Thursday 13 September 2018

लक्ष्मीकांत मुकुल की इतिहास परक कविता


इतिहास  का गढ़



पहले पहल बगीचे में जाते हुए 
पहली ही बार हमें दिखा था 
मूंजों से ढंका 
रेड़ों से जाने कब का लदा
खेतबारी के पास यूँ ही खड़ा पड़ा 
हमें मिला था पहली ही बार 
मैरवां का गढ़


मगर ये गढ़ है क्या 
ऊँचे टीले की आकृति लिए 
सबका ध्यान क्यों खींचता है अपनी ओर
आखिर क्यों आधी रात गए 
गढ़ में हुए धमाके से 
हिलने लगता है सारा गाँव


बंसवार से निकलते हैं शब्द 
पेड़ों से निकलती है कहानियाँ 
कहानियों से बनती हैं पहेलियाँ 
जिन पहेलियों को बुझाते हैं लोग 
कि कब बना होगा यह गढ़ 


पगडंडियों से गुजरता आदमी 
पहुंचता है जब नदी के पास 
तो उसे बबूल की 
कांटेदार झाड़ियों के बीच से ही 
कांपता दीखता है गढ़


तुम्हें सच नहीं लगता
कि बस्ती के लोग 
जब दोपहरी में करते हैं आराम 
तो पछुआ बयार से तवंका हुआ 
सूखे झंखाड़ – सा भयावह दिखता है यह गढ़


कितने लगे होंगे मिटटी के लौंदे
पत्थर कितने लगे होंगे 
उस गढ़ को बनाने में कितने लगे होंगे हाथ 
तुम भी देखोगे उसे एक बार 
शायद कहीं दिख जाए उनकी परछाइयाँ


कितने अचरज की खान है गढ़ 
इस बस्ती के लिए सबसे बड़ा अचरज 
कि हर के होश संभालने के पूर्व से ही 
हर किसी के अन्दर 
कछुए – सा दुबका पैठा है यह गढ़ .


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