Friday 1 July 2022

لکشمی کاںت مُکُل_ دو غزلیں : लक्ष्मीकांत मुकुल की उर्दू ग़ज़लें :



دو غزلیں


(1)

کوہرے سے جھلںکتا ہوآ آئی
مانگیں تھی روشنی یہ کیا آیا

سواری - رتھ پر سوار تھا کوئی
اسکے آتے ہی زلزلہ آیا

گھونںسلے پںنچھیوں کے پھر اجڑے
پھر کہیں سے بہیلیا آیا

دور اب بھی بہار آنکھوں سے
درمیاں بس یہ  فاصلہ آیا

کاکی کی ریت میں بھولی بھٹکی
میگھ گرجا تو زلزلہ آیا

جو گیا تھا ادھر امّیدوں سے
اسکا چہرا بجھا بجھا آیا

باغوں میں شوخ تتلیاں بھی تھیں
پر نہیں پھول کا پتا آیا

(2)

میری غمگین راتوں کو امّیدوں سے سجاتی ہو
میرے خوابوں میں آکر تم میرے دل میں سماتی ہو

نہیں میں جانتا تم کون ہو رشتہ ہے کیا تمسے
مجھے ہر شعے میں اکثر تم دکھائی دے ہی جاتی ہو

کبھی قوسے-قضاہ دیکھوں، کبھی میں چاند میں دیکھوں
کبھی دل کو جلاتی ہو، کبھی نیندیں چراتی ہو

وہی چہرا، وہی آنگن، وہی رنگت گلابی ہے
بھلا کیوں اجنبی ہمراہ کو دلبر رجھاتی ہو

صدا آتی ہے مشرق سے، کبھی آتی ہے مغرب سے
خزاں کے شخت موسم میں جو پائل کھنکھناتی ہو

کبھی رشتوں میں تلخی تو کبھی لگتی ہے نرمی بھی
انگاروں پر جو جلتے پاؤں  تو آنسوں بہاتی ہو

ملے پہلی دفعہ جب ہم جھکی نظروں میں تھی ہامی
محبّت میں بھلا کیوں اب مجھے اتنا ستاتی ہو

_ لکشمی کانت مُکُل



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 दो ग़ज़लें 

(1)

कोहरे से झांकता हुआ आया
मांगी थी रोशनी ये क्या आया

सूर्य  - रथ पर सवार था कोई
उसके आते ही जलजला आया

घोंसले पंछियों के फिर उजड़े
फिर कहीं से बहेलिया आया

दूर अब भी बहार आँखों से
दरमियाँ बस ये फ़ासला आया

काकी की रेत में भूली बटुली
मेघ गरजा तो जल बहा आया

जो गया था उधर उम्मीदों से
उसका चेहरा बुझा बुझा आया

बागों में शोख तितलियां भी थीं
पर नहीं  फूल का पता आया

(2)

मेरी गमगीन रातों को उम्मीदों से सजाती हो
मेरे ख्वाबों में आकर तुम मेरे दिल में समाती हो

नहीं मैं जानता तुम कौन हो रिश्ता है क्या तुमसे
मुझे हर शय में अक्सर तुम दिखाई दे ही जाती हो 

कभी क़ौसे-क़ुज़ह देखूं, कभी मैं चांद में देखूं
कभी दिल को जलाती हो, कभी नींदें चुराती हो

वही चेहरा, वही आंगन, वही रंगत गुलाबी है
भला क्यों अजनबी हमराह को दिलबर रिझाती हो

सदा आती है मशरिक से, कभी आती है मगरिब से
ख़िज़ाँ के सख़्त मौसम में जो पायल खनखनाती हो

कभी रिश्तों में तल्खी तो कभी लगती है नर्मी भी
अँगारों पर जो जलते पांव तो आंसू बहाती हो

मिले पहली दफा जब हम झुकी नज़रों में थी हामी
मुहब्बत में भला क्यों अब मुझे इतना सताती हो
_ लक्ष्मीकांत मुकुल 

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نظم

اپنی جھکی  پلکیں ذرا  اٹھائے جناب
دھیرے سے ہنس کے ایسے نہ شرمائے  جناب
گستاخ ہواؤں نے اڑایا تیرا آنچل
شرم وحیا کے ساتھ سر پر لائے جناب

تڑپانے لگی دل کو میرے آپکی ادا 
کانوں میں گونجتی ہے سدا آپکی صدا
خاموش کھڑے کیوں ہے اک بت کی طرح
نظروں سے اپنے تیر تو چلائیں جناب

یوں ہو کے خفا اور نہ تڑپائے ہمیں
خاموش رہ کے اور نہ ستائے ہمیں
کیوں اپنی ہنسی ہاتھوں پر دبانے لگے آپ
ایک بار ذرا کھیل کے مسکرائے جناب

رہ رہ کے کترنا ہے نخیں آپکا
چڑھتا ہی جائےمجھ پے جنون آپکا
 ہوٹوں پے روکتے ہیں کیوں جذبات کو اپنے 
کھیل کے اپنا پیار بھی جتائے جناب

خوابوں میں آپ روز میرے پاس ہوتے ہیں
کھل جاتی ہیں جب نیند ہم اُداس ہوتے ہیں
یہ آنکھ میچونی اچھی نہیں ہے آپکی
میرے قریب بھی تو کبھی آئیں جناب

۔۔لکشمی کانت مکل



नज़्म 


अपनी झुकी पलकें जरा उठाइए जनाब
धीरे से हंस के  ऐसे न शर्माइये जनाब
गुस्ताख़ हवाओं ने उड़ाया तेरा आंचल 
शर्मो हया के साथ सर पे लाइए जनाब

तड़पाने लगी दिल को मेरे आपकी अदा
कानों में गूंजती है सदा आपकी सदा
ख़ामोश खड़े क्यों हैं एक बुत की तरह
 नजरों से अपने तीर तो चलाइए  जनाब

यूं हो के खफा आप न तड़पाइए हमें
ख़ामोश रह के और ना सताइए  हमें 
क्यों अपनी हंसी होठों पे दबाने लगे आप
 एक बार ज़रा खुल के मुस्कुराइए  जनाब

रह रह के कुतरना ये नाखून आपका
चढ़ता ही जाए मुझ पर जुनून है आपका
 होठों पे  रोकते हैं क्यों जज़्बात को अपने
खुल के अपना प्यार भी जताइए जनाब

 ख़्वाबों में आप रोज मेरे पास होते हैं
खुल जाती है जब नींद हम उदास होते हैं 
ये आंखमिचौनी अच्छी नहीं है आपकी
 मेरे करीब भी तो कभी आइए जनाब
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پلا گاؤں کی مٹّی میں، بوتا کھیتوں میں کویتا
پینی دریشتی مُکُل کی شبدوں میں کٹار ہے 
 گاؤں  ، کھیت خليحان  دھان اوساتا کسان
دیشج بیمب کاوی کا،  دھونیت جھنکار ہے
گرامیں  ویتھا ویدنا، شوشیت  پڑا دمن
بوڑھا والا پیپل کی کریں پُکار ہے ۔

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مرتب شاعری میں سمٹی ہے سمگرتا
جولنت سروکاروں سے سارتھک سمواد ہے 
کھنڈروں میں گھر ہے، اُداس ندی کوچانو
سونی ہے پھر ندیان، پھیلا اوست ہے
دھان کا کٹورا آج، روگڑ ہے نساد ہے
لوک رنگ محاورہ گنوی جیون رس 
بدلے پرویش کا سچّا انوواد ہے ۔
     _ ہمکر شیام، رانچی




1.

पला गाँव की मिट्टी में, बोता खेतों में कविता
पैनी दृष्टि मुकुल की, शब्दों में कटार है
गाँव ,खेत खलिहान,धान ओसता किसान
देशज बिम्ब काव्य का, ध्वनित झंकार है
ग्रामीण व्यथा वेदना, शोषण-पीड़ा-दमन
बोधा वाला पीपल की, करुण पुकार है
लाल चोंच वाले पंछी, चेतना है मुक्तिगामी
प्रतीक मौलिक ताजा, भाषा धारदार है

2.

संकलित कविता में, सिमटी है समग्रता
ज्वलंत सरोकारों से, सार्थक संवाद है
खंडहरों में घर है, उदास नदी कोचानो 
सूनी हैं पगडंडियाँ, फैला अवसाद है
रेत हुए खेत सभी, कौवे का है शोकगीत
धान का कटोरा आज, रुग्ण है, नाशाद है
लोक-रंग मुहावरा, गँवई जीवन-रस
बदले परिवेश का, सच्चा अनुवाद है

-हिमकर श्याम,रांची

लक्ष्मीकांत मुकुल के प्रथम कविता संकलन "लाल चोंच वाले पंछी" पर आधारित कुमार नयन, सुरेश कांटक, संतोष पटेल और जमुना बीनी के समीक्षात्मक मूल्यांकन

लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताओं में मौन प्रतिरोध है – कुमार नयन आधुनिकता की अंधी दौड़ में अपनी मिट्टी, भाषा, बोली, त्वरा, अस्मिता, ग...