Saturday 29 January 2022

लक्ष्मीकांत मुकुल की दस प्रेम कविताओं का प्रदीप कुमार दाश "दीपक " द्वारा उड़िया भाषा में अनुवाद



*ଲକ୍ଷ୍ମୀକାନ୍ତ ମୁକୁଳଙ୍କ ୧୦ ଟି ହିନ୍ଦୀ ପ୍ରେମ କବିତାର ଓଡ଼ିଆ ଅନୁବାଦ* 

୧)
ପ୍ରତ୍ୟେକ ରଙ୍ଗରେ ଦେଖାଯାଅ ତୁମେ |
ମନ୍ଦାରର ଉଜ୍ଜ୍ୱଳ ଫୁଲ ପରି |
ତୁମେ ଆସିଛ ଆବର୍ଜନା ଭରା ମୋର ଏଇ ଜୀବନରେ |
ପ୍ରଜାପତି ଏବଂ ଭ୍ରମର ପରି ଉଡ଼ି ବୁଲୁଛି  |
ମୁଁ ତୁମ ଚର୍ମରୁ ଉଠୁଥିବା ଗନ୍ଧକୁ ଘ୍ରାଣ କରିଚାଲିଛି |
ତୁମର ସ୍ପର୍ଶରୁ ଉତ୍ପନ୍ନ ଇଚ୍ଛାର କୋମଳତା |
ତୁମର ଜଳୀୟ ଆଖିରେ ଛାଇ ରହିଥିବା ପୋଖରୀର ବିସ୍ତାର |
ତୁମ ଧ୍ୱନିର ପ୍ରତିଧ୍ବନିରେ, ଟପ୍ ଟପ୍ ପଡନ୍ତି ମୋ ଭିତରର ମହୁଳ ଗୁଡାକ |
ଏପ୍ରିଲ୍ ସକାଳେ ଯେତେବେଳେ ପ୍ରବାହିତ ହୁଏ ମନ୍ଥର ପବନ |
ଦୋଳାୟମାନ ହୋଇ ଉଠନ୍ତି ଜୋଛନାର ସବୁଜ ପତ୍ର ଗୁଡିକ ନିଜ ଧଳା ଫୁଲ ମାନଙ୍କ ସହିତ |
ଅସ୍ଥିର ହୋଇ ଯାଏ ମୁଁ କିଛି ଟା ସମୟ  |
ରହିଥାଉ ସଦା ଆମ ଏଇ ଘନିଷ୍ଠତାର ସମ୍ପର୍କ  |

୨)
ବାବନୀ ପାହାଡ଼ର ଶିଖରରେ ଉଇଁ ଉଠିଥିବା
ସଞ୍ଜୀବନୀ ବୁଟି ମୁଁ  |
ଜଳୁଥାଏ ମେ ମାସରେ ଜଳୁଥିବା ଅଙ୍ଗରା ସଦୃଶ |
ଜୀବିତ ଅଛି ମୁଁ କେବଳ ଏଇ ଆଶା ନେଇ
ତୁମେ ଆସିବ, ବର୍ଷା ମେଘଗୁଡିକ ସହିତ ଏବଂ ଗୋଟିଏ ସ୍ପର୍ଶରେ ସବୁଜ ହୋଇଯିବ 
ମୋର ଜ୍ୱଳନ୍ତ ଶରୀରର ରୋମ ଗୁଡିକ |

୩)
ଚୁଲିର ପାଉଁଶ ପରି ନୀଳ ହୋଇଯାଇଛି ମୋ ମନର ଆକାଶ |
ତେବେ ତୁମେ ଆସିଯାଅ ହଠାତ୍ |
ଜଳକୁମ୍ଭୀର ନୀଳ ଫୁଲ ସଦୃଶ ଫୁଟି ଉଠ |
ତୁମକୁ ଦେଖିବା ପରେ ତରଳି ଆସନ୍ତି |
ଦୁନିଆର କଠୋରତା ଦ୍ୱାରା ସଙ୍କୁଚିତ
ମୋର ସ୍ୱପ୍ନର ତୁଷାରଖଣ୍ଡ ।

୪)
ଶଗୁନର ହଳଦିଆ ଶାଢୀରେ ଘୋଡେଇ 
ତୁମେ ଏହାକୁ ଦେଖିଲ ପ୍ରଥମ ଥର
ଯେପରି ବସନ୍ତର ଡାଳରେ ଭରିଯାଏ ଫୁଲ ଗୁଡିକ 
ସୋରିଷ ଫୁଲରେ ଆଚ୍ଛାଦିତ କ୍ଷେତଗୁଡିକ
ବଗିଚା ଲିଲି - ଫୁଲରେ ପରିପୂର୍ଣ୍ଣ 
କନିଅରର ନମନୀୟ ଶାଖାଗୁଡ଼ିକ ଧୀରେ ଧୀରେ ହୁଅନ୍ତି ଦୋଳିତ
ତୁମକୁ ଦେଖି ଓହ୍ଲାଇ ଆସେ ହଳଦୀ ରଙ୍ଗ
ଚକ୍ଷୁ ମାଧ୍ୟମ ନେଇ ମୋ ପ୍ରାଣର ଗଭୀରତାରେ
ମୁଁ ଏହି ସମୟରେ ନଦୀ କୂଳରେ ଠିଆ ହୋଇଥିବା ଏକ ଅଚେତନ ବୃକ୍ଷ 
ତୁମେ କୁନ୍ଦୁରୀ ଲତା ପରି ପୁଲୁଇ ପତ୍ର ଉପରେ ଚଢି ଚାଲିଛ
ପବନର ବେଗରେ ଗତି କରୁଛି ତୁମ ଅଙ୍ଗ-ପ୍ରତ୍ୟଙ୍ଗ 
ତୁମରି ସ୍ପର୍ଶରେ କମ୍ପିତ ହୁଏ ମୋର ଉତ୍ତେଜନା ଅବିରତ |

୫)
ଦୀପର ମୁହୂର୍ତ୍ତ ଆଳୁଅ ବର୍ତ୍ତିକାରେ 
ଯେତେବେଳେ ତୁମେ ଆଖିର କୋଣରେ ଲଗାଅ କଜ୍ୱଳ ଗାର |
କଳା ରଙ୍ଗରେ ଉଜ୍ଜ୍ୱଳ ହୋଇ ଉଠେ ତୁମ ଚେହେରା |
ଯାହା ମଧ୍ୟରେ ମୁଁ ଦେଖେ ମଧୁର ସ୍ୱପ୍ନ |
ଆଶଙ୍କାର ଘନ ଅନ୍ଧକାରରେ ମଧ୍ୟ
ଦେଖା ଦିଏ କିଛି ଆଲୋକର ରେଖା ଗୁଡିକ |
ଯାହା ସାହାଯ୍ୟରେ ସୁରୁଖୁରୁରେ ଚାଲିଯାଏ ମୁଁ ଜୀବନର ପ୍ରତ୍ୟେକ ଯୁଦ୍ଧ |

୬)
ସକାଳର ଉଦିତ ସୂର୍ଯ୍ୟ |
ଗୋଲାପର ବିକଶିତ ପାଖୁଡ଼ା ଗୁଡିକ |
ଅଟକି ଯାଇଛନ୍ତି ତୁମ ଅଧରର ନାଲି ଉପରେ |
ଯାହା ସାମ୍ନାରେ ମଳିନ ହୁଅନ୍ତି  ଅବିର-ଗୁଲାଲର ରଙ୍ଗ |
ଚମକପ୍ରଦ ବଜାରର ନକଲି ଉତ୍ପାଦଗୁଡିକ ବିରୁଦ୍ଧରେ 
ଆମେ ଆମ ପାଖରେ ସଞ୍ଚୟ କରି ରଖିପାରିଛୁ
ଏହି ଆଶ୍ଚର୍ଯ୍ୟଜନକ ନୈସର୍ଗିକତା !

୭)
ଇନ୍ଦ୍ରଧନୁର ଅନ୍ତରଙ୍ଗ ମିଶ୍ରଣ ସଦୃଶ
ମିଶିଯାଇଛ ତୁମେ ମୋ ସହିତ
ପଣତ କାନିକୁ ଯେତେବେଳେ ତୁମେ ଚଲାଅ
କଅଁଲି ସ୍ପର୍ଶ ଦିଅ ମୋ କ୍ଷତଗୁଡ଼ିକୁ
ମୁଁ ଘେରି ଆସେ ମଧୁର ସ୍ଵପ୍ନ ଗୁଡିକର 
ଝଡ଼ ବରଷାରେ..!

୮)
ପ୍ରଥମ ଥର
ଗଛରେ ଉଠନ୍ତି ଛୋଟ ପତ୍ର
କ୍ଷେତଗୁଡିକରୁ ଆସନ୍ତି ନବାର୍ଣ୍ଣ ଗନ୍ଧ 
ତୁମେ ମୋ ହୃଦରେ ଆସ
ଲିଚିର ମଧୁର ସ୍ମୃତିକୁ ନେଇ
ନୀଳ ଅପରାଜିତା ଫୁଲ ପରି ଶାଢୀ ତରଙ୍ଗିତ
ଯେପରି ଶେଷ ଜୀବନରୁ ହୋଇ ଅଶାନ୍ତ  
ପ୍ରଥମ ଥର ପାଇଁ ପ୍ରବାହିତ ହୁଏ ମୃଦୁ ବସନ୍ତ !

୯)
ଅନନ୍ତ ଅପେକ୍ଷାରତ
ନଦୀଗୁଡ଼ିକ କଥା ହୋଇଛନ୍ତି ମେଘଙ୍କ ସହିତ
ଗିରିଙ୍କ ସହ ସମୁଦ୍ର 
ଝରଣା ଗୁଡିକ ହ୍ରଦ ସହ
କ୍ଷେତ୍ରଗୁଡିକ ପାର୍ଶ୍ୱରେ ଛିଡା ହୋଇଥିବା ଗଛଙ୍କ ସହିତ 
କେବେଠୁ ପାଖରେ ବସି ରହିଛ
ଶତାବ୍ଦୀରୁ ଚୁପଚାପ୍ ସଦୃଶ 
ତୁମର ଶବ୍ଦ ଶୁଣିବାକୁ
ମୋର କାନ ଆକୁଳ
ତୁମର ପ୍ରତ୍ୟେକ ଶବ୍ଦ
ତୁମର ପ୍ରତ୍ୟେକ ଗତି
ଅନନ୍ତ ଅପେକ୍ଷାରତ |

୧୦)

ପ୍ରଥମ ବର୍ଷା
ମୌସୁମୀ ପ୍ରଥମ ବର୍ଷାର ବୁନ୍ଦା ରେ
ଓଦା ହେଉଛି ଗାଆଁ 
କ୍ଷେତ ଓ ପଡିଆ ଓଦା ହୋଇଯାଉଛି
ନିକଟସ୍ଥ ନଦୀ ଭିଜି ଯାଇଛି
କେନାଲ କୂଳରେ ଠିଆ ହୋଇଥିବା ପିପଲ ଗଛଟି ଭିଜିଯାଇଛି 
ପବନରେ କମ୍ପିତ ଥରହର 
ଭିଜି ଯାଇଛନ୍ତି ଲଜ୍ଜାହୀନ ଅମାରୀ ପତ୍ର
ଭିଜି ଯାଇଛନ୍ତି ଚରୂଥିବା ଛେଳି ଗୁଡିକ 
ଭିଜି ଯାଇଛି ଧ୍ୱଂସାବଶେଷରେ ଘେରି ରହିଥିବା ମୋର ଘର

ଦାଣ୍ଡରେ ଛିଡା ହୋଇ ତୁମେ
ଭିଜି ଯାଇଛ ପବନ ସହିତ
ବାଙ୍କେଇ ଆସୁଥିବା ବରଷା-ପାଣିରେ

କ୍ଷେତରୁ ଭିଜି ଭିଜି
ତୁମ ପାଖକୁ ଫେରି ଆସୁଛି ମୁଁ 
ସାକ୍ଷାତର ସେଇ ଅସୁମାରୀ ଇଚ୍ଛା ନେଇ
ଯେପରିକି ଆକାଶରୁ ପଡୁଥିବା ବୁନ୍ଦା
ଛୁଇଁବାକୁ ହୋଇ ପଡ଼େ ଆକୁଳ
ଶୁଖିଲା ମାଟିରୁ ଉଠୁଥିବା
ଧରିତ୍ରୀର ଭିଟା ଭିଟା ମହକ ।

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ମୂଳ ହିନ୍ଦୀ କବିତାର କବି 
~ ଲକ୍ଷ୍ମୀକାନ୍ତ ମୁକୁଳ

ଓଡ଼ିଆ ଅନୁବାଦକ 
~ ପ୍ରଦୀପ କୁମାର ଦାଶ 'ଦୀପକ'
ଶଙ୍କରା, ଜିଲ୍ଲା- ରାୟଗଢ଼ (ଛତ୍ତିସଗଢ)
ପିନ୍- ୪୯୬୫୫୪
ମୋ.ନଂ- ୭୮୨୮୧୦୪୧୧୧

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# मूल हिंदी कविताएं#

लक्ष्मीकांत मुकुल    की दस प्रेम कविताएं

हरेक रंगों में दिखती हो तुम

1.

मदार के उजले फूलों की तरह
तुम आई हो कूड़ेदान भरे मेरे इस जीवन में
तितलियों, भौरों जैसा उमड़ता
सूंघता रहता हूं तुम्हारी त्वचा से उठती गंध
तुम्हारे स्पर्श से उभरती चाहतों की कोमलता
तुम्हारी पनीली आंखों में छाया पोखरे का फैलाव
तुम्हारी आवाज की गूंज में चूते हैं मेरे अंदर के महुए
जब भी बहती है अप्रैल की सुबह में धीमी हवा
डुलती है चांदनी की हरी  पत्तियां अपने धवल फूलों के साथ 
मचलता हूं घड़ी दो घड़ी के लिए भी 
बनी रहे हमारी सन्नीकटता

2.

बभनी पहाड़ी के माथे पर उगा
संजीवनी बूटी हूं मैं 
जो तप रहा हूं मई के जलते अंगारों से 
जीवित हूं यह उम्मीद लगाए 
कि तुम आओगी बारिश की मेघ - मालाओं के साथ बस एक छुअन से हरा हो जाएंगे 
झुलस चुके मेरी देह के रोवें

3.

चूल्हे की राख- सा नीला पड़ गया है मेरे मन का आकाश
 तभी तुम झम से आती हो
जलकुंभी के नीले फूलों जैसी खिली- खिली 
तुम्हें देखकर पिघलने लगते हैं 
दुनिया की कठोरता से सिकुड़े
 मेरे सपनों के हिमखंड

4.

शगुन की पीली साड़ी में लिपटी 
तुम देखी थी पहली बार 
जैसे बसंत बहार की टहनियों में भर गए हों फूल
सरसों के फूलों से छा गए हो खेत
भर गई हो बगिया लिली- पुष्पों से
कनेर की लचकती डालियां डुल रही हों धीमी
तुम्हें देखकर पीला रंग उतरता गया 
आंखों के सहारे मेरी आत्मा के गहवर में 
समय के इस मोड़ पर नदी किनारे खड़ा एक जड़ वृक्ष हूं मैं 
तुम कुदरुन की लताओं- सी चढ़ गई हो पुलुई पात पर
हवा के झोंकों से गतिमान है तुम्हारे अंग - प्रत्यंग
तुम्हारे स्पर्श से थिरकता है मेरा निष्कलुश उदवेग

5.

दीए की मद्धिम लौ में पारा 
काजल लगाती हो जब आंखों की बरौनीओं में 
काले रंग से चमक जाता है तुम्हारा चेहरा 
जिसके बीच जोहता हूं मीठे सपने
आशंकाओं के घने अंधकार में भी 
दिख जाती है फांक भर मुझे रोशनी की लकीरें 
जिसके सहारे निर्विघ्न चल देता हूं जिंदगी की हर जंग में

6.

भोर का उगता सूरज 
गुलाब की खुलती पंखुड़ियां 
स्थिर हो गई हैं तुम्हारे होठों की लाली पर 
जिसके आगे फीके हैं अबीर - गुलाल के रंग
 चकाचौंध से भरे बाजार की नकली उत्पादों के  बरअक्स 
हमने अपने हिस्से में बचा कर रखी है
 यह अद्भुत नैसर्गिकता !

7.

इंद्रधनुष के रंग युग्मों -सी
 घुल गई हो तुम मेरे संग
आंचल की किनारी से चलाती हो जब 
सहलाती हो जब मेरे टभकते घावों को 
घिर आता हूं मीठे सपनों की
 बारिश की झड़ी में..!

           

                  पहली बार

पेड़ों में आते हैं नन्हें टूसे
खलिहान से आती है नवान्न की गंध
तुम आती हो ख्यालों में 
 लीची की मधुरआभास लिए 
मसूर के नीले फूलों- सी साड़ी  लहराती 
 जैसे ताउम्र में झुरझुराकर  
पहली बार बही हो बसंती हवा !

             अंतहीन प्रतीक्षा में 

नदियों ने बात की बादलों से 
पर्वतों ने समुद्र से
 झरनों ने झील से 
खेतों ने किनारे खड़े पेड़ों से
कब से पास बैठी हो तुम 
 चुप-चुप - सी सदियों से 
तुम्हारे बोल सुनने को
 बेताब है मेरे कान
 तुम्हारी हर आहट 
तुम्हारी हर थिरकन 
अंतहीन प्रतीक्षा में।

 

                    पहली बारिश

मानसून की पहली बूंदों में
भीग रहा है गांव
 भीग रहे हैं जुते -अधजुते खेत
 भीग रही है समीप की बहती नदी 
भीग रहा है नहर किनारे खड़ा पीपल वृक्ष
 हवा के झोंके से हिलती 
भीग रही हैं बेहया ,हंइस की पत्तियां
भीग रही हैं चरती हुई बकरियां
 भीग रहा है खंडहरों से घिरा मेरा घर

ओसारे में खड़ी हुई तुम
भीग रही हो हवा के साथ
तिरछी आती बारिश - बूंदों से

खेतों से भीगा - भीगा
लौट रहा हूं तुम्हारे पास 
मिलने की उसी ललक में
जैसे आकाश से टपकती बूंदें 
बेचैन होती है छूने को 
सूखी मिट्टी से उठती 
धरती की भीनी गंध ।

" हाइकु मंजूषा" में प्रकाशित लक्ष्मीकांत मुकुल के हाइकु

लक्ष्मीकांत मुकुल के प्रथम कविता संकलन "लाल चोंच वाले पंछी" पर आधारित कुमार नयन, सुरेश कांटक, संतोष पटेल और जमुना बीनी के समीक्षात्मक मूल्यांकन

लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताओं में मौन प्रतिरोध है – कुमार नयन आधुनिकता की अंधी दौड़ में अपनी मिट्टी, भाषा, बोली, त्वरा, अस्मिता, ग...