Thursday 13 September 2018

लक्ष्मीकांत मुकुल का बारहमासा

बारहमासा



सावन भादों के रिमझिम फुहारों के बीच 
कुदाल लेकर जाऊँगा खेत पर 
तुम आओगी कलेवा के साथ 
चमकती बिजली , गरजते बादलों के बीच 
तुम गाओगी रोपनी के अविरल गीत 
बिचड़े डालते मोर सरीखे थिरकेगा मन


खडरिच – सा फुदकेंगे कुआर – कार्तिक में 
कास के उजले फूलों के बिच 
सोता की धार - सी रिसती रहेगी तुम 
गम्हार वृक्ष – सा जडें सींचता रहूँगा कगार पर


धान काटते , खलिहान में ओसाते 
अगहन – पूस के दिनों में बहेगी ठंढी बयार 
तुम सुलगाओगी अंगीठी भर आग 
चाहत की तपन से खिल उठेगा मेरी देह का रोंवा


माघ – फागुन के झड़ते पत्तों के बीच 
तुम दिखोगी तीसी के फूल जैसी
छाएगी आम के बौराए मंज़र की महक
तुमसे मिलने को छान मारूंगा  
चना – मटर – अरहर से भरी बधार


चैत्र – बैसाख में चलेगी पूर्वी – पश्चिमी हवाएं 
गेहूं काटने जायेंगे हम सीवान में
लहराओगी रंग – बिरंगी साड़ी का आँचल 
बोझा उठाये उडता रहूँगा
सपनों की मादक उड़ान में


तेज़ चलती लू में बाज़ार से लौटते हुए 
जेठ – आसाढ़ के समय 
सुस्तायेंगे पीपल की घनी छाँव में 
पुरखे तपन में ठंढक देते हैं वृक्षों का रूप धर 
हम बांटेंगे यादें अपने बचपन की 
तुम कहोगी हिरनी – बिरनी के साहसिक किस्से  
खडखडाउंगा कष्टप्रद दिनों से जूझने की 
शिरीषं फलियों की अपनी खंजड़ी .


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