Tuesday 24 March 2020

लक्ष्मीकांत मुकुल की कोरोना वायरस पर कविता

     कोरोना महापिचास
                                 _लक्ष्मीकांत मुकुल


वह कोई कबंध नहीं 
या, पशुओं में फैलता खुरहा, मुंहपका रोग
 न तो वह डाल पर का झूलता कोई बेताल
 यह  है शैतानी दिमाग द्वारा तैयार इंद्रजाल 
 हरकतें करता उस लकड़हारे की तरह
 वृक्ष पर बैठने की  टहनी पर 
चला रहा था जो दनादन कुल्हाड़ी

गहरी साजिशों की तरह वे शैतान 
उत्पन्न कर रहे हैं मनुष्यता के विरुद्ध जैविक हथियार जिनके पास गुण नहीं होते
 बांझ पपीते में उगाने को फल 
जिनके जनमाए रोबोट नहीं बना सकते 
मधुमक्खियों जैसे  शहद - बूंद
 उनके बनाए हाइड्रोजन बमों से बंजर हो गई मरुभूमि पर नहीं बरसाई जा सकती झमाझम बारिश 
जिससे गदरा कर उभर आती गर्भवती स्त्री
 सदृश इस धरती की काया


दूर अंतरिक्ष से घूम कर आते उल्का पिंडों से 
कहीं ज्यादा खतरनाक हैं शैतान वैज्ञानिकों के दिमाग पूंजीवादी दवा कंपनियों ,मनुष्य विरोधी ताकतों के साथ मिलकर वे बना रहे हैं  समयबद्ध योजनाएं 
कभी प्लेग, एड्स, वर्ल्डफ्लू ,कोरोना महापिचास
 जैसी फैलाने के लिए महामारियां 
वायुमंडल में फैला देने को जहरीले विषाणु 
जलीय जीवन में विषाक्त कचड़े
स्थलों पर जीवन को तबाह कर देने के षड्यंत्र 


यह महापिचास पांव फैला रहा है वैसा ही 
जैसे दशक भर पूर्व दलदल में धंस कर 
मरे पशु की सड़न से  विषाक्त
 हो चुकी थी बरसाती नदी 
जिसके पानी पीकर तड़प-तड़प कर
 मरने लगी थीं मेरे गांव की दुधारू भैंसें


कोरोना जैसे दानव - दूतों के आगमन से  रोकी
 जा रही हैं मिलने -जुलने की तमाम संभावनाएं
 स्वजनों को छूने- चूमने पर  लग गया है कर्फ्यू 
मुंह में जाब लगाने को किया जा रहा है विवश


उन शैतानों के हौसले में नहीं शामिल 
जो रेत होती नदियों को लौटा दे छल - छल धार आकाश में तैरते  हुए उजले बादलों में पानी 
खोंखड़ होते जा रहे जंगलों में वृक्ष - लताएं 
ढूह जा रहे पर्वतों को गुंजार करते झरने


उनके हाथ पीड़ितों के आंसू पूछने के लिए नहीं बने 
वे बने हैं आपकी जेब में छिपे 
पसीने की कमाई को झटकने के लिए 
अपनी झमाझम करती थैलियों में !






          लक्ष्मीकांत मुकुल के कोरोना पर हाइकु



पांव पसारा 
कोरोना का  पिचास 
बंद जिंदगी !



 लगा है जाब
सूंघने चूमने पे
 उदास भौरें






रूठी हो तुम
कोरोना के भय से
छू न सका हूं





थर्रा उठी है 
मनुष्यता,विषाक्त
जैविक -अस्त्र




रुका स्नान
खड़ा नदी मार्ग में
प्रेत - कोरोना

लक्ष्मीकांत मुकुल की कविता - पंक्तियां हस्तलिखित सुलेखन में।

Friday 13 March 2020

लक्ष्मीकांत मुकुल के दू गो भोजपुरी गजल

लक्ष्मीकांत मुकुल के दू गो भोजपुरी गजल

गजल 1:- 


मन काहें दो टूटल बाटे           
नइया बीचही फूटल बाटे      
                   
रिश्ता नाता लथराइल बाटे                      
करमी के जस खूँटल बाटे                       

आम बइर ना लउके कतहूँ                      
चिन्हास गाँव के लूटल बाटे                 

  हेरा गइल सुतार कटिया के                  
   खेत धधकत इहे पूछत बाटे                     

 मिलल देह ना मिलल नेहिया                    
  माहुर से दिन हर घूँटल बाटे



गजल 2 :-  


गँवे गँवे कइसन खराँस भरल जाता 
 गुड़ही जिलेबिया तितास भरल जाता    


                                   
   साँझ भोर कुछो समुझ में त आइत 
 मधि दुपहरिये कुहास भरल  जाता          


 भोज भोजहरिया ना गाँव में सोहाता 
 झुझुन बिकास के थपास भरल जाता        


 होरी लुटात बाड़ें मुखिया  दुआर पर  
 जोजना के आस  झलाँस भरल जाता

लक्ष्मीकांत मुकुल की सात ताजा कविताएं


लक्ष्मीकांत मुकुल की सात  ताजा कविताएं



             नियोजित शिक्षक

नौकरशाहों की नजर में बने अछूत प्राणी 
लोकशाही की नजर में बूट फेंक कर बझाए बंदर 
 तो लोगों की नजर में रिफ्यूजी लगते हैं नियोजित शिक्षक

शिक्षा माफिया मूंगफलियां चबाते हुए इनके ऊपर फेंकते हैं छिलकों के ढेर 
अधिकारी मुंह बिचकाते देखते हैं इनकी ओर 
जैसे उनके पांव औचक पड़ गए हों ' खंखार ' पर 
वक्र दृष्टि से देखते हैं इनकी ओर खींच लेने को
 इनके फड़फड़ाते पंख निचोड़ लेने को 
इनका सारा जीवन द्रव्य

नियोजित शिक्षकों को अब तक हासिल नहीं भारतीय संविधान में नागरिक होने का दर्जा समान 
काम समान वेतन की बात तो दूर ,उन्हें नहीं समझा जाता कुर्सी पर साथ बैठाए जाने का काबिल 
इनके श्रम से आती गंध उन्हें सोने नहीं देती  रात भर इनके बोलने के ढंग मखान के कांटों की तरह चुभते हैं इनके चलने की अंदाज से पिछड़ेपन का आभास होता है उन्हें

नियोजित शिक्षकों को देश के महान न्यायालय ने नहीं माना इन्हें वाजिब मनुष्य 
जानवरों की तरह खूंटे से बंधे गुलाम 
रोमकलीन दास प्रथा के वर्तमान नजीर 
कम दाम पर दिनभर खटते, शासन की आंखों में कीट बने इन शिक्षकों के घरों में कभी नहीं  संवरती व्यंजनों से भरी थाली 
घरे रह जाते हैं सुखी जीवन जीने के सभी इंद्रधनुषी सपने 
तारतार झड़ जाता है
बुने गए अपने बच्चों का स्वप्निल भविष्य
 पीली नहीं हो पाती इनकी बेटियों के हाथ 
उनकी गीली आंखों से भींगती रहती है यह धरती

सत्ता में बैठे लोग ऊपर -ऊपर ही कुतरते हैं  इनके मेहनत की मीठे फल 
आपाधापी में लगी रहती हैं सरकारी मिशनरियां 
रौंद देने को आतुर इनकी सप्तपर्णी खुशियां 
कुचल देने को तत्पर 
अधिकार के आंदोलन में उठे इनके हाथ
 इनकी सरगर्म मुट्ठियां 
 सड़कों पर ,चौराहों पर ,राजधानी के तिराहों  पर गूंजते हैं इनके नारे ,उठते हैं इनके बोल 
महज अपने लिए नहीं ,लाखों-करोड़ों बच्चों के
 दर्दीले कंठों के साथ।




            यह कैसा समय है


यह कैसा समय है
जब कजरारी घटाएं भूल 
जाती हैं बरसने की जिम्मेदारी 
वनस्पतियां भूल जाती हैं समयानुसार फूलना - फलना मौसम बदल रहा है ऋतु - चक्र का प्रत्यावर्तन मानसूनी हवाएं पाला बदलकर 
पश्चिमी विक्षोभ में हो रही हैं शामिल 
सूरज की किरणें अत्यधिक 
तड़पा रही है धरती की काया 
पूर्णता से अपनी चांदनी  नहीं बिखेर पा रही है चंद्रकिरण किरणें

यह कैसा समय है 
पत्थरों को काटने के नाम पर
 खत्म किए जा रहे हैं पहाड़ 
उद्गम के पास ही दम तोड़ रही हैं नदियां 
साल  -दर - साल  जा रहे हैं जंगलों की आयतन
 तेजी से विलुप्त हो रही हैं अनगिन भाषाएं 
विविधता भरी संस्कृतियां 
लोगों के राग -अनुराग

यह कैसा समय है रोजगार मांगने वालों को 
कहा जाता है टुकड़े-टुकड़े गैंग वाला
 न्याय की गुहार करने वाले को आतंकवादी विश्वविद्यालय के होनहार छात्रों को अर्बन नक्सली रोटी के लिए भुखमरी झेल रहे लोगों को देशद्रोही संविधान की दुहाई देने वालों को विदेशी घुसपैठिए सही आजादी की मांग करने वालों को देश के गद्दार

यह कैसा समय है 
कि गुंडे कॉलजों में पीट रहे हैं शिक्षकों को घसीट कर मारा जा रहा है एकांत लाइब्रेरी में पढ़ रहे छात्रों को
 बदला जा रहा है हमारे देश काल का इतिहास
 कच्ची दिमागों में भरा जा रहा है शैतानी हरकतें 
अपने ही देश के नागरिकों से मांगा जा रहा है नागरिकता के प्रमाण

यह कैसा समय है 
जब गहन अंधेरे को उजाला 
संडास के पानी को गंगाजल 
लुटेरों को सही मनुष्य 
मानने का चलन हो गया है इस समय।


          शाहीन बाग के  खग - झुंड

निकट आकाश में गिरहबाजियां करते 
कबूतरों की नहीं होते पहचान पत्र
 बसंती मौसम में गेंदे के फूलों पर
 पंख फड़फड़ाती तितलियों की 
चाहत में नहीं होता राशन कार्ड
धन -धन की आवाज करते भौरों से
गंधित पंखुड़ियां नहीं मांगती 
देखने को कोई आधार कार्ड

दूर-दूर तक पेड़ों पर बसेरा डालने वाले 
बगुलों को जरूरत नहीं पड़ती 
जनसंख्या रजिस्टर में दर्ज कराने को नाम
करहे  में छौकती मछलियां 
अनजान हैं रोज बदलते निवास के नियमों से
 उनकी स्वच्छंद दुनिया में
नहीं चलते अंधे कानून

शाहीन बाग के वृक्ष - शिखरों पर यात्रा सफर से
 थके खग - झुंड पूछ रहे हैं अपनी भाषा में
 घबराए -परेशान -उत्तेजित मनुसों की बाबत 
कि तोता -मैना की रोज नई कहानियां गढ़ने वाले
 इस बगीचे में क्यों बढ़ती जा रही हैं
 किसी की नागरिकता छीनने की बेचैनियां !



             यादों में वसंत का प्यार

1

जब भी लौटता हूं पुराने शहर की उस गली में 
यादों के कुहासे चीरती उभरती है वह मुलाकात 
जब मार्च की एक भीनी सुबह में मिली थी तुम 
तुम्हारी स्निग्ध मुस्कान भर रही थी 
जमाने से खोयी मेरी रिक्कता
 तुम्हारी आंखें खोज रही थीं
 मेरे चेहरे में  वसंत के झूलये फूल
 तुम्हारेे थरथराते होठों से बज रहे थे मीठे बोल
 जिनकी धुनों से खींचता 
सरकता जा रहा था तुम्हारे पास

तुम्हें देखा था उस दिन हॉस्टल की खिड़कियों से गुलमोहर के पीछे वाली छत पर 
चहक रही थी तुम 
जैसे चहक रही हो बाग में नन्हीं चिड़िया 
थिरक रहा था तरकुल के पत्तों- सा
 मेरा मन -तन  हड़.. हड़ ..खड़ ..खड़


2.


न जाने कितने वसंत बीत गए होंगे 
 दस, बीस, तीस नहीं ज्यादा 
जब इंतहान में साथ बैठी थी तुम
 एकदम पास बीते भर की दूरी भी नहीं 
कितने साथ हो गए थे हम बस कुछ दिनों के लिए तुम्हारे सांस में घुलते गए मेरे सांस
 तुम्हारी धड़कनों में मेरा धड़कन
 तुम्हारी हंसी में उलझी गई मेरी हंसी
 हवा में उड़ते बाल तुम्हारे बाल 
अक्सरहां ढक लेते थे मेरी देह
 हम कुछ समय साथ चले थे ,कुछ ही कदम

इतने अंतराल गुजर जाने पर भी
 क्या तुम्हें याद होगा मेरा साथ
 या खो गई होगी तुम
 रोज बदलते हम राहों की दुनिया में

मैं तो अभी वही ठिठका हूं , जहां मिली थी तुम 
जैसे मिलते हैं दो खेत बीच की मेड़ों पर 
आंखें गड़ाए कभी न कभी लौट होगी तुम
 इस पगडंडी पर कभी किसी वसंत में।



3.


तुम्हें  पहेली की तरह लग रही होंगी वे घटनाएं 
कुछ अजीब बेवकूफी  भरी 
जब पहली बार गया था यह गंवार अपनी परीक्षाएं देने शहर में ,जिसे ठहराया गया था
बस्ती के किनारे वाले घर में 
और शाम को अकेले देखने 
चला गया था चौराहे की चकाचौंध 
अंधेरा छाते भटक गया अपना रास्ता 
जैसे नदी किनारे चरता बछड़ा 
 भूल जाता है पिछली राहें और भटकते हुए चला जाता है नदी की राह में दूर 

भूला भटका यह एक पान की गुमटी पर 
पूछने लगाए अपने ठहराव की राह 
उसके जेहन में बस इतना ही याद था कि उसके ठहराव के आगे सहन है, पूरब -पश्चिम के कोने पर पुराना जर्जर ट्रांसफार्मर और रास्ते में दिखा था किसी राजपूत लॉज का बोर्ड 
दो सज्जन रात के अंधेरे में लाए थे उसे ठिकाने पर जैसे अंधेरा छाते लौट आता है
 बसेरा में  भटका कोई पक्षी

पहली बार एग्जाम के लिए बेंच पर बैठते ही दिखा तुम्हारे प्रवेश पत्र पर लिखा पिता का नाम
भौचक रह गया  रह गया कि वही थे वे सज्जन
 जो रात के मेरे भटकेपन में दिखाए थे प्रकाश
 ऐसा लगा  पहली बार  धरती सचमुच में होती है गोल तब खिलखिलाने लगे थे मेरे सतरंगी सपने
 आने लगी थी गुनगुने दूध में घुले गुड़ की महक
 यह अनाड़ी भटकता रहा 
तुम्हारी खटतुरस प्यार की चाहत में।


4.

अभी कहां होगी तुम, पुराने शहर के वे रास्ते 
भर गए होंगे टूटे पत्तों से 
तुम्हारी चमकती आंखें , थिरकते होंठ 
गुच्छों जैसे बाल, चेहरे से छलकती मुस्कान
 क्या बचे होंगे  समय की क्रूरता के आगे 
अगर नहीं तो तुमने अवश्य ही बचा रखा होगा 
अपने भीतर की कोमलता 
हमारी मुलाकात की स्मृतियां 
जैसे जीवन की इस पड़ाव पर 
यादों में होता है कच्चे अमरूद की  महक 
गो - थन से सीधे गार कर पिये दूध की गंध 
वैसे ही भूले नहीं भूलता 
यादों की वसंत का हमारा अधखिला प्यार।


     अयोध्या में परदादी की धर्मशाला कहां है ?


सुनता आ रहा हूं बचपन से 
कि मेरी परदादी ने कभी बनवाया था 
अयोध्या के कहीं रामानुजकोट में 
राहगीरों को ठहरने के लिए धर्मशाला

कौतूहल है  तब से मेरे मन में 
कि कहां है अयोध्या ,मेरे गांव से कितनी दूर 
शहर के किनारे या बीच में 
किस हालत में होगी उनकी धर्मशाला

यहां से कभी कोई नहीं जाता  अयोध्या 
न तो वहां के लोग आते हैं इधर 
सीधा- पिसान बटोरते एक तीर्थयात्री ने कभी 
कहा था कि तेरी दादी का शिलापट्ट
 लगा है अयोध्या की उस धर्मशाला में 
जिस पर सुबह में सूरज की किरणें छिटकती हैं प्रकाश चारों दिशाओं से बहती हवाएं चमकाती हैं उसे

पचासी पार कर चुके बड़का बाबू जी
 कहते हैं कि किशोरावस्था में वे गए थे वहां 
धर्मशाला निर्माण के बाद के भंडारे में 
कहीं रामघाट जाने वाले रास्ते पर 
होगी वह धर्मशाला

बरांबार सोचता हूं देखने जाने को
परदादी  का अयोध्या
 उनकी धर्मशाला, उनके स्मृति चिन्ह
परंतु जाने का साहस नहीं कर पाता हूं कभी
डरता हूं तीर्थ स्थलों पर मिलते ठग - बटमारो से
 कभी दूर यात्रा में भूल जाने का भय 
जेब में कम होते पैसे रोकते हैं मेरे पांव

यूं तो अयोध्या जाने वालों की 
कभी कमी नहीं रही दुनिया में 
एक आधुनिक राजा तो रथ हांक कर
 जा रहे थे अयोध्या 
हजारों लोग होहकारी भरते
पहुंच रहे थे किसी पुरानी इमारत को तोड़ने 
साधु - सवाधू , नेता - नगाड़ी ,पुलिस - पियादा के झुण्डों से भर गई थीं वहां की सड़कें 
खुलेआम मूत्र विसर्जन - सरेआम मल त्याग से
 बिलबिलाने लगी थीं वहां की गलियां

भयातुर हूं मैं इन दिनों 
कि पुरानी इमारतों को तोड़ने वाले वे उपद्रवी 
कहीं मिट्टी में न मिला दिए हो परदादी की धर्मशाला उनकी उपलब्धियां ,उनकी जीवंत स्मृतियां 
तब किस से पूछूंगा उसका पता ठिकाना
 रिक्शावाले, ठेले वाले ,रेवड़ी वालों से 
अगर वे बता  न पाये या बताने में संकोच करें तो 
सरजू की बहती जलधार से 
हनुमानगढ़ी के बूढ़े बंदरों से 
टिकरी रिजर्व्ड फॉरेस्ट से आये पंछियों के दल से सूरज की चमचमाती किरणों से 
रात में टिमटिमाते तारों से पूछने पर 
अवश्य ही मिलेगा उसका हाले पता

सुदूर गांव से अयोध्या तक 
खुशियों के पंख फैलाने वाली
 मेरी बुढ़िया मैया ,
ओ मेरी पुरखिन ,
मेरी अच्छी परदादी 
माफ करना मुझे, सहेज नहीं पाया 
तेरी यादों के निशान 
फिर भी तुम जीवित हो जाती हो क्यों हर बार 
हमारे भीतर रगों में, हमारी कोशिकाओं में 
मनुष्यता की राह दिखाती हुई।


        ठीक का है वसंत

भकुआया है बसंत 
उसकी अगवानी में बिछे नहीं 
मसूर  - मटर की उजले फूल 
अचंभित है वसंत 
किशोर मनों में उठती नहीं 
सागर की उत्ताल तरंगे तरंगे 
पूर्वी पश्चिमी हवाएं भी उल्लास नहीं कर पाती उन्हें


व्याकुल है वसंत
 बदल रहा ऋतुओं का व्युत्क्रम
 समय पूर्व के चुल्ल छोड़ने को विवश है पृथ्वी


ठिठका है वसंत 
झड़ते वृक्ष -पत्रों के बीच
 सूंघने को कड़ाह में पकते गुड़ की मीठी गंध 
भटकता है सुनने को 
वसंत पंचमी के ढोल 
बंधे रुमालों के कोने से 
छिटकते गुलालों से मीठे बोल।



              बिंब - प्रतिबिंब

तेरी यादों में खोजता हूं
 कभी प्रतीकों में तो कभी भूले बिसरे मिथकों में 
सौंदर्य बोध जागृत करते उन पत्रों ,फूलों ,चेहरों में जिसे छूते ही उभरता है तेरा बिंब - प्रतिबिंब।

लक्ष्मीकांत मुकुल के प्रथम कविता संकलन "लाल चोंच वाले पंछी" पर आधारित कुमार नयन, सुरेश कांटक, संतोष पटेल और जमुना बीनी के समीक्षात्मक मूल्यांकन

लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताओं में मौन प्रतिरोध है – कुमार नयन आधुनिकता की अंधी दौड़ में अपनी मिट्टी, भाषा, बोली, त्वरा, अस्मिता, ग...