झींगा मछली की पीठ पर
तैरती नदी में
नहा रहे थे कुछ लोग
कुछ लोग जा रहे थे
काटने गेहूं की बालियां
पेड़ों की ओट में
अपना सिर खुजलाते
देख रहे थे तमाशा
कुछ लोग
सूरज के उगने
दिन चढ़ने
और झुरमुटों में दुबकने की घड़ी
कंघों पर लादे उम्मीदों का आसमान
पूरा गांव ही तन आया था
उनके भीतर
जो खोज रहे होते थे
कोचानो का रोज बदलता हेलान
क्षितिज की तरफ वह
आवाज भर रहा है अंध
आंखों से दीख नहीं रहा उसे कुछ भीद्ध
कुछ लोग चले जा रहे थे तेज कदम
जिध्र लिपटते धुंध् से
उबिया रहा था उसके
नदी पार का गांव।
Thursday, 13 September 2018
लक्ष्मीकांत मुकुल की नदी पर कविता
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