Wednesday, 12 September 2018

लक्ष्मीकांत मुकुल का गीत

आओ चलें परियों के गाँव में ,
नदिया पर पेड़ों की छाँव में.
सूखी ही पनघट की आस है
मन में दहकता पलास है
बेड़ी भी कांपती औ’ ज़िन्दगी 
सिमटी लग रही आज पांव में .


अनबोले जंगल बबूल के 
अरहर के खेतों में भूल के 
खोजें हम चित्रा की पुरवाई 
बरखा को ढूँढते अलाव में .


बगिया में कोयल का कूकना 
आँगन में रचती है अल्पना 
झुटपुटे में डूबता सीवान वो 
रिश्ते अब जलते अब आंव में .


डोल रही बांसों की पत्तियां 
आँखों में उड़ती हैं तीलियाँ 
लोग बाग़ गूंगे हो गए आज
टूटते रहे हैं बिखराव में .


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