इतिहास का गढ़
पहले पहल बगीचे में जाते हुए
पहली ही बार हमें दिखा था
मूंजों से ढंका
रेड़ों से जाने कब का लदा
खेतबारी के पास यूँ ही खड़ा पड़ा
हमें मिला था पहली ही बार
मैरवां का गढ़
मगर ये गढ़ है क्या
ऊँचे टीले की आकृति लिए
सबका ध्यान क्यों खींचता है अपनी ओर
आखिर क्यों आधी रात गए
गढ़ में हुए धमाके से
हिलने लगता है सारा गाँव
बंसवार से निकलते हैं शब्द
पेड़ों से निकलती है कहानियाँ
कहानियों से बनती हैं पहेलियाँ
जिन पहेलियों को बुझाते हैं लोग
कि कब बना होगा यह गढ़
पगडंडियों से गुजरता आदमी
पहुंचता है जब नदी के पास
तो उसे बबूल की
कांटेदार झाड़ियों के बीच से ही
कांपता दीखता है गढ़
तुम्हें सच नहीं लगता
कि बस्ती के लोग
जब दोपहरी में करते हैं आराम
तो पछुआ बयार से तवंका हुआ
सूखे झंखाड़ – सा भयावह दिखता है यह गढ़
कितने लगे होंगे मिटटी के लौंदे
पत्थर कितने लगे होंगे
उस गढ़ को बनाने में कितने लगे होंगे हाथ
तुम भी देखोगे उसे एक बार
शायद कहीं दिख जाए उनकी परछाइयाँ
कितने अचरज की खान है गढ़
इस बस्ती के लिए सबसे बड़ा अचरज
कि हर के होश संभालने के पूर्व से ही
हर किसी के अन्दर
कछुए – सा दुबका पैठा है यह गढ़ .
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