्रा
पहाड़ी जनजाति की आदिम घरों के नजारे
साप्ताहिक हाट में अपने मां बाप के साथ
लकड़ियों के बोझ लादे संथाली बच्चे
कितना कुछ अब भी
याद करती है मां बड़ी शिद्दत से
सुनाती है अपने समय की भूली - बिसरी यादें
किन्ही दंतकथाओं - सी
उसके स्मृतियों की धार में
बारंबार पतवार थामे खेता हूं अपनी नाव
उसके बचपन की उमगती हुई बलखाती नदी में।
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