Wednesday 12 September 2018

लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताओं में मौन प्रतिरोध है- कुमार नयन





 

लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताओं में मौन प्रतिरोध है – कुमार नयन

 



 

 

 





आधुनिकता की अंधी दौड़ में अपनी मिट्टी, भाषा, बोली, त्वरा, अस्मिता, ग्राम्यता, को बचाए रखना बहुत कठिन है, खासकर कविता में जहाँ रोज-ब-रोज शब्द अपना अर्थ खोते जा रहे हैं. ऐसे में कोई कविता या संग्रह अपनी जड़ों को तलाश करते हुए मानवीय संवेदना को स्पर्श करे, तो निश्चय ही मन की व्याकुलता और चिन्ता को एक

आलंबन मिलता है. युवा कवि लक्षमीकांत मुकुल का हाल में ही प्रकाशित काव्य संग्रह ‘लाल चोंच वाले पंछी’ की अधिकांश कवितायें इस अर्थ में पाठकों को काफी सुकून दे जाती हैं. पुष्पांजलि प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित इस संग्रह में कुल 59 कवितायें हैं, जो स्मृतियों के झरोखे से मानवीय मूल्यों की प्रतीति कराने में सचेष्ट दिखती हैं. कविताओं में अतीत के प्रति व्यामोह है, जो छूट गया, वह कितना जरूरी और मूल्यवान था, इसका एहसास बड़ी सिद्दत से इन कविताएँ में किया जा सकता है. आज के इस क्रूर समय में जहाँ रिश्तों पर बाज़ार का प्रभाव छाने लगा है, कवि एक पहाड़ी गाँव में प्रेम में पगे कोहबर की पेंटिंग को देखकर आशान्वित हो उठता है कि पृथ्वी के जीवित रहने की संभावनाएँ अभी भी जीवित है.

लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताओं में संवेदना का ज्वार है, तो मानवीय मूल्यों के टूटने की पीड़ा भी. सभ्यता के विकास के नाम पर जो शहरीकरण और बाजारीकरण हो रहा है, उसमें गाँव – जवार के तमाम प्राकृतिक अवयव और संसाधन हमसे दूर होते जा रहे हैं और तमाम सुविधाओं के बीच जीवन दूभर होता जा रहा है. आधुनिकता का अँधा दौर हमारी संवेदना को लीलता जा रहा है. हम न स्वयं को, न अपनों को, न अपने गाँव को, न छवर (पतला रास्ता) को पहचान पा रहे हैं – ‘बदलते युग की इस दहलीज पर / मानचित्र के किस कोने में बसा है तुम्हारा गाँव / किन सडकों से पहुंचा जा सकता है उस तक?’ (बदलते युग की दहलीज पर). कवि आधुनिकता की दौड़ में हो रहे बदलाव में विघटन देख रहा है. ‘गाँव तक / सड़क आ गयी / गाँव वाले / शहर चले गये’ संग्रह की इस छोटी कविता में त्रासदी भी है, पीड़ा भी. संग्रह की शीर्षक कविता ‘लाल चोंच वाले पंछी’ बहुत सहज और सरलता से यह एहसास करा जाती है कि जहाँ भी श्रम है, प्रकृति है, बदलाव है, सौंदर्य है, वहां लाल रंग है. कवि ने इस कविता द्वारा तथाकथित रूढ़ी को तोड़ने की कोशिश की है कि लाल रंग कोई हिंसा या खूनी क्रांति का प्रतीक है. लाल रंग तो प्रकृति, प्रगति और सकारात्मक परिवर्तन का द्योतक है.

लक्ष्मीकांत मुकुल की इन कविताओं पर आरोप है कि वे पूरी तरह से नोस्टाल्जिक हैं. कवि किसी भी तरह की आधुनिकता या कोई नयापन से गुरेज करता हुआ दिखाई देता है, परन्तु इसके बावजूद कविताओं में एक अनुपस्थित या परोक्ष प्रतिरोध का स्वर है. जो पूरी तरह मौन होकर भी वैश्विक पूंजीकरण और उत्तर आधुनिकता के समक्ष तन कर चीख रहा है.

बहुत ही शालीनता और सूक्ष्मता से कवि ‘चिड़ीमार’ कविता में आम लोगों को आगाह करता है – ‘वे आयेंगे तो बुहार ले जायेंगे हमारी खुशियाँ, हमारे ख्वाब, हमारी नींदें, वे आयेंगे तो सहम जायेगा नीम का पेड़, वे आयेंगे तो भागने लगेंगी गिलहरियाँ.’ कविताओं में व्यवस्था के प्रति मौन विरोध है, किन्तु कहीं-कहीं संयमित आक्रोश भी मुखर हुआ है, ‘इधर मत आना वसंत’ में कवि का आक्रोश प्राथमिकी दर्ज कराता हुआ चीख पड़ता है – ‘दूर – दूर तक फैली हैं / चीत्कारों के बीच चांचरों की चरचराहटें / फूस – थूनी – बल्लों से ढंकी दीवालों पर / पसर रही है रणवीर सेना की सैतानी हरकतें.’ कवि मन इस क्रूर व्यवस्था से इतना व्यथित है कि वह इस दुनिया से ही पलायन करने को संकल्पित हो उठता है. ‘आत्मकथ्य’ कविता में ब्यक्त इन भावात्मक विचारों को पढ़कर पाठक यह समझ सकते हैं कि कवि क्रूरता, अन्याय, कुव्यवस्था से लड़ने के बजाय कायरतापूर्वक पलायन को तरजीह देता है, जो कवि प्रकृति के सर्वथा प्रतिकूल है. परन्तु विचारणीय है कि जब मानवीय मूल्यों पर घोर संकट छाया हुआ हो और आम आदमी नियतिवाद के दुष्चक्र में फँसा हुआ नैराश्य और अवसादग्रस्त हो तो कवि की अभिव्यक्ति का विचलित हो जाना स्वाभाविक है. यहाँ कवि अवसादग्रस्त पीड़ित व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करता हुआ यह निर्णय लेने को विवश दिखता है – ‘देखोगे / किसी शाम के झुरपुटे में / चल दूंगा उस शहर की ओर / जिसे कोई नहीं जानता ......  लोग खोज नहीं पायेंगे / कहीं भी मेरा अड़ान...... परिकथाओं से मांग लाऊंगा वायु वेग का घोड़ा / और चल दूंगा उस अदृश्य शहर की ओर.’ ऐसा नहीं है कि लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताओं में सिर्फ अतीत प्रेम और निराशात्मक बिम्ब हैं. इसमें भविष्य भी है और ‘अंखुवाती उम्मीद’ भी–

‘काश ! ऐसा हो पाता / पिता लौट आते खुशहाल / माँ की आँखों में पसर जाती / पकवान की सोंधी गंध / मेरी अंखुवाती उम्मीदों को मिल जाते / अँधेरे में भी टिमटिमाते तारे.’

दरअसल कवि की चिन्ता मानवीय रिश्तों की मिठास और प्रगाढ़ता बचाए रखने की है, जो सिर्फ और सिर्फ उन तमाम चीजों और क्रिया – कलापों को संजोकर रखने से ही संभव है, जो हमारे लिए बेहद आत्मीय प्राणदायी है, इसलिए – ‘महुआ बीनती हुई / हज़ार चिंताओं के बीच / नकिया रही है वह गंवार लड़की / कि गौना के बाद / कितनी मुश्किल से भूल पाएगी / बरसात के नाले में / झुक – झुककर बहते हुए / नाव की तरह / अपने बचपन का गाँव.’ उम्मीद जगाती कविता ‘उगो सूरज’ में कवि अपने मन की इच्छाएँ बेलौस होकर ब्यक्त करता है – ‘सूरज ऐसे उगो ! / छूट जाए पिता का सिकमी खेत / निपट जाए भाइयों का झगड़ा / बच जाए बारिश में डूबता हुआ घर / माँ की उदास आँखों में / छलक पड़े खुशियों के आंसू.’ कुछ ऐसे ही भाव ‘गाँव बचाना’ में भी उभर कर आये हैं.

कवि अपने गाँव और गाँव से जुड़ी सभी चीजों को, सात पुश्तों से चली आ रही इंसानी परंपरा की बुनियाद पर टिकी संस्कृति को बचाये रखने की गुहार लगाता है.

संग्रह की सबसे लम्बी कविता ‘कोचानो नदी’ जिसके किनारे कवि का गाँव ही नहीं हजारों गाँव बसते हैं, जो जन – जन के लिए ही नहीं, पेड़ – पौधों, पशु – पंछियों के लिए भी जीवनदायिनी है, वह संकटग्रस्त है. कवि को डर है कि नदियों और पर्वतों का सौदा करने वाली यह ब्यवस्था – ‘कहीं रातों – रात पाट न दे कोई / मेरे बीच गाँव में बहती हुई नदी को / लम्बे – चौड़े नालों में बंद करके / बिखेर दे ऊपरी सतह पर / भुरभुरी मिट्टी की परतें / जिस पर उग आये / बबूल की घनी झाड़ियाँ / नरकटों की सघन गांछें.’ संग्रह की अनेक कवितायें उल्लेखनीय हैं, जिसमें कवि की स्मृतियों का भावुक प्रलाप विविध प्रतीकों व बिम्बों में झलकता है, वस्तुतः ये कवितायें समय के दबाव को झेलती हुई मनुष्यता की कराह है, जो यथास्थिति एवं जड़ होती जा रही व्यवस्था के विरुद्ध प्रतिरोध रचती हैं. बेहद आंचलिक या देशज , ठेठी बोली के शब्दों के प्रयोग ने इसे लोकभाषाई ताना – बाना से पूरी तरह सराबोर कर दिया है. कहीं – कहीं ठेठ गंवई शब्दों के व्यामोह में अभिव्यक्ति कि स्पष्टता बाधित हुई सी लगती है. कवि को इसमें सावधानी बरतने की आवश्यकता है.

फिर भी सीधे सपाट बिम्बों और प्रतीकों में अभिव्यक्त लोक चेतना से आप्लावित ये कवितायें सफल और सार्थक वितान रचती हैं. सर्वत्र कवि का शिल्प वैशिष्ट्य और निजपन पाठकों को सुखद स्मृतियों के सहारे मानवीय संवेदना की अनुभूति प्रदान करते हैं. कहना चाहिए कि समकालीन आंचलिक कवियों के बीच लक्ष्मीकांत मुकुल अपनी कविताओं के खुरदरे रचाव और अपनी अल्हड अभिव्यक्ति में अलग और अभिनव हैं.

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