Thursday 13 September 2018

लक्ष्मीकांत मुकुल की रेल पर कविता

🏝छोटी लाइन की छुक-छुक गाड़ी / लक्ष्मीकांत मुकुल🏝


बचपन में एक्का पर जाते हुए ननिहाल 
मन ही मन दुहराते थे कि  अब आया मामा का गाँव 
रास्ते में दिखती थीं छोटी लाइन की पटरियां 
बताती थीं माँ – ‘तेरे मामा इसी छुक – छुक गाडी में आते थे पटना से’


अब नहीं चलती वह छुक – छुक गाड़ी 
बस घुमती है माँ की यादों में लगातार 
नहीं आये मामा बरसों से पटना से, न आयीं उनकी चिट्ठियां......!
आरा – सासाराम नैरो गेज की लाईट रेलवे 
चलती हुई किन्हीं सपनों से कम नहीं थीं उन दिनों 
कोयला खाती, पानी पीती ,धुंआ उगलती 
खेतों के पास से गुजरती भोंपू बजती हुई 
उसकी रफ्तार भी इतनी मोहक 
कि  चलती हालत में कूदकर कोई यात्री 
बेर तोड़कर खाता हुआ फिर चढ़ सकता था उस पर


देहाती लोगों के लिए छकडा गाड़ी थी वह
एक इंजन कुछ डब्बे साथ लिए 
दौड़ा करती थी जैसे धौरी - मैनी - सोकनी गायें 
जा रही हो घास चरने के लिए परती  पराठ में 
मुसाफिर ठुसकर, लटककर ,इंजन के ऊपर भी बैठ-पसर 
टिकट-बेटिकट पूरा करते थे सफ़र ,पहुँचते ठिकाना 
अपाहिजों,गिरते यात्रियों को थाम लेने को उठते थे कई हाथ
सामने वालों के दुखों को बाँट लेने की ललक होती थी उनमे 
दिखता था जलकुम्भी  के खिले फूलों की तरह सबके चहरे


नोखा के पिछवाड़े में उन दिनों मुझे दिखा था मार्टिन रेलवे का डिब्बा 
गंदे पोखर में नहाये नंगे – धडंग बच्चे जिसमें 
खेला करते थे छुपा – छुप्पी , चिक्का – बीत्ति के खेल


नैहर जाती हुई नयी दुल्हनों के मन में थिरकती थी छुक – छुक गाड़ी 
बूढों के लिए सहारे की लाठी 
तो नौजवानों का खास याराना था उससे 
यात्री लोककवि को बेवफा महबूबा की तरह लगी थी छुक-छुक गाड़ी 
बाँधा था कविता के तंतुओं में जिसने –
           ‘आरा से अररा के चललू , उदवंतनगर उतरानी 
            कसाप में आके कसमस कईलु , गडहनी में पियलू पानी 
            हो छोटी लाइन चल चलेलु मस्तानी .’
बुलेट ट्रेन के चर्चा के ज़माने में
अब कही नहीं नज़र आतीं उसकी पटरियां 
पुराने डिब्बे ,गार्ड की झंडियाँ 
राह चलते बुजुर्ग उँगलियों से बताते है 
उसके गुजरने के मार्ग 
जिसकी शादी में पूरी बारात गयी थी ट्रेन से


यादों को टटोलते है वे की रेल-यात्रा में 
किस कदर अपना हो जाते थे अपरिचित चहरे 
निश्छल ,निःस्वार्थ जिनसे बांध जाते थे लीग भावना की बवंर में 
अँधेरे में उतरा अनचीन्हा ,अनजाना किओ यात्री
बन जाता था किसी भी दरवाजे का मेहमान 
स्मृतियों को सहेजते लोग अचानक जुड़ जाते थे 
घर – परिवार – गाँव के भूले बिसरे संबंधों के धागे में 
गुड की पाग व कुँओं के मीठे जल सा तृप्त हो जाता यह सहयोगियों का साथ 
मोथा की जड़ों की तरह गहरी हो जाती थी उसकी दोस्ती


भलुआही मोड़ की फुलेसरी देवी के मन में बसी है छोटी लाइन 
वह बालविवाहिता दहेज़ दानवों से उत्पीड़ित खूंटा तोड़कर भागी थी घर से 
इसी रेलगाड़ी पर किसी ने दी थी उसे पनाह 
जोगी बन गए रमेसर के बेटे को खोजने में 
दिन रात एक कर दिए थे छोटी लाइन के यात्री 
जैसे हेरते है बच्चे भूसे की ढेर में खोयी हुई सुई


अब शायद ही याद करता है कोई छोटी लाइन के ज़माने को 
स्मार्टफोन में उलझी कॉलेज की लड़कियों की 
खिलखिलाहट में उड़ाते है छोटी लाइन के किस्से
गाँव के बच्चे खुले में शौच करने जाते है उसके रास्ते में


भैसों के चरवाहे बरखा – धूप में छिपाने आते थे
घोसियाँ कलां की छोटी लाइन की कोठरी में
संझौली टिकट – घर में चलता है अब थाना
कही वीरान में पड़ा एक शिवमंदिर  
जिसे बनवाया था छोटी लाइन के अधेड़ स्टेशन मास्टर ने 
लम्बी प्रतीक्षा के बाद 
उसके आँगन में गूंजी थी नन्हा की किलकारी 
टूट – फुटकर बिखर रहा है वो मजार 
जिसके अन्दर सोया है वह साहसी आदमी 
जो मारा गया था रेल लुटेरों से जूझते हुए


नयी बिछी बड़ी लाइन की पटरियों पर दौड़ रही है सुपरफास्ट ट्रेन 
सडकों पर सरक रही है तेज चल की सवारियां 
गावों से शहरों तक की भागम – भाग, अंधी थकन में भी 
अचानक मिल जाता है बरसों का बिछड़ा कोई परिचित 
भोला - भला , सीधा – साधा दुनियादारी के उलझनों से दूर 
सहसा याद आता है छोटी लाइन की छुक – छुक गाडी वाले दिन 
ममहर के रास्ते में फिर जाते हुए


धीमी रेलगाड़ी , धीमी चलती थी सबकी जीवनचर्या 
तब मिलते थे लोग हाथ मिलाते हुए , बल्कि 
गलबहियां करने को आतुर खास अंदाज में 
छा जाती थी रिश्ते नाते के उपस्थिति की महक


2 comments:

Unknown said...

शानदार बहुत ही शानदार..... सराहनीय

Unknown said...

Yah kavita samjha ko vistar deti hai, or apnna sarthak prabhaw chhodti hai.

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