Monday 10 August 2020

लक्ष्मीकांत मुकुल का राम - काव्य

सबके अपने-अपने राम
                                   _लक्ष्मीकांत मुकुल




मेरे राम कि तेरे राम , सबके अपने-अपने हैं राम।


राम अवध में मिथिला में भी दिखे कभी मुनि आश्रम में 

समय धार तीखी है होती ,घर से वन को निकले राम।


राम केवट के राम सिया के अहिल्या को हक दिलवाए 

बूढ़ी शबरी के जूठे बेरों से,  लोक संवाद बढ़ाये राम।


विश्व सुंदरी सम्राट अग्रजा शूर्पणखा का प्रणय निवेदन 

परस्त्री संग केलि क्रीड़ा को, घातक कर्म बताये राम।


मित्रता क्या है कौन मित्र ,कैसे निभाएगा  मित्र -संबंध 
किष्किंधा का राज दिलाकर ,सुख -वर्षा करवाए राम।


प्यार की बातें खूब होती हैं, प्रेम के सच को जाने बगैर
प्रिया - न्याय हेतु सेतु बंधन ,लंका ध्वस्त कराये राम।


लोकतंत्र में भी रामराज का सपना पूरा हो सकता है
ताकत पूंजी के तबके को ,श्रम की राह दिखला दें राम

बाल्मीकि के राम और थे, तुलसीदास के राम प्रभु जी
कबीरा की बानी में था बसता ,आत्मबोध राम का नाम


भठयुग में भी राम मिलेंगे, हनुमान सा  प्रिय बन जाओ
बनकर देखो सच्चे मानुष , सच का साथ निभाये राम


विविध समाजों के मिथक भरे हैं साहसिक गाथाओं से
मूसहर - डोम दावा करते हैं उनके दीना भदरी राम।


जब सत्ताएं रौंदी जन- गण को, या आया प्रकोप प्रलय 
 आकांक्षाएं ले कब तक बैठोगे, कि आएंगे- आएंगे राम



Sunday 12 July 2020

लक्ष्मीकांत मुकुल की कविता श्रृंखला ...."घिस रहा है धान का कटोरा"


घिस रहा है धान का कटोरा
                          _लक्ष्मीकांत मुकुल



1.

जिधर देखो उधर
 फैले हैं धान के खेत सद्य प्रसूता की तरह
गोभा की कोख से निकलकर चौराते
 कच्चे ,पके, अधपके बालियों के गुच्छे 
डुलते हुए नहरपार से आती
 नदी के किनारे से बहती
 पूर्वी पश्चिमी हवाओं के झोंकों से 
जैसे लहरा रहा हो विशाल समुद्र
 कभी होले - होले 
कभी लहरदार वेगों में 
हिलते - डुलते धान के बाल 
उसके डंठल, उसकी पत्तियां 
जिसके ऊपर थिरक रहे हैं
 जुठाराने की लालच में 
सुग्गों, गौरैयों के झुंड

खेतों के बीच से गुजरती है पगडंडियां
 सांवरे बालों के बीच उभरती मांग की तरह


2

देख - देख हुलस रहा है किसान का सुगना 
इतिहास की लंबी परंपरा का वाहक
सनातन काल से करते हुए खेती
 दादा -लकड़दादा के जमाने से ही नहीं
बल्कि ,उसके पूर्व से जब धरती पर 
पहली बार हुए थे धान परती में 
सुनता आया है वह दादी - नानी से कहानियां 
जब धान के कंसों में सीधे उपजते थे चावल 
 उस जमाने में जब धरती पर उगे अनाज को 
सोना से भी ज्यादा दिया जाता था महत्व 
जब हर दुधारू पशु बिना नागा 
भर देते थे दूध की बाल्टियां
 नदियों की धार में बहता था पीने वाला पानी 
 वृक्ष लताओं में सालों भर लदे रहते फूल - फल  
चरती हुई भेड़ बकरियां भी बरा देती थीं अन्नधारी पौधे
बदला जमाना बदलती गए लोग बाग 
स्वभाव ,चरित्र,  चाल - ढाल
वे खेतों में लटक रहे चावल के दाने को 
कच्चे चबा जाते जब या,  दूसरों के खेतों के 
चावल झाड़ देते लग्गी से 
मिट्टी दरारों में फंसे चावलों का सर्वनाश हो जाता 
लोग भूखे मरने लगते 
आखिरकार कुदरत ने खोज लिया 
अन्न को बचाने का उपाय 
चावल सुरक्षित करने का नायाब तरीका 
चावल के ऊपर लगा दी गई खोल नोकदार खोइला बच गया धान , धान का कटोरा ,
 कटोरी में एकत्र सुनहले धान 
उत्तेजित हवा में झूलते हुए
झूलाते हुए किसानों के तन - मन, हरसाते हुए प्राण


3.

गुनगुनाते हैं किसान खेतों के आर - पगार घूमते हुए 
"धनी हम करब बोअनिया तू कटनिया करिह ना"
धान से भरे हुए खेत जो पहले होते थे वन छिहुली  पीढ़ी दर पीढ़ी पसीना बहाकर 
उपजते रहे हैं यह प्राण रक्षक  अन्न के ढेर
धान की खेती के किस्से सुनते  आए हैं वे बचपन से कैसे की जाती थी हल बैलों से खेतों की जुताई 
उसके दादा की युग में
चास _दोखार , आंतर _ कियारी ,कोन कोडाई
 हल के फल चीरते थे लीख से लीख
मुरेना,साईं, पनखारवा,डवरा ,केना, करमी को ही नहीं
जोब, जोबड़ा , कंसो, मोथा, दूब जैसी 
जब्बर घासों से जकड़ी करइल मिट्टी को
जैसे चीरती है कंघी सिर के उलझे बालों को
जैसे कंठ की सप्त स्वरों की गूंज में
 बच जाती सांस लेने की फलक

करते हुए धान की खेतियां 
कठोर कगार की तरह दृढ़  है किसान
 अकाल - महामारी के दिनों में भी 
भीख मांगने नहीं गए कभी आन गांव 
कभी उनके गांव की डलिया नहीं उठी
 किसी और धनखर गांव की ओर 
धनसोई ,धनगाई ,धनभखरा , धवनी ,धनछुआं
 या , कहीं और..... भदेया बेंग की तरह  बछड़े वाली धेनु की भांति रंभाते, टर्राते हुए


4.



जब भी  घुमड़ती हैं घने बादलों के साथ 
आकाश में मानसूनी हवाएं 
धान के पौधे हिलकोरे लेते हैं खेतों में
हिलोरे लेता है किसानों की भीतर का जल 
साथ में मचलने को बारिश बूंदों के साथ

कहते सुनते  आए हैं बाबा दादा  के जमाने के 
खेती की पुरानी किस्से 
कि कैसे उस युग में छींटकर  
बोया जाता था ' बावग '  किस्म से धान के बीज 
करंगा ,करहनी , सहनदेईया , सेराह के बीहन
धरती की नमी से अंकुरित हो आते थे पंसारी, भुइंसीकर,रामदुलारी,राम करह्नी,
 सिरहंट के अनोखे बीज

बिन रोपे,बिन जोते खेतों में भी उपजने में माहिर
 जैसे संकटों में घिरे लोग बचा  ही लेते हैं जीने की जिजीविषा
बांस की फूटे कोंपड़ की तरह
 फूटती हैं नवजात उम्मीदें

रोपाई वाले धान की बीजों को बारिश चूते ही डालते थे किसान
 तेज धूप में पसीने जैसा खून सुखाते हुए
 पाही  - दर - पाही रोपते हुए
जलहोर,झेंगी, दुधकंडर ,बासमती,वैतरणी,
भंडनकावर, मालदेही,मटुनी ,रमजुआ, सिरीकेवल, कनकजीरा, डुला हरा , दोलंगी के बिचड़े
एक मेड़ से दूसरे मेड़ तक, जैसे चलता है सूरज सुबह से शाम पूरब से पश्चिम की लंबी पगडंडी पर

साठी के लाल, लौंगचूरा के काला रंगों के चावल का
मड़सटका  खाने के लिए खखुआए रहते बच्चे
कौर - कौर भात खाने के खेल में
ठीक, दोल्हा -पाती ,लुकाछिपी की तरह



5.

बदलता गया जमाना 
बदलते गए समय के रिवाज 
खेती के औजार, बैलों की जोड़ी
 हल - जुआठ , हेंगा,  ढेंका ,जांत , ओखल -मूसल सिमटते गए शुभ मुहूर्त में अक्षत छीटने के रिवाज विवाह के समय गीतों के बोल  - " एने के धनवा ओने के धनवा एके में मिलाव रे "
बदलते गये रिश्तो को आंकने  के पैमाने 
धान के भुस्से की तरह उड़ती रही ग्रामीण लोकधारा


गड़गड़ाते ट्रैक्टर दौड़ने लगे खेतों में
चिघड़ने लगे धनकटनी में हार्वेस्टर कार्बाइन की धमक खत्म हो गई गले में घुघूर बजाते  कबरा, गोला,मैनी बरधों की जोड़ियां
 बिलाते गए देसी धानों के दुर्लभ बीज
काला नमक ,जवा फूल, काला भूत,
 कल्ला मल्ली, तिलक चंदन की पुरानी किस्में 
करघा जंगली धानों की प्रजातियां 
खोआ धान ,डोकरा -डोकरी 
अलबेला होता था बोरा धान, जिसके चावल से भात नहीं बल्कि, पकती थीं अद्भुत चपातियां 
कहीं हरित क्रांति का आसमान तो नहीं निकल गया इन्हें या , अधिक उत्पादन की हवस में फट गई धरती की कोख
 जमाने की गहवर में विलीन हो गई सरिया कुलिया छिंटुआ धान बीज वंशावलियां 
समय के बादलों  के लटके हाथी-  सूंड में सुढ़कते गए
औषधीय गुणों से लबरेज अलचा , सोंठ ,करहनी,  महाजनी के धान की पौधे
सूखे पत्तों से उड़ गई नगपुरिया,कतिका , मंसूरिया ,
मोदक ,बंगलवा,सीतासुंदरी 
कलमदान की देसी स्थानीय धान की प्रजातियां 
गुम हो चुके प्राकृतिक रूप से उपजने जाने वाले 
गुच्छेदार आमागध के बीज वंश 
जिसके गंध अब भी मिलते हैं भोजपुरी लोकगीतों में
हाइब्रीड बीजों की गर्दनकाट 
नई बाजार व्यवस्था की लूट संस्कृति की धौंस में
जैसे गले में बची खाली जगह 
रोने में आती है बहुत काम।


6.


कहीं भी हो सकता है धान का कटोरा 
समतल मैदानों में, पहाड़ की  घाटियों - तलहटियों में 
राह बदल चुकी नदियों की छाड़न में 

 देखा था न  तुम्हें सुरहा ताल में 
छिटुआ बोए धनकटनी को 
लहरों  के ऊपर धान - पौधों के मथेला 
सूर्य की तेज किरणों में चमकते हुए
लहराते बढ़ते जाते जलस्तर के साथ
सुगापंखी , सिंगारा,करियवा, टुंडहिया,
दुललाची जैसी किस्में पसरी थीं अथाह जलराशि में डोंगी पर चढ़कर मल्लाह स्त्रियां झटका देकर 
हंसिया से कैसे काटती थीं धान की बालें
 जिसे देखकर जलती आंखों से 
घूरते थे वहां के ठेकेदार ,दलाल ,पटवारी 
नोच लेने को उनके श्रम के सारे मोल।

7.

बदलती धान की खेती में 
प्रकृति ने बदल ली अपना रंग- रूप, गुण - धर्म
रासायनिक खादों की  बढ़ती उपयोगिता स्याही सोख्ता की तरह निचोड़ ली मिट्टी की उर्वरता
  कीटनाशक दवाओं के छिड़काव से 
नष्ट होते जा रहे हैं प्रतिरोधी मित्र कीट आत तायी झुण्डों की
बढ़ती जा रही हैं झुमका ,चतरा ,भूरा धब्बा ,
आभासी कंड , माहू , कंडुवा, खैरा ,झंडा ,
झुलसा जैसी धान की गंभीर बीमारियां 
पसरते जा रहे हैं तना छेदक ,पत्ती लपेटक , फुदका , गंधीबग ,गंगई ,इल्लियां, हरे मच्छर ,माहू ,दीमक, फूफूंद ,लाल मकड़ियों की फौज
चिड़ियों की तरह चट कर जाने को आतुर खेत के खेत, बधार के बधार
रोपनी से  कटनी तक जूझ रहा है किसान
 पौधे के ज्ञात -अज्ञात दुश्मनों से 
बाढ़ ,अकाल ,महामारी की  
असंख्य पीड़ाओं को झेलता हुआ
भूखा, प्यासा ,बेहाल
मिट्टी के बांध की तरह 
बाढ़ के वेग से ढहता -  ढिलमिलाता हुआ।


8.

मानसून की पहली बूंदों में
भींग रहा है गांव
 भींग रहे हैं जुते -अधजुते खेत
 भींग रही है समीप की बहती नदी 
भींग रहा है नहर किनारे खड़ा पीपल वृक्ष
 हवा के झोंके से हिलती 
भींग रही हैं बेहया ,हंइस की पत्तियां
भींग रही हैं चरती हुई बकरियां
 भींग रहा है खंडहरों से घिरा मेरा घर

ओसारे में खड़ी हुई तुम
भींग रही हो हवा के साथ
तिरछी आती बारिश - बूंदों से

खेतों से भींगा - भींगा
लौट रहा हूं तुम्हारे पास 
मिलने की उसी ललक में
जैसे आकाश से टपकती बूंदें 
बेचैन होती है छूने को 
सूखी मिट्टी से उठती 
धरती की भीनी गंध ।

9.


बूंदाबांदी में भीग रही है औरतें 
 रोपते हुए बिचड़े पंक्ति दर पंक्ति
रोप रही हैं अपने दर्द , वेदना ,धूसरित होते सपनें
गाती हुई सावन मास में कजरी के
प्रेम और प्रणय के गीत
हो रामा , ए हरी की टेक दोहराते हुए
_ " पूरब पश्चिम से आती चिड़िया
बैठ जाती हैं बबूल की गांछ पर

बबूल को काट - काटकर
हल बनवाऊंगी
सरई का गढ़वाऊंगी जुआठ

दोनों जोबनों को बैल बनाऊंगी
और पिया को रखूंगी अपना हलवाह "


कीचड़ - कादो  में बच्चे 
खेल रहे हैं पानी पांक से बिछलहर के खेल
' टिपटिपवा ' से डर की लोकोक्ति को झूठलाते हुए

10.

तीखी घाम के बीच अचानक
होती  झम झम बरखा में भीग रहे हैं 
धान के बिचड़े कबारते खेत मजदूर 
उनकी  तड़प भीग रही है
ग्राम्य गीतों के कंठ स्वरों में....
_ "ओ मेरे साथी 
छप - छप करता पानी
 छप छपाने लगती हवा तो 
धूप से लाचार हो जाता मेरा मन 

ऐसा ही जी करता
 स्वर्ग में बिछा देते जल 
बादलों की छतें पिटवा देते

डीह को मनाता
 डीहवार को मनाता है मन 
कोई नहीं होता अब मुझ पर सहाय

आंखें लाल हुईं
तवंकने लगी चमड़ी
दोनों जांघ छीलने लगे अब

चमकता है चन - चन
 मेरी देह का  रोंवा - रोंवा
चैन नहीं मिलती सारी रात

शायद एक ही आस हो 
मेरे जीवन में 
धान से भर जाती हमारेे भंडार ! "

उनके लोकबोलों में छलक रही है श्रम की पीड़ा
भींग रही हैं उनके देह,भींग रही है जलते खून से 
उठती तरबतर पसीने की बूंदें !

समा रहा कष्ट का ज्वार उनकी पसलियों के भीतर 
झुराई लकड़ियों की धीमी चटकने सी
पृथ्वी पर विस्तार पाती उदासी की समां
 जैसे उजाड़ वनों में आती है सिसकियों की आवाज

11.


गिरगिट की तरह रंग बदल रही है मानसूनी हवाएं 
काले कजरारे बादलों को निगल गया  क्षितिज
भेड़ बदरा मचल रहे हैं आसमान में
 मध्य भादो में सूख रहे हैं धान के खेत
 दरारों में दुबकने लगी हैं पौधों की जड़ें
 सतवांस जन्मे बच्चे सी हो गई है उनकी काया
 कृशकाय, कुपोषित, जीने की तड़प में बेहाल 
सूख रही पत्तियां असहाय मां की  सदृश्य विकल
 पौधे को खाद - पानी देने में असमर्थ

 रुक रहा है नदी का वेग
 दुर्लभ दर्शन बन गया है नहर का पानी 
उड़ती खबरें आती हैं कि झुरा गया है सोन 
 वाणसागर , रिहंद बांधों के जल को लेकर
 छिड़ाहै वाक् युद्ध
 बिहार, यूपी  - एमपी की सरकारों में
 इन सबसे बेखबर किसान पंपसेट से 
भूमिगत जल निकालने में जला रहे हैं डीजल 
अपना श्रम ,अपनी तकदीर
वे लगे रहते हैं पौधों की जड़ों को पानी से पखारने में
जैसी रात पूरी होती ही मचल उठता है दिन
 उगकर उजास फैलाने की अंत: क्रिया में


12.




शुरू हो गई है धान की कटनी
 पर, कहां गायब हो गया है कटनी का सुतार...?
 नवान्न को पाने का उल्लास
 इससे जुड़े पर्व -त्योहार, हंसी - खुशी 
 वह गंगा स्नान , खिचड़ी का मेला 
किस कोने में  छिप गया मोती बीए के गीत का भावार्थ _
"कटिया के आईल सुतार हो सजनी , कटिया के आइल  सुतार
 हाथे हसुअवा कांधे लउरिया लेलिहले , बलमा हमार  हो सजनी "
वह जोश, वह उम्मीदों की ललक 
किसने चुरा ली धान के कटोरे के भोले कृषकों से 
जिसका कुंजन कवि ने अर्थ बोध दिया था अपनी कविता में _
" आइल अगहनवा , कटाए लागल धानवा छिलाए लागल ना
गांवें गांवें खरीहनवा, छीलाए लागल ना....."

कहां भूमिसात हो गई नोखा नटवार की  उसिना चावल मीलें
जिसकी चिमनी से उठते  धुएं 
कई कोस दूर से बनाते थे पहचान
 किधर जलमग्न हो गए
मरूंआं जैसे गांव की बहुतेरेे  चावल के चूल्हें 
किधर अंतर्ध्यान हो गया
वह चहल पहल, रोजी रोजगार के अवसर
 कैसे बुझते गए जीवन के दीप समय के साथ 

जल्लाद बने सरकारी तंत्रों ,दलालों, रंगबाजों के तिकड़म के
 मकड़जाल में फंसता गया  सुनहले धान  का भरा कटोरा 
जैसे छलनी करते गए मजबूत मेंड़ को इस दौर के खेंखड़े
बिलगोहों की तरह काटते गए किसानी  व्यवस्था की जड़ें

13.

हाल के दशकों तक
 धनकटनी का समय था उमंगो का अनूठा वसंत 
गंगापार से आते थे कटिहारों के झुंड
 नौजवान, अधेड़ स्त्री पुरुष ,अपने नन्हे बच्चों के साथ
कंधों पर बहंगियों का बोझ उठाए
 जिनके सहमेंल से बनता था अनूठा समाज
 गूंजते थे गीत बधार में कटनी के_

" घर छोड़कर अपने में ही 
धूनी रमाया है वह मतलबी
 अब तो आई फसल 
चली न जाए

चूड़ी फेंक मारी
 बेलना फेंक मारी
 तो भी नहीं जागता वह कुलबोरन

कहती है सास
 बिगाड़ी हूं मैं ही उसका लक्षण 
बस अछरंग ही मिले हैं मेरी तकदीर में

वो नहीं उठेंगे तो 
तो नहीं बोलेंगे ससुर 
गोतनी भी अब करने लगी है पटिदारियां

मेरी पिछवाड़े में 
लोहार भाई हैं मेरे शुभेच्छु 
गढ़ देंगे  वे  दंतगर  हंसिया

उन्हीं की इरिखा में
धाऊंगी बधार में
हाथ में लेकर गुर्रही और पेटाढ़ियां..."

हंसुआ  की धार से कड़.. कड़ ... कटते हैं धान की डांठ 
बोझा ढोते हुए हिलती है हवा में धान की बालियां ,उसके कंसे
 कहती हुई धान के कटोरी की अकथ कहानियां !

 14.

आरा - दिनारा के दुलरुए
  छोड़ते जा रहे हैं इस धान के देश को 
जैसे धनखर खेती की पहचान जताने वाले
 गायब होते गए पुआलों की गांज

 वे फैलते गए गुजरात की कपड़ा मिलों
 मुंबई की फैक्ट्रियों, आसाम के चाय बागानों
गिरमिटिया बन मॉरीशस ,फिजी, सूरीनाम
 और न जाने कहां-कहां 
उनके श्रम की गति से बढ़ते रहे
 दिल्ली ,मुंबई ,चेन्नई, बैंगलोर के आकार
 सपनों की मृगतृष्णा की खोज में
 कभी नोटबंदी, तो कभी देशबंदी की 
जाल में उलझते गए , शिकार होते गए 
नित नए बहेलियों की जाल में 
कुचले गए ट्रकों से , कटते रहे ट्रेन की पटरियों पर
गिरकर दबते रहे  ऊंचे निर्माण गृहों से 
सबसे ज्यादा तुम ही मारे गए देश की सीमा झड़पों में 
देते रहे तुम ही अपना सर्वोच्च बलिदान

माना कि यह धान का कटोरा
 हरगिज़ पूरा नहीं करते विस्तृत होते तुम्हारे सतरंगी छाते
 फिर भी तड़पता है यह तुम्हारे लिए 
इसकी धूसर मिट्टी की रंग से बनी है तुम्हारी काया 
 तुम्हारी धमनियों में बहती है यहां के पानी की धार 
तुम्हारे पसीने में महकती है यहां के चावल की खुशबू
तुम्हारे सांसो की महक में कायम है
चूल्हे से पक कर उतरे भात से निकली भाफ की भीनी सुगंध



15.

पक चुकी है धान की बालियां
 भर गया है धान का कटोरा सुवर्ण रंगों से
 थिरक रहे हैं अन्नदाता के मन के  सुगने 
हंसिया की तीक्ष्ण धारों और
कार्बाइन  की हड़हड़ करती कटिंग से 
भर गए हैं उसके खलिहान
 ढेर के ढेर ,बालूका राशि की तरह


 अब नहीं आते सुआ - सुतरी लिए  बनिये
 दीखता नहीं कहीं हाट बाजार में सरकारी खरीद के  गल्ले 
चावल मिलों के सौदागर 
धान के खरीदार, खुदरा व्यापारी

वे शायद सो रहे होंगे अपने दरबे में 
या , सुला दिए होंगे बाजार नियंत्रित करने वाली शक्तियों के भय से
कृषि उत्पादों की सम्पदा को 
हड़पने की साजिश को रचने - रचाते हुए


बिलख  रहे हैं  किसान
सूख चुके धान की तरह उनके भीतर की नमी
हिल रहा है धान का कटोरा
उड़ा ले जाने को उसके श्रम से उपार्जित
अमूल्य धान्य सम्पदा
अदृश्य बाजों के चुंगल में
और विवश कर देते हैं अन्न दाताओं को
 बकरे की तरह जिबह होने के लिए



16.

' क्या बदलेगी कभी
 धान की कटोरी की तकदीर ? '
_ गौरैया पूछ रही है  मैना से 
मैना पूछ रही है दूर तक नजर रखने वाले कबूतरों से 
कबूतर पूछ रहे हैं चालाक कौऔं से
डगमगा रहा है धान का कटोरा
घिसती जा रही है उसकी तली
दिन - ब - दिन फुटाहा होता रहा

हल - बैलों को विस्थापित किया ट्रैक्टरों ने
कटनिहारों को क्रूर कार्बाइनों ने
लाभकारी कीटों को जहरीली  रसायनों ने
देशी बीजों को हाईब्रीड सिड्स ने
घुर पात को केमिकल खादों ने
निश्छल किसानों को पूंजी ग्रस्त बाजारों में
विस्थापित होते देखते रह गए दबे पांव
 सिमटते फसल चक्र के तरीके
हिलता रहा धान का कटोरा 
चुपचाप ,बेआवाज !


17.

देखना,
 कभी मनुष्य के श्रम की गंध से
विलग हो जाएगा यह धान का कटोरा
 हवाई जहाज से होगी धन रोपनी
 गैस फिल्टर से निकाई
 स्मार्टफोन रेडियल तरंगों से कीट पतंगों की सफाई 
कंप्यूटर के सॉफ्टवेयर से सिंचाई


जरा ठहर कर सोचना कि
आने वाले दौर में 
किसान विरोधी दंतैले चूहों के
 बिल में कौन डालेगा पानी 
उसके पेठाए बिच्छूओं की नुकीली डंकों को
 कैसे बांधने का पट्टियों से होगा साहस 
उसके भेजे जहरीले सर्पों के लपलपाते जिह्वओं को
 कौन दागेगा लोहे के गर्म छड़ों से



 हिल  हिलकर घिस रहा है 
धान का कटोरा
अपनी अकूत खाद्य संपदा,
 अपना स्वाद ,गंध,नैसर्गिकता
मिट्टी की सुवास ,  अन्न तृप्ति की पहचान की बुनियाद 
 बचाने का भरसक प्रयास करता हुआ  !


















Saturday 16 May 2020

मैरा स्थित चेरो साम्राज्यकालीन मिट्टी का गढ़


Chero Empire era mud fort at Maira.
कोचानो नदी के तट पर मिला कुषाणकालीन गढ़
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उत्तर गुप्तकालीन मूर्तियां कह रही हैं अपनी कहानी
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प्रभात खबर, 28 जुलाई,2008
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धनसोई (बक्सर): जिला मुख्यालय बक्सर से 30 किलोमीटर की दूरी पर स्थित समहुता पंचायत के पटखौलिया गांव के समीप कोचानो नदी के तट पर मैरा गांव के दक्षिण में बक्सर व रोहतास जिले की सीमा पर कुषाणकालीन गढ़ की खोज शोध अन्वेषक द्वारा किया गया है। गढ़ पर मिल रहे  मृदाभांडों के अवशेष व गढ़ पर स्थापित प्रतिमा कुषाणकालीन सभ्यता की कहानी बयां कर रही हैं। गढ़ से प्राप्त पूरा पुरावशेषों में ब्लैक बेयर, रेड बेयर, ब्लैक स्लिप गढ़ की प्राचीनता पर अपनी मुहर लगा रही हैं। विदित हो कि जिले में डॉ. के.पी. जायसवाल शोध संस्थान, पटना द्वारा ऐतिहासिक पुरावशेषों का अन्वेषण कराया जा रहा है। उक्त अन्वेषण के दौरान ही शोध अन्वेषक सुरेंद्र कुमार सिंह ने रविवार को मैरवा गांव की समीप स्थित उक्त गढ़ पर पहुंच अन्वेषण कार्य किया। शोध अन्वेषक सुरेंद्र कुमार सिंह बताते हैं कि उक्त कार्य जिले में पुरातत्ववेत्ता व मगध विश्वविद्यालय बोधगया के प्रोफेसर डॉ. अनंत कुमार सिंह की देखरेख व निर्देशन में कराया जा रहा है। गढ़ के अनुसंधान के पश्चात श्री सिंह ने बताया कि यह गढ़ अतिप्राचीन रहा है। आज भी यह गढ़ समतल भूमि से लगभग  12 फीट ऊंचाई पर है। गढ़ के 5 फुट की ऊंचाई पर स्थापित तीन प्रतिमाएं  हैं,जिसमें दो लाल बलुई पत्थर के स्लैब पर काम कर बनाया गया है। मूर्ति का अलंकरण भी कम नहीं है। एक प्रतिमा की चार भुजा है, जो किसी पशु पर बैठी हुई स्थित में है। प्रतिमा का चेहरा तो स्पष्ट नहीं है, लेकिन स्त्री प्रतिमा के पुख्ता प्रमाण हैं। उक्त मूर्तियों में एक प्रतिमा 16 इंच लंबा एवं 9 इंच चौड़ा है, जो ध्यान मुद्रा में है। यह प्रतिमा पुरुष की है। प्रतिमा की आसपास स्लैब पर नक्काशी और साज- सज्जा देखते बनती है।  उक्त प्रतिमाएं  उत्तर गुप्तकालीन सभ्यता की कहानी बयां कर रही हैं। सूत्र बताते हैं कि मैरा गांव का पुराना नाम मोहरवा था। उक्त शोध कार्य से ग्रामीण जहां काफी उत्साहित दिखे, वहीं उनमें अपनी विरासत व गांव के इतिहास को मानचित्र पर देखने की ललक भी दिखाई दी। मैरा गांव के रहने वाले साहित्यकार व बुद्धिजीवी लक्ष्मीकांत मुकुल कहते हैं कि हम सब इस कार्य से काफी हर्षित हैं। हम सरकार से मांग करते हैं कि उक्त गढ़ का उत्खनन कार्य कराया जाए, ताकि यह क्षेत्र भी ऐतिहासिक मानचित्र पर अपनी पहचान बना सके। वही मैरा गांव के ही मदन तिवारी, उदय नारायण पाल, एवं सुदामा राम आदि ने तो सरकार से इस पूरे क्षेत्र को पर्यटक ग्राम के रूप में विकसित करने की मांग की है।



बंडागढ़ पर  मिला दो हजार वर्ष पुराना अवशेष
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मृदभांड, रेड वेयर,ब्लैक वेयर,ब्लैक स्लिप आदि मिले
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प्रभात खबर, 21 जुलाई, 2008
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धनसोई (बक्सर): धनसोई थाना क्षेत्र के समहुता पंचायत के कथराई गांव के समीप स्थित "बंडागढ़" पर दो हजार वर्षों से भी पहले के मृदभांड के पुरावशेष प्राप्त हुए हैं। उक्त पुरावशेषों के प्राप्त होने से बंडागढ़ के गर्भ में कई पुरानी सभ्यताओं के राज दबे होने की संभावना शोध अन्वेषकों द्वारा व्यक्त की जा रही है। शनिवार को सुरेंद्र कुमार सिंह ने बंडागढ़ पहुंच अन्वेषण का कार्य किया। अन्वेषण के उपरांत प्राप्त पुरावशेषों को आधार पर श्री सिंह ने कोचानो नदी के तट पर बसे बंडागढ़ की महत्ता को उजागर करते हुए कहा कि यह गढ़ अति प्राचीन प्रतीत हो रहा है। यहां से प्राप्त मृदभांड, रेड बेयर, ब्लैक बेयर, ब्लैक स्लिप को देखने से कुषाण कालीन व गुप्तकालीन रहन-सहन एवं सामाजिक व्यवस्था इस क्षेत्र में स्थापित होने की संभावना को जहां बल मिलता है, वही नदी किनारे स्थापित होने से व्यापारिक केंद्र होने की संभावना भी बन रही है। मगध विश्वविद्यालय के ए एन  कॉलेज पटना के इतिहास के छात्र राकेश कुमार निराला का मानना है कि बक्सर जिला इस तरह की ऐतिहासिक उपलब्धियां से भरा पड़ा है ।धनसोई थाना क्षेत्र को ही जल्दी लिया जाए, तो इस क्षेत्र में अमरपुर सिसौंधा, बन्नी, उधोपुर सहित आसपास के कई गांव का यदि अन्वेषण व खुदाई का कार्य कराया जाए, तो कई चौंकाने वाले रहस्य उभारेंगे।

 वहीं स्थानीय लोग बताते हैं कि यह गढ़ कभी रतन सिंह के गढ़ के नाम से जाना जाता था और यह रतनपुरा नाम से भी प्रसिद्ध था। प्राचीन किंबदंतियों की माने तो इस गढ़ की आस-पास आबादी भी बसी हुई थी, लेकिन समय बीतने के साथ-साथ गढ़ से उत्तर पश्चिम की कोने पर कथराई गांव बस गया है और यह गढ़ आज वीरान हो गया है। गढ़ को काट काट कर खेत में  मिलने में तत्काल में  लोग लगे हुए हैं। गढ़ के समीप एक कुआं भी है, जो अब समाप्ति के कगार पर है। उसके संबंध में लोग बताते हैं कि उक्त कुएं का निर्माण भी पुराने जमाने की ईंट से हुआ है। उक्त गढ़ का संबंध चेरो - खरवार से भी लोग जोड़ते हैं और उक्त कुएं में चिरो - खरवारों के हथियारों का जखीरा भी दबे होने की कहानी सुनी सुनाई जाती है। जब  उक्त गढ़ के संबंध में जब स्थानीय समूहता  पंचायत के मुखिया महेश प्रसाद एवं स्व. महंथ सिंह स्मृति किसान क्लब के अध्यक्ष जितेंद्र सिंह से राय जाना गया तो उक्त लोगों ने सरकार व पुरातत्व विभाग से उक्त गढ़ की खुदाई करने के साथ-साथ धनसोई को पर्यटक ग्राम घोषित कर विकसित करने की मांग की।

मैरा गढ़ पर प्राप्त पुरातन बड़े आकार के ईट...☝️
एवं उस अवस्थित प्राचीन काल की मूर्तियां...👇
समीप स्थित गंगाढी गांव के पश्चिम दिशा में पोखरा के पास स्थित चतुर्भुज की प्राचीन मूर्ति....👇

दैनिक जागरण, 09अक्टूबर,2023


Tuesday 24 March 2020

लक्ष्मीकांत मुकुल की कोरोना वायरस पर कविता

     कोरोना महापिचास
                                 _लक्ष्मीकांत मुकुल


वह कोई कबंध नहीं 
या, पशुओं में फैलता खुरहा, मुंहपका रोग
 न तो वह डाल पर का झूलता कोई बेताल
 यह  है शैतानी दिमाग द्वारा तैयार इंद्रजाल 
 हरकतें करता उस लकड़हारे की तरह
 वृक्ष पर बैठने की  टहनी पर 
चला रहा था जो दनादन कुल्हाड़ी

गहरी साजिशों की तरह वे शैतान 
उत्पन्न कर रहे हैं मनुष्यता के विरुद्ध जैविक हथियार जिनके पास गुण नहीं होते
 बांझ पपीते में उगाने को फल 
जिनके जनमाए रोबोट नहीं बना सकते 
मधुमक्खियों जैसे  शहद - बूंद
 उनके बनाए हाइड्रोजन बमों से बंजर हो गई मरुभूमि पर नहीं बरसाई जा सकती झमाझम बारिश 
जिससे गदरा कर उभर आती गर्भवती स्त्री
 सदृश इस धरती की काया


दूर अंतरिक्ष से घूम कर आते उल्का पिंडों से 
कहीं ज्यादा खतरनाक हैं शैतान वैज्ञानिकों के दिमाग पूंजीवादी दवा कंपनियों ,मनुष्य विरोधी ताकतों के साथ मिलकर वे बना रहे हैं  समयबद्ध योजनाएं 
कभी प्लेग, एड्स, वर्ल्डफ्लू ,कोरोना महापिचास
 जैसी फैलाने के लिए महामारियां 
वायुमंडल में फैला देने को जहरीले विषाणु 
जलीय जीवन में विषाक्त कचड़े
स्थलों पर जीवन को तबाह कर देने के षड्यंत्र 


यह महापिचास पांव फैला रहा है वैसा ही 
जैसे दशक भर पूर्व दलदल में धंस कर 
मरे पशु की सड़न से  विषाक्त
 हो चुकी थी बरसाती नदी 
जिसके पानी पीकर तड़प-तड़प कर
 मरने लगी थीं मेरे गांव की दुधारू भैंसें


कोरोना जैसे दानव - दूतों के आगमन से  रोकी
 जा रही हैं मिलने -जुलने की तमाम संभावनाएं
 स्वजनों को छूने- चूमने पर  लग गया है कर्फ्यू 
मुंह में जाब लगाने को किया जा रहा है विवश


उन शैतानों के हौसले में नहीं शामिल 
जो रेत होती नदियों को लौटा दे छल - छल धार आकाश में तैरते  हुए उजले बादलों में पानी 
खोंखड़ होते जा रहे जंगलों में वृक्ष - लताएं 
ढूह जा रहे पर्वतों को गुंजार करते झरने


उनके हाथ पीड़ितों के आंसू पूछने के लिए नहीं बने 
वे बने हैं आपकी जेब में छिपे 
पसीने की कमाई को झटकने के लिए 
अपनी झमाझम करती थैलियों में !






          लक्ष्मीकांत मुकुल के कोरोना पर हाइकु



पांव पसारा 
कोरोना का  पिचास 
बंद जिंदगी !



 लगा है जाब
सूंघने चूमने पे
 उदास भौरें






रूठी हो तुम
कोरोना के भय से
छू न सका हूं





थर्रा उठी है 
मनुष्यता,विषाक्त
जैविक -अस्त्र




रुका स्नान
खड़ा नदी मार्ग में
प्रेत - कोरोना

लक्ष्मीकांत मुकुल की कविता - पंक्तियां हस्तलिखित सुलेखन में।

Friday 13 March 2020

लक्ष्मीकांत मुकुल के दू गो भोजपुरी गजल

लक्ष्मीकांत मुकुल के दू गो भोजपुरी गजल

गजल 1:- 


मन काहें दो टूटल बाटे           
नइया बीचही फूटल बाटे      
                   
रिश्ता नाता लथराइल बाटे                      
करमी के जस खूँटल बाटे                       

आम बइर ना लउके कतहूँ                      
चिन्हास गाँव के लूटल बाटे                 

  हेरा गइल सुतार कटिया के                  
   खेत धधकत इहे पूछत बाटे                     

 मिलल देह ना मिलल नेहिया                    
  माहुर से दिन हर घूँटल बाटे



गजल 2 :-  


गँवे गँवे कइसन खराँस भरल जाता 
 गुड़ही जिलेबिया तितास भरल जाता    


                                   
   साँझ भोर कुछो समुझ में त आइत 
 मधि दुपहरिये कुहास भरल  जाता          


 भोज भोजहरिया ना गाँव में सोहाता 
 झुझुन बिकास के थपास भरल जाता        


 होरी लुटात बाड़ें मुखिया  दुआर पर  
 जोजना के आस  झलाँस भरल जाता

लक्ष्मीकांत मुकुल की सात ताजा कविताएं


लक्ष्मीकांत मुकुल की सात  ताजा कविताएं



             नियोजित शिक्षक

नौकरशाहों की नजर में बने अछूत प्राणी 
लोकशाही की नजर में बूट फेंक कर बझाए बंदर 
 तो लोगों की नजर में रिफ्यूजी लगते हैं नियोजित शिक्षक

शिक्षा माफिया मूंगफलियां चबाते हुए इनके ऊपर फेंकते हैं छिलकों के ढेर 
अधिकारी मुंह बिचकाते देखते हैं इनकी ओर 
जैसे उनके पांव औचक पड़ गए हों ' खंखार ' पर 
वक्र दृष्टि से देखते हैं इनकी ओर खींच लेने को
 इनके फड़फड़ाते पंख निचोड़ लेने को 
इनका सारा जीवन द्रव्य

नियोजित शिक्षकों को अब तक हासिल नहीं भारतीय संविधान में नागरिक होने का दर्जा समान 
काम समान वेतन की बात तो दूर ,उन्हें नहीं समझा जाता कुर्सी पर साथ बैठाए जाने का काबिल 
इनके श्रम से आती गंध उन्हें सोने नहीं देती  रात भर इनके बोलने के ढंग मखान के कांटों की तरह चुभते हैं इनके चलने की अंदाज से पिछड़ेपन का आभास होता है उन्हें

नियोजित शिक्षकों को देश के महान न्यायालय ने नहीं माना इन्हें वाजिब मनुष्य 
जानवरों की तरह खूंटे से बंधे गुलाम 
रोमकलीन दास प्रथा के वर्तमान नजीर 
कम दाम पर दिनभर खटते, शासन की आंखों में कीट बने इन शिक्षकों के घरों में कभी नहीं  संवरती व्यंजनों से भरी थाली 
घरे रह जाते हैं सुखी जीवन जीने के सभी इंद्रधनुषी सपने 
तारतार झड़ जाता है
बुने गए अपने बच्चों का स्वप्निल भविष्य
 पीली नहीं हो पाती इनकी बेटियों के हाथ 
उनकी गीली आंखों से भींगती रहती है यह धरती

सत्ता में बैठे लोग ऊपर -ऊपर ही कुतरते हैं  इनके मेहनत की मीठे फल 
आपाधापी में लगी रहती हैं सरकारी मिशनरियां 
रौंद देने को आतुर इनकी सप्तपर्णी खुशियां 
कुचल देने को तत्पर 
अधिकार के आंदोलन में उठे इनके हाथ
 इनकी सरगर्म मुट्ठियां 
 सड़कों पर ,चौराहों पर ,राजधानी के तिराहों  पर गूंजते हैं इनके नारे ,उठते हैं इनके बोल 
महज अपने लिए नहीं ,लाखों-करोड़ों बच्चों के
 दर्दीले कंठों के साथ।




            यह कैसा समय है


यह कैसा समय है
जब कजरारी घटाएं भूल 
जाती हैं बरसने की जिम्मेदारी 
वनस्पतियां भूल जाती हैं समयानुसार फूलना - फलना मौसम बदल रहा है ऋतु - चक्र का प्रत्यावर्तन मानसूनी हवाएं पाला बदलकर 
पश्चिमी विक्षोभ में हो रही हैं शामिल 
सूरज की किरणें अत्यधिक 
तड़पा रही है धरती की काया 
पूर्णता से अपनी चांदनी  नहीं बिखेर पा रही है चंद्रकिरण किरणें

यह कैसा समय है 
पत्थरों को काटने के नाम पर
 खत्म किए जा रहे हैं पहाड़ 
उद्गम के पास ही दम तोड़ रही हैं नदियां 
साल  -दर - साल  जा रहे हैं जंगलों की आयतन
 तेजी से विलुप्त हो रही हैं अनगिन भाषाएं 
विविधता भरी संस्कृतियां 
लोगों के राग -अनुराग

यह कैसा समय है रोजगार मांगने वालों को 
कहा जाता है टुकड़े-टुकड़े गैंग वाला
 न्याय की गुहार करने वाले को आतंकवादी विश्वविद्यालय के होनहार छात्रों को अर्बन नक्सली रोटी के लिए भुखमरी झेल रहे लोगों को देशद्रोही संविधान की दुहाई देने वालों को विदेशी घुसपैठिए सही आजादी की मांग करने वालों को देश के गद्दार

यह कैसा समय है 
कि गुंडे कॉलजों में पीट रहे हैं शिक्षकों को घसीट कर मारा जा रहा है एकांत लाइब्रेरी में पढ़ रहे छात्रों को
 बदला जा रहा है हमारे देश काल का इतिहास
 कच्ची दिमागों में भरा जा रहा है शैतानी हरकतें 
अपने ही देश के नागरिकों से मांगा जा रहा है नागरिकता के प्रमाण

यह कैसा समय है 
जब गहन अंधेरे को उजाला 
संडास के पानी को गंगाजल 
लुटेरों को सही मनुष्य 
मानने का चलन हो गया है इस समय।


          शाहीन बाग के  खग - झुंड

निकट आकाश में गिरहबाजियां करते 
कबूतरों की नहीं होते पहचान पत्र
 बसंती मौसम में गेंदे के फूलों पर
 पंख फड़फड़ाती तितलियों की 
चाहत में नहीं होता राशन कार्ड
धन -धन की आवाज करते भौरों से
गंधित पंखुड़ियां नहीं मांगती 
देखने को कोई आधार कार्ड

दूर-दूर तक पेड़ों पर बसेरा डालने वाले 
बगुलों को जरूरत नहीं पड़ती 
जनसंख्या रजिस्टर में दर्ज कराने को नाम
करहे  में छौकती मछलियां 
अनजान हैं रोज बदलते निवास के नियमों से
 उनकी स्वच्छंद दुनिया में
नहीं चलते अंधे कानून

शाहीन बाग के वृक्ष - शिखरों पर यात्रा सफर से
 थके खग - झुंड पूछ रहे हैं अपनी भाषा में
 घबराए -परेशान -उत्तेजित मनुसों की बाबत 
कि तोता -मैना की रोज नई कहानियां गढ़ने वाले
 इस बगीचे में क्यों बढ़ती जा रही हैं
 किसी की नागरिकता छीनने की बेचैनियां !



             यादों में वसंत का प्यार

1

जब भी लौटता हूं पुराने शहर की उस गली में 
यादों के कुहासे चीरती उभरती है वह मुलाकात 
जब मार्च की एक भीनी सुबह में मिली थी तुम 
तुम्हारी स्निग्ध मुस्कान भर रही थी 
जमाने से खोयी मेरी रिक्कता
 तुम्हारी आंखें खोज रही थीं
 मेरे चेहरे में  वसंत के झूलये फूल
 तुम्हारेे थरथराते होठों से बज रहे थे मीठे बोल
 जिनकी धुनों से खींचता 
सरकता जा रहा था तुम्हारे पास

तुम्हें देखा था उस दिन हॉस्टल की खिड़कियों से गुलमोहर के पीछे वाली छत पर 
चहक रही थी तुम 
जैसे चहक रही हो बाग में नन्हीं चिड़िया 
थिरक रहा था तरकुल के पत्तों- सा
 मेरा मन -तन  हड़.. हड़ ..खड़ ..खड़


2.


न जाने कितने वसंत बीत गए होंगे 
 दस, बीस, तीस नहीं ज्यादा 
जब इंतहान में साथ बैठी थी तुम
 एकदम पास बीते भर की दूरी भी नहीं 
कितने साथ हो गए थे हम बस कुछ दिनों के लिए तुम्हारे सांस में घुलते गए मेरे सांस
 तुम्हारी धड़कनों में मेरा धड़कन
 तुम्हारी हंसी में उलझी गई मेरी हंसी
 हवा में उड़ते बाल तुम्हारे बाल 
अक्सरहां ढक लेते थे मेरी देह
 हम कुछ समय साथ चले थे ,कुछ ही कदम

इतने अंतराल गुजर जाने पर भी
 क्या तुम्हें याद होगा मेरा साथ
 या खो गई होगी तुम
 रोज बदलते हम राहों की दुनिया में

मैं तो अभी वही ठिठका हूं , जहां मिली थी तुम 
जैसे मिलते हैं दो खेत बीच की मेड़ों पर 
आंखें गड़ाए कभी न कभी लौट होगी तुम
 इस पगडंडी पर कभी किसी वसंत में।



3.


तुम्हें  पहेली की तरह लग रही होंगी वे घटनाएं 
कुछ अजीब बेवकूफी  भरी 
जब पहली बार गया था यह गंवार अपनी परीक्षाएं देने शहर में ,जिसे ठहराया गया था
बस्ती के किनारे वाले घर में 
और शाम को अकेले देखने 
चला गया था चौराहे की चकाचौंध 
अंधेरा छाते भटक गया अपना रास्ता 
जैसे नदी किनारे चरता बछड़ा 
 भूल जाता है पिछली राहें और भटकते हुए चला जाता है नदी की राह में दूर 

भूला भटका यह एक पान की गुमटी पर 
पूछने लगाए अपने ठहराव की राह 
उसके जेहन में बस इतना ही याद था कि उसके ठहराव के आगे सहन है, पूरब -पश्चिम के कोने पर पुराना जर्जर ट्रांसफार्मर और रास्ते में दिखा था किसी राजपूत लॉज का बोर्ड 
दो सज्जन रात के अंधेरे में लाए थे उसे ठिकाने पर जैसे अंधेरा छाते लौट आता है
 बसेरा में  भटका कोई पक्षी

पहली बार एग्जाम के लिए बेंच पर बैठते ही दिखा तुम्हारे प्रवेश पत्र पर लिखा पिता का नाम
भौचक रह गया  रह गया कि वही थे वे सज्जन
 जो रात के मेरे भटकेपन में दिखाए थे प्रकाश
 ऐसा लगा  पहली बार  धरती सचमुच में होती है गोल तब खिलखिलाने लगे थे मेरे सतरंगी सपने
 आने लगी थी गुनगुने दूध में घुले गुड़ की महक
 यह अनाड़ी भटकता रहा 
तुम्हारी खटतुरस प्यार की चाहत में।


4.

अभी कहां होगी तुम, पुराने शहर के वे रास्ते 
भर गए होंगे टूटे पत्तों से 
तुम्हारी चमकती आंखें , थिरकते होंठ 
गुच्छों जैसे बाल, चेहरे से छलकती मुस्कान
 क्या बचे होंगे  समय की क्रूरता के आगे 
अगर नहीं तो तुमने अवश्य ही बचा रखा होगा 
अपने भीतर की कोमलता 
हमारी मुलाकात की स्मृतियां 
जैसे जीवन की इस पड़ाव पर 
यादों में होता है कच्चे अमरूद की  महक 
गो - थन से सीधे गार कर पिये दूध की गंध 
वैसे ही भूले नहीं भूलता 
यादों की वसंत का हमारा अधखिला प्यार।


     अयोध्या में परदादी की धर्मशाला कहां है ?


सुनता आ रहा हूं बचपन से 
कि मेरी परदादी ने कभी बनवाया था 
अयोध्या के कहीं रामानुजकोट में 
राहगीरों को ठहरने के लिए धर्मशाला

कौतूहल है  तब से मेरे मन में 
कि कहां है अयोध्या ,मेरे गांव से कितनी दूर 
शहर के किनारे या बीच में 
किस हालत में होगी उनकी धर्मशाला

यहां से कभी कोई नहीं जाता  अयोध्या 
न तो वहां के लोग आते हैं इधर 
सीधा- पिसान बटोरते एक तीर्थयात्री ने कभी 
कहा था कि तेरी दादी का शिलापट्ट
 लगा है अयोध्या की उस धर्मशाला में 
जिस पर सुबह में सूरज की किरणें छिटकती हैं प्रकाश चारों दिशाओं से बहती हवाएं चमकाती हैं उसे

पचासी पार कर चुके बड़का बाबू जी
 कहते हैं कि किशोरावस्था में वे गए थे वहां 
धर्मशाला निर्माण के बाद के भंडारे में 
कहीं रामघाट जाने वाले रास्ते पर 
होगी वह धर्मशाला

बरांबार सोचता हूं देखने जाने को
परदादी  का अयोध्या
 उनकी धर्मशाला, उनके स्मृति चिन्ह
परंतु जाने का साहस नहीं कर पाता हूं कभी
डरता हूं तीर्थ स्थलों पर मिलते ठग - बटमारो से
 कभी दूर यात्रा में भूल जाने का भय 
जेब में कम होते पैसे रोकते हैं मेरे पांव

यूं तो अयोध्या जाने वालों की 
कभी कमी नहीं रही दुनिया में 
एक आधुनिक राजा तो रथ हांक कर
 जा रहे थे अयोध्या 
हजारों लोग होहकारी भरते
पहुंच रहे थे किसी पुरानी इमारत को तोड़ने 
साधु - सवाधू , नेता - नगाड़ी ,पुलिस - पियादा के झुण्डों से भर गई थीं वहां की सड़कें 
खुलेआम मूत्र विसर्जन - सरेआम मल त्याग से
 बिलबिलाने लगी थीं वहां की गलियां

भयातुर हूं मैं इन दिनों 
कि पुरानी इमारतों को तोड़ने वाले वे उपद्रवी 
कहीं मिट्टी में न मिला दिए हो परदादी की धर्मशाला उनकी उपलब्धियां ,उनकी जीवंत स्मृतियां 
तब किस से पूछूंगा उसका पता ठिकाना
 रिक्शावाले, ठेले वाले ,रेवड़ी वालों से 
अगर वे बता  न पाये या बताने में संकोच करें तो 
सरजू की बहती जलधार से 
हनुमानगढ़ी के बूढ़े बंदरों से 
टिकरी रिजर्व्ड फॉरेस्ट से आये पंछियों के दल से सूरज की चमचमाती किरणों से 
रात में टिमटिमाते तारों से पूछने पर 
अवश्य ही मिलेगा उसका हाले पता

सुदूर गांव से अयोध्या तक 
खुशियों के पंख फैलाने वाली
 मेरी बुढ़िया मैया ,
ओ मेरी पुरखिन ,
मेरी अच्छी परदादी 
माफ करना मुझे, सहेज नहीं पाया 
तेरी यादों के निशान 
फिर भी तुम जीवित हो जाती हो क्यों हर बार 
हमारे भीतर रगों में, हमारी कोशिकाओं में 
मनुष्यता की राह दिखाती हुई।


        ठीक का है वसंत

भकुआया है बसंत 
उसकी अगवानी में बिछे नहीं 
मसूर  - मटर की उजले फूल 
अचंभित है वसंत 
किशोर मनों में उठती नहीं 
सागर की उत्ताल तरंगे तरंगे 
पूर्वी पश्चिमी हवाएं भी उल्लास नहीं कर पाती उन्हें


व्याकुल है वसंत
 बदल रहा ऋतुओं का व्युत्क्रम
 समय पूर्व के चुल्ल छोड़ने को विवश है पृथ्वी


ठिठका है वसंत 
झड़ते वृक्ष -पत्रों के बीच
 सूंघने को कड़ाह में पकते गुड़ की मीठी गंध 
भटकता है सुनने को 
वसंत पंचमी के ढोल 
बंधे रुमालों के कोने से 
छिटकते गुलालों से मीठे बोल।



              बिंब - प्रतिबिंब

तेरी यादों में खोजता हूं
 कभी प्रतीकों में तो कभी भूले बिसरे मिथकों में 
सौंदर्य बोध जागृत करते उन पत्रों ,फूलों ,चेहरों में जिसे छूते ही उभरता है तेरा बिंब - प्रतिबिंब।

लक्ष्मीकांत मुकुल के प्रथम कविता संकलन "लाल चोंच वाले पंछी" पर आधारित कुमार नयन, सुरेश कांटक, संतोष पटेल और जमुना बीनी के समीक्षात्मक मूल्यांकन

लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताओं में मौन प्रतिरोध है – कुमार नयन आधुनिकता की अंधी दौड़ में अपनी मिट्टी, भाषा, बोली, त्वरा, अस्मिता, ग...