Friday 14 September 2018

लक्ष्मीकांत मुकुल की सूचना के अधिकार पर कविता

सूचनाधिकार कानून / लक्ष्मीकान्त मुकुल






सत्तासीनों ने सौंपा है हमारे हिस्से में 
गेंद के आकर की रुइया मिठाई 
जो छूते ही मसल जाती है चुटकी में 
जिसे चखकर समझते हो तुम आज़ादी का मंत्र

यह लालीपाप तो नहीं 
या, स्वप्न सुंदरी को आलिंगन की अभिलाषा
या, रस्साकशी की आजमाईश
कि बच्चों की ललमुनिया चिरई का खेल 
या, बन्दर – मदारी वाला कशमकश 
जिसमें एक डमरू बजता है तो दूसरा नाच दिखाता
या, सत्ता को संकरे आकाश-फांकों से निरखने वाले 
निर्जन के सीमांत गझिन वृक्षवासियों की जिद 
या कि, नदी - पारतट के सांध्य – रोमांच की चुहल पाने 
निविडमुखी खगझुंडों की नभोधूम 

सूचनाधिकार भारतीय संसद द्वारा 
फेंका गया महाजाल है क्या ?
जिसके बीच खलबलाते हैं माछ, शंख, सितुहे
जिसमें मछलियाँ पूछती हैं मगरमच्छों से 
कि वे कब तक बची रह सकती हैं अथाह सागर में
जलीय जीव अपील-दर-अपील करते हैं शार्क से 
उसके प्रलयंकारी प्रकोप से सुरक्षित रहने के तरीके 
छटपटाहट में जानने को बेचैन सूचना प्रहरी 
छान मारते हैं सागर की अतल गहराई को
हाथों में थामे हुए कंकड़, पत्थर, शैवाल की सूचनाएं 

एक चोर कैसे बता सकता है सेंधमारी के भेद 
हत्यारा कैसे दे सकता है सूचना 
जैसा कि रघुवीर सहाय की कविता में है - ‘आज 
खुलेआम रामदास की हत्या होगी और तमाशा देखेंगे लोग ‘
मुक्तिबोध जैसा साफ़ – स्पष्ट 
कैसे सूचित करेगा लोक सूचना पदाधिकारी 
जैसा कि उनकी कविता में वर्णित है कि
अँधेरे में आती बैंड पार्टी में औरों के साथ 
शहर का कुख्यात डोमा उश्ताद भी शामिल था 
एक अफसर फाइल नोटिंग में कैसे दर्ज करेगा 
टाप टू बटम लूटखसोट का ब्यौरा 
कि विष-वृक्षों की कैसी होती हैं
जडें, तनें, टहनियाँ और पत्तियां?

बेसुरा संतूर बन गया है सूचना क़ानून 
बजाने वाला बाज़ नहीं आता इसे बजाने से 
यह बिगडंत बाजा, बजने का नाम नहीं ले रहा 
आज़ाद भारत के आठ दशक बाद 
शायद ही इसे बजाने का कोई मायने बचा हो 
गोरख पाण्डेय की कविता में कहा जाए तो _

" ये आंखें हैं तुम्हारी

 तकलीफ का उड़ता हुआ समंदर

 इस दुनिया को

 जितनी जल्दी हो

 बदल देना चाहिए ।"





3 comments:

Unknown said...

यह कविता सत्ता की चाल को रेखांकित करती है सत्ताधारियों ने सूचनाधिकार के नाम से आम जन को एक झुनझुना पकड़ा ददिया है ताकि सभी उसी झुनझुने की आवाज में फँसे रहें और वे अपना काम बेरोक टटोक करते रहें ।

Unknown said...

सुरेश कांटक , कांट ,ब्रह्मपुर, बक्सर 802112 बिहार

Unknown said...

हत्यारे से यह पूचना कि बताओ तू नने हत
या की है ? चोरों से चोरी की घटना के बारे में पूछना और लूटेरे से लूट की सच्चाई जानने की उम्मीद करना हास
यास्पद नहीं तो और क्या है ? यही तो है सूचना का अधिकार ! जिसे मुकुल की कविता खूब अच्छी तरह बेनकाब करती है
-----सुरेश कांटक