Sunday 23 April 2023

लक्ष्मीकांत मुकुल की अरुणाचल यात्रा


मेरी अरुणाचल यात्रा
(03 नवम्बर - 05 नवम्बर, 2022)
• लक्ष्मीकांत मुकुल

किसी भी मनुष्य के ज्ञान और अनुभव के विस्तार में यात्राओं का महत्व होता है । यात्राएँ आपकी आंतरिकता को संपन्न बनाती हैं। लगातार सीखने का
अवसर देती हैं। एक सर्वथा नये समाज, संस्कृति और दुनिया से परिचित भी करती हैं। मुझे देश-विदेश को जानने का शौक रहा है। परन्तु, घुम्मकड़ी मेरी आदत में शामिल नहीं है,क्योंकि यात्राओं में आने वाला कष्ट मुझे कहीं बाहर जाने से मुझे रोकता है।

अरुणाचल लिटरेचर फेस्टिवल होना है, नामसाई नामक शहर में। राज्य सरकार का सूचना विभाग इसे आयोजित कर रहा है। इस आशय की जानकारी मुझे हिन्दी लेखिका जमुना बीनी ने पूर्व में ही दी थी। ईमेल से इसके लिए एक पत्र भी आया, जिसमें वहाँ मेरी भागीदारी करने और कविता पाठ करने की स्वीकृति  मांगी गई थी। बिहार के एक पिछड़े गाँव में रहने
वाले मेरे जैसा किसान कवि के लिए सुदूर पूर्वोत्तर भारत को देखने-जानने का यह एक अनूठा अवसर था। मैंने अपनी सहमति भेज दी। फिर वहाँ से कार्यक्रम विवरणी और हवाई टिकट भी आये। पहली बार इतनी दूर जाने में कई आशंकाएँ, भय और जिज्ञाषाएँ मन में तैर रही थीं। साहित्यिक सम्मेलन में देश भर के नामी लेखकों से मिलने का अवसर और
सुदूर पूर्व की जीवन संस्कृतिओं को जानने की तमन्ना मेरे भीतर कुछ ज्यादा ही जागृत हो रही
थी। मेरी यह यात्रा गंगा घाटी की एक छोटी-सी नदी कोचानो के किनारे से ब्रह्मपुत्र की सहायक
नदी दिहिंग के तट तक पहुँचने की गाथा है। नदियाँ भी संस्कृतियों - सभ्याताओं को जोड़ती हैं। मैं
अपने गाँव से 5 K.M. मोटर साइकिल से बक्सर जाने के लिए धनसोई बाजार पहुँचा और वहाँ से
टेम्पू से 25 K.m. चलकर बक्सर रेलवे स्टेशन गया। फिर रेल द्वारा पटना पहुँच गया। शाम को
6.45 P.m. पर मेरी फ्लाइट थी। इसलिए दिये गये निर्देशों के तहत मैं दो घंटा पहले ही हवाई अड्डा पर
पहुँच गया था। चेकिंग वगैरह होने के बाद दिल्ली हवाई उड़ान के लिए गेट नम्बर-2 से हवाई इन्क्लेव
की एक बस में चढ़ाकर हमें टर्मिनल से Vistara विमान की सीढ़ी के पास ले जाया गया। बोडिंग
पास तो मुझे पहले ही मिल गया था। अरुणाचल जाने के लिए मैं विमान में चढ़ा। मुझे पहले पटना से
नई दिल्ली, फिर वहाँ से बागडोगरा होते हुए डिब्रुगढ़ जाना था।

हवाई यात्रा का पहला अनुभव

जीवन में पहली हवाई यात्रा। मेरा ही नहीं, मेरे पूरे परिवार के लोगों के जीवन में हवाई यात्रा एक
सपने की तरह थी। मन उत्तेजना, अनुभूति, आशंका और उत्साह से मिला-जुला था। हवाई जहाज क्या था-
भीतर से देखने पर एक बड़ा-सा बस के आकार का। लोग धीरे-धीरे अपनी निर्धारित सीट पर
बैठ रहे थे। मैं भी अपनी सीट पर जा बैठा। मेरी सीट खिड़की के पास थी। खिड़की के पार से
जयप्रकाश नारायण इंटरनेशनल एयरपोर्ट, पटना का भीतरी नजारा दिख रहा था। कुछ देर के बाद
माइक से घोषणा हुई कि हमारा विमान अब कुछ ही देर में उड़ने वाला है। कमर से बेल्ट बांधने
और आपातकाल में बचाव के निर्देश दिये जा रहे थे। हमारा विमान अब पहियों के सहारे चलने
लगा था। पहले विमान को पट्टी पर चलाकर दूर ले जाया जाता है। रनवे की पट्टी के
निर्धारित जगह पर जाकर वह मुड़ा और एकाएक तेज दौड़ने लगा। फिर यह देखो! अचानक अगला
भाग उठा और तेजी से जमीन छोड़ता हुआ उपर उड़ने लगा, ठीक चोंच उठाये, डैने फैलाये राजहंस पंछी की तरह ! विज्ञान का अद्‌भूत करिश्मा, एक दम जादू का खेल | जैसे- जैसे वह उपर उठ रहा था,पेड़, घर, बस्तियाँ सभी आकार में छोटे होते जा रहे थे। फिर अचानक दायां डैना उठाकर विमान ने करवट की और अपने दिशा को मोड़ा। हम अब तक 33 हजार फीट की ऊँचाई पर भारहीन होकर बैठे- बैठे ही उड़ रहे थे। सब कुछ रोमांचित करने वाला नजारा था।


हालांकि इस बीच मेरे कान के भीतर दर्द होने लगा था और ऐसा भी लगता था कि अब मितली होगी। परन्तु
धीरे-धीरे सब कुछ सामान्य हो गया। अब हमारा विमान बादलों के उपर था। उजले- उजले, कहीं उजले
नीले बादल | रंगरेज कुदरत की मशीन में धुने हुए। खिड़की से झाँकने पर धरती पर धुंध और बादलों 
के बीच-बीच में चांदनी रात की हल्की उजास में पतली-पतली घुमावदार रस्सी की डोरियाँ दिख जातीं। वह नदियाँ होंगी । हमारी तरह ही जल‌धारों को यात्रा कराती, मंजिल तक पहुँचाती हुईं। तभी हमारा विमान थरथराने लगा । माइक पर घोषणा हुई कि मौसम खराब है। हवाएँ तेज चल रही हैं। कुछ देर के बाद थरथराना शांत हुआ।
परिचारिकाएँ आईं और अल्पाहार खाने को दिया और गर्मागर्म चाय भी। अंधेरे में नीचे कहीं-कहीं प्रकाश जगमगा रहे थे, वहाँ शहर और बस्तियाँ होंगी । करीब साढ़े आठ बजे यह घोषणा हुई कि हमारा जहाज अब इंदिरा गाँधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर उतरेगा। विमान ऊँचाई से नीचे की ओर उतर रहा था। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र का अद्‌भूत नजारा मैं खिड़की से देख रहा था।
अद्‌भूत, अलौकिक, अप्रतिम | ऐसा मालूम हो रहा था कि हम लाँग शॉट की फिल्म देख रहे हों। दूर-दूर
तक पहाड़ों जैसे ऊँचे मकान, छोटे घर, नहरों जैसी बीच से निकली सड़क, सड़कों पर गाड़ियों की
भीड़ | सब कुछ चमकता हुआ। आश्चर्य मिश्रित भयाक्रांत करती हुई दृश्यावलियाँ। विमान नीचे
आकर रनवे पर दौड़ता हुआ खड़ा हो गया था। यात्री उतरे। मैं टर्ममिनल- 3 आ गया था।वहाँ से घूमते चलते हुए निवास द्वार तक पहुंचा | अगले दिन सुबह आठ बजे मेरी दूसरी फ्लाइट थी। बाहर दिल्ली में कहीं जाकर सुबह के 6 बजे तक वापस आना मेरे लिए संभव एवं उचित नहीं थी। मित्रों ने मुझे सलाह दी थी कि आप टर्मिनल के निकास द्वार के भीतर ही
ठहर जाइएगा, वहाँ बेंच, कुर्सियों आदि के साथ सारी बुनियादी सुविधाएँ नि:शुल्क व सशुल्क
प्राप्त हो जाती हैं। अन्यथा सुबह इतनी जल्दी होटल वगैरह से आकर फ्लाइट पकड़ना मुश्किल
होगा। वह भी एक देहाती अनजान व्यक्ति के लिए तो और भी कठिन। मैं रात भर वहीं कुर्सी पर
लेट- बैठ कर गुजारा। मेरी तरह अनेकों लोग बैठे हुए थे या आ जा रहे थे। दिल्ली एयरपोर्ट पर छोला भटोरा खाया, जो 285 रु का था और चाय 125 रु. कप। जबकि हमारे बक्सर में वही चीजें क्रमश: 30 रु. और 5 रू. में ही मिलती हैं। दिल्ली एयरपोर्ट के निकास का परिपेक्ष काफी लम्बा चौड़ा है। सारी अत्याधुनिक सुविधाओं से युक्त। स्वचालित सीढ़ियाँ, चल सोपान (Escalator &  spider strip),स्वचालित पट्टियाँ | साफ सुबरे टायलेट ( कंबोड एवं नॉर्मल), सेंसर युक्त पानी के नल, साबुन,
कागजी हैड वॉश, गर्म हवा के लिए हीटर आदि की सुविधाएँ नि: शुल्क और बेहतर थीं। सभी छूमंतर
की तरह आपके सामने उपलब्ध। नल के सामने हाथ फैलाओ, पानी गिरने लगेगा। यह सेंसर सिस्टम कितना अजीब, अनूठा और लाभदायक है। चेन वाली सीढ़ी पर खड़े हो जाओ, अपने आप उपरी मंजिल पर पहुँच जाओगे। पैर चलते-चलते दुख रहा हो, तो चल पट्टी पर खड़े हो जाओ! तुम खड़े ही रहोगे, परन्तु वहाँ धरती ही चल रही होगी। साइंस का अदभूत कारनामा । मानव
विकास की गति को दर्शाता हुआ। रात भर नींद मुझे नहीं आई। रास्ते में नींद नहीं, केवल झपकी ही आती है। दिल्ली एयरपोर्ट का रिवाइवल जोन चाहे कितना भी सुरक्षित इलाका क्यों न हो।
फिर सुबह अगला विमान पकड़ने के लिए मैं चला। चेकिंग से गुजरते हुए काफी दूर तक जाना पड़ा।   नई दिल्ली के इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट में काफी संख्या में गेट हैं।भीतर करीब दो कि. मी. दूर तक चलना पड़ा। हालांकि उपर चढ़ कर जाने के लिए लिफ्ट सिस्टम वाली सीढ़ियाँ और अपने आप खिसकती आगे बढ़ती पट्टियाँ यहाँ खूब बनी हुई हैं। एकदम ऑटोमेटिक चलती हुई। परिसर में अनेक किस्म की दुकानें और खरीददारी के लिए उमड़ते
लोगों की भीड़ भी यहाँ खूब है। दिन-रात का यहाँ कोई फर्क नहीं। उड़ान के लिए गेट नं0 -56 से बोर्डिंग पास दिखाता हुआ सुरंगनुमा सीढ़ीदार ढलाऊँ गली से
गुजरता हुआ विमान Vistara VK725 की निर्धारित सीट संख्या 21F पर बैठ गया। विमान रनवे पर
दौड़ता हुआ उड़ गया। सुबह दिल्ली में कोहरा छाया हुआ था। सहयात्री ने बताया कि यह धुंध, धूल और धुआँ के कारण ऐसा है। पंजाब हरियाणा के किसान इन दिनों पलारी जला रहे हैं, उसकी का असर भी है। वहीं फिर से हवाई उड़ान की अनुभूति हुई। कान के भीतर से उठता दर्द, शरीर की झनझनाहट आदि का तीव्र एहसास हुआ| बागडोगरा हवाई पट्टी पर उतरते
समय वहाँ काफी संख्या में नदियाँ दिखाई दी। एक बड़ी नदी और अनगिनित छोटी नदियाँ । बरसात के समय में यहाँ के लोग कितना कष्टप्रद जीवन बिताते होंगे। बीच-बीच में घर-झोपड़ियाँ भी दिखाई दीं। बारिश की दिनों में पहाड़ों की ओर से आती जलधाराएँ यहाँ अपना कितना रौद्र रूप दिखलाती होंगी। यह तो वहाँ के निवासी ही बेहतर जानते होंगे। बागडोगरा एयर फोर्स एयरपोर्ट एक छोटा हवाई अड्डा है।  यह इलाका पहाड़ों से मैदानी भागों में उतरती तेज बहाव की नदियों का है। दार्जलिंग जिले में स्थित बागड़ोगरा के पश्चिम दिशा में भारत - नेपाल की सीमा बनाती मिची नदी है,तो पूरब में बंगला देश के साथ सीमांकन करती महानंदा नदी। उत्तर की ओर दिखती शिवालिक पर्वत श्रृंखला और चाय बगान की हरियाली
यहां की खूबसूरती है। नेपाली,बंगाली,हिंदी, भूटानी,तिब्बती और असमिया संस्कृतियों के मिलन का केंद्र। सेवन सिस्टर्स स्टेट्स को मुख्य भारतीय भूभाग से  सम्बद्धकर्ता क्षेत्र। पूर्वोत्तर भारत को मुख्य भाग से जोड़ता मुर्गे की गर्दन के आकार का गलियारा का क्षेत्र | नेपाल, बंगला देश और भूटान के सीमाओं से घिरा। हमारा विमान वहाँ आधा घंटा रुकने के बाद फिर उड़ा। उत्तर की खिड़की से हिमालय की पर्वत श्रृंखलायें साफ दिखाई दे रही थीं। धुंध, बादलों
से ढंकी हुई। ऊपर छतरी-टोपी जैसे तने मेघ के गुच्छे । अद्भुत नजारा। स्वप्निल दुनिया में विचरने
का आभास। कुछ देर के बाद हमारा विमान फिर नीचे आने लगा। खेत, नदियां, पहाड़ियां आदि साफ
दिखाई देने लगे। मोहनबाड़ी एयरपोर्ट पर हमारा जहाज लैंड किया। उतरने से पहले उत्तर की ओर
दूर-दूर तक ब्रह्मपुत्र की सफेद जलधाराएँ बहुत ही धवल, धारोष्ण दूध की तरह साफ़-ओ-शफ़्फ़ाफ़  और बगुल पंखों की लंबी कतार - सी दिख रही थी। तभी मेरे मोबाइल  की घंटी बजी। एच. के. रॉय का फोन था। वे मुझे रिसीव करने के लिए वहाँ आये थे और मुझे कार में बैठाकर करीब तीन km दूर डिब्रुगढ़ स्थित अरुणाचल प्रदेश भवन में ले गये और बताये कि एक घंटे बाद फ्लाइट से कुछ और लोग आने वाले हैं, फिर उन्हें भी लेकर नामसाई जाना है। हालांकि दो घंटे इंतजार के बाद भी कोई नहीं आया। इस समयावधि में मैं गेस्ट हाउस में यात्रा की थकान को मिटाया।

अरूणाचल गेस्ट हाउस, डिब्रुगढ़

अरूणाचल भवन राज्य सरकार के अधिकारियों का प्रवासी विश्राम स्थल है, जो पूर्वी अरुणाचल प्रदेश के जिलों के तक के जाने वाले मार्ग का पड़ाव केन्द्र है। यह एक तीन मंजिली बिल्डिंग है, जिसके परिसर का कुल विस्तार करीब एकड़ भर में फैला हुआ है। यह भवन डिब्रुगढ़ के मोहनबाड़ी बाजार से दक्षिण एयर फोर्स रोड के पूरब में अवस्थित है।

पूर्वी असम में स्थित डिब्रुगढ़ शहर ब्रह्मपुत्र नद के किनारे बसा है। अहोम भाषा की बुरंजी
पुस्तकों में इसका नाम ती- फाओ कहा गया है, जिसका अर्थ स्वर्गस्थल होता है। यह इलाका
हरे भरे विशाल वृक्षों और असंख्य चाय बगानों के कारण जाना जाता है।

वहीं, असम राज्य भारत का एक सीमांत राज्य है, जो चारों ओर सुरम्य पर्वत श्रृंखलाओं से घिरा है। यह ब्रह्मपुत्र नद बेसिन का मैदानी भाग है। यहाँ की भूमि असमान रूप से ऊँची नीची है। उँची भूमि पर चाय के बगान हैं, तो नीची भूमि पर धान की भरपूर खेती होती है। कहते है कि असम का नामकरण असमान भूमि क्षेत्र या अहोम राज्य की स्मृतियों के आधार पर हुआ होगा।

अरुणाचल गेस्ट हाउस के ऊपरी तल्ले के एक कमरे में मुझे ठहराया गया। वहाँ स्नान करने
के बाद एच. के. रॉय ने मुझे भोजन कराया। वे बहुत ही सज्जन, सरल एवं मिलनसार व्यक्ति हैं। वैसे तो वे पश्चिमी बंगाल के मूल निवासी है, परन्तु अरुणाचल के सूचना विभाग में कार्यरत हैं। गेस्ट हाउस के किचेन में काम करने वाले बंगाली लोग थे। मुझे स्वादिष्ट शाकाहारी भोजन कराये । मेरा मन तृप्त हो गया, क्योंकि दो दिन से मैं ठीक से भोजन नहीं किया था।
मेरे कमरे की खिड़की से खेत दिख रहे थे, जिसमें धान के पौधे लगे थे और बीच-बीच में पेड़।
चिड़ियाँ रंग बिरंगी चहचहाती, घूम मचाती हुईं। सतबहिनी चिड़ियों का वाक्युद्ध और पहाड़ी मैनाओं
के चेंचे झेंझे से गूंजित कलरव से वातावरण गुलजार लग रहा था। कुछ देर के बाद मुझे चलने
को कहा गया। रॉय साहब को अचानक पासीघाट नामक जगह पर किसी बीमार निकट संबंधी से मिलने जाना था, इसलिए वे मुझे एक दूसरी
गाड़ी से नामसाई भिजवाये ।


असम के चाय बगान


डिब्रुगढ़ से तिनसुकिया जाने वाली मेरी गाड़ी Hyndai i10 कार के ड्राइवर मोनू फूकन थे,
वे डिब्रुगढ़ जिला के Bokul maj गाँव के निवासी हैं और एक मोटर एजेंसी में ड्राइविंग का कार्य
करते हैं, जो सैलानियों को सुदूर अंचलों में भ्रमण कराने का काम करती है। ये एक हँसमुख
, उदार और संवेदनशील व्यक्ति होने के साथ-साथ एक निपुण गाइड भी हैं, जो असम के रहन- सहन, खान - पान आदि के बारे में मुझे बताते हैं। डिब्रुगढ़ से
 तिनसुकिया की दूरी करीब 48 K.M. है। एनएच15 पर जाते हुए हम चाय बगान को देखने के लिए रुके। असम के चाय बगान दुनिया भर में मशहूर हैं। करीब कमर भर छोटे आकार के और सौ बरस तक जिन्दा रहने वाले ये पौधे अपनी तलब और हरापन के कारण मन को मोह लेते हैं। इसकी रग- पत्तियों में खुशबू भरा है। बीच-बीच में शिरीष के पेड़ छाया देते हुए, कुछेक तनों में लिपटी हुई काली मिर्च की लताएँ । असम में सैकड़ों चाय बगान हैं। जिनकी दो-तीन पत्तियों (दो पत्र व एक नया किसलय) के गुच्छे को तोड़ा जाता है और मशीनी यंत्रों द्वारा प्रोसिसिंग करके बारिक Tea leaves का पॉकिट बांधकर चाय बोर्ड को भेजा जाता है। चाय बगान में कामगार मजदूर स्त्री पुरुष काफी संख्या में होते हैं। ये पत्तियों चुनने वाले मजदूर प्राय: बंगाल, बिहार और उड़ीसा के गरीब लोग हैं, जो कई पीढ़ियों से यहाँ रह रहे हैं। इनकी हालत बहुत खस्ती है। काफी कम मजदूरी इन्हें मिलती है, जबकि चाय बगान के मालिक सरकार को कोसते हैं कि उनके उत्पादन का न्यूनतम समर्थन मूल्य भी नहीं मिलता, ठीक धान उत्पादक किसानों की तरह !
असम के चाय बगानों का इतिहास करीब दो सौ साल पुराना है। ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी रॉबर्ट ब्रुस
ने एक असमिया व्यापारी के माध्यम से यह जानकारी पाया कि खामती/ सिंगफो जनजातियों
के लोग 'सोमा' नामक पौधे की पत्तियों को पानी में खौला कर पीते हैं, जिससे उनको बड़ी ताजगी मिलती
है।
 उस जमाने में अंग्रेज चीन से चाय का निर्यात करते थे। उसी सोमा पौधों को विकसित करके अंग्रेजों ने
चाय की खेती करना शुरू किया, जिसे Tea Garden कहा गया। चाय का पौधा लगाने के चार-पाँच
साल बाद ही पत्तियाँ तोड़ने लायक होती हैं। इस पौधे को बढ़ने नहीं दिया जाता। कटाई-छटाई करके इसे
ठिगना ही रखा जाता है। चाय बगानों की भूमि बगान मालिकों ने असम सरकार से लीज पर ले रखी
है। स्थानीय असमवासियों के चाय के बगान प्राय: नहीं होते। बाहर की कंपनियाँ इस पर कब्जा जमायी हैं।
चाय बगानों के किनारे मजदूरों की झोपड़ियाँ थीं, जो प्रायः लकड़ी, बांस आदि से निर्मित थीं, उपरी ढाँचा प्राय: टीन की छतों का था ।
रास्ते में कुछ गाँव भी दिखाई देते थे। इकरा घर लकड़ी के बीम या बांस के स्तंभों पर टिके, दोपहले - तिपहले, दीवाले बांस की पट्टियों से बनी, उपर से मिट्टी से समान रूप से प्लास्टर की गई, मुख्य द्वार तक चढ़ने के लिए 5-7 सीढ़ियाँ, उपर टीन के छत-थोड़ी तिरछी शक्ल में- यही असमिया घर की विशेषताएँ होती हैं। काष्ठ उत्कीर्णन कला और घर के चारों ओर लकड़ी के खूबसूरत बाड़ों से सज्जित उनके घरों की नक्काशियाँ देखते ही बनती हैं। गाँव के किनारे पतले गगनचुंबी सुपारी के पेड़ मन को मोह लेते हैं, तो खजूर की तरह दिखने वाला लौंग का पेड़ अपनी छटा से आश्चर्य से भर देता है। इलाइची और लौंग मिर्च की लताएँ वृक्षों की तनों से लिपट कर अठखेलियां कर रही होती हैं। चारों तरफ हरियाली । पहाड़ से निश्चल
पुरुष, वृक्ष सी वत्सल स्त्रियाँ। यहीं पर हरे रंग का सर्प मिलता है - सुग्गा सांप !

पूरे रास्ते मेरे ड्राइवर साहब मोनू फूकन मुझे यहाँ की विशेषताओं के बारे में बताते जाते हैं। मैं उनसे अहोम सम्राज्य के बारे में पूछता हूँ। वे अहोमों के गौरवशाली इतिहास के बारे में बताते हैं और कहते हैं कि मुझे धूलिया, रंगपुर, चराइदेपी आदि जगहों पर घूमना चाहिए, जो एक जमाने में अहोम राजाओं के केन्द्र थे, जहाँ उनके रहस्यमय तलातल घरों के पुरातन चिन्ह अभी भी मौजूद हैं। अहोम शासकों के वंशजों की वर्तमान स्थिति के बारे में पूछे मेरे सवाल पर उन्होंने
विषय में उन्हें कोई जानकारी नहीं है, परन्तु, वे इसके बारे में पता लगायेंगे। उनके अनुसार फूकन, गोगोई, हजारिका आदि समुदाय के लोग अहोम-राज के महत्वपूर्ण अंग थे। फूकन सेनापति हुआ करते थे। मोनू फूकन ने मुझे असमिया संस्कृति में संत शंकरदेव के उपदेश और उनके प्रार्थनागृह नामघर के महत्व के बारे में भी  बताया। इस तरह असम की समाजार्थिक स्थितियों पर बातें करते हुए और सड़क के दोनों किनारों की दृश्यावलियां देखते हुए हम तिनसुकिया पहुंचे।

डिब्ब्रुगढ़- तिनसुकिया के रास्ते में एक रेलवे लाइन दिखी। मोनू फूकन ने बताया कि यह सिंगल लाइन है,
जिस पर दिन में एक-दो ही गाड़ियाँ चलती हैं। सहसा मुझे याद आया कि मेरे गांव के पास के गंगाढ़ी के बालकिसुन ठकुराई किसी जमाने में इधर ही रहते थे। वे मेरे बचपन में मेरा बाल काटते हुए मुझे बताये थे कि वे डिब्रुगढ़ के पास छेछा चाय बगान में नाई का काम किया करते थे और तिनसुकिया से आगे नाहरकटिया में उनके रिश्तेदार लोग रहते थे। वे अपने जमाने में इसी रेलवे लाइन की गाड़ी पर बैठकर जाते होंगे। लोग कमाने के लिए कहाँ-कहाँ नहीं जाते हैं।पता नहींं, उस बगान में कोई उन्हें याद करता होगा कि नहीं? यह सब सोचते हुए मेरा दिल भर आया।बाल किशुन ठकुराई को चालिस बरस पहले देखा था, तब वे काफी बूढ़े हो गये थे। कितने युग बीत गये।
तिनसुकिया से  नामसाई ले जाने के लिए एक दूसरी गाड़ी मेरे लिए खड़ी थी-Swarze dzier कार। इसके
ड्राइवर तिनसुकिया के ही रहने वाले अनिल जी थे, जो मोनू फूकन के साथ ट्रेवलिंग एजेंसी से जुड़े थे।
इन कारों के खर्च का भार अरुणाचल सरकार का सूचना विभाग उठा रहा था, जो साहित्य महोत्सव का
आयोजक था। मेरे लिए यह अच्छा संयोग था कि मेरे नये ड्राइवर भाई भी बड़े ही बातूनी और भद्र थे।
अनिल से मेरी बात बिहार की राजनीतिक स्थिति से शुरू हुई। उनका मानना था कि बिहार में जाति की
राजनीति का बहुत बोलवाला है, वहाँ के नेताओं ने इसका गंदा खेल करके उस अच्छे प्रदेश को
बर्बाद कर दिया है। असम विकास कर रहा है। यहाँ के लोग व्यक्ति को देखते हैं, न कि उसकी जाति को।
उनका कहना था कि अरुणाचल प्रदेश को भारत सरकार असम से बहुत ज्यादा आर्थिक सहयोग करती है, जो सामाजिक-आर्थिक प्रगति के निशान दिख रहे हैं। वह केन्द्र के पैसा के कारण हुआ है। तिनसुकिया
से नामसाई की दूरी 71 K.M. है। रास्ते में ही अरुणाचल चेक पोस्ट पड़ा। अरुणाचल प्रदेश में प्रवेश करने के लिए डिप्पी कमिश्नर से अनुमति लेकर परमिट पास लेना होता है। अरुणाचल सूचना विभाग द्वारा
मेरे प्रवेश के लिए पहले ही अनुमति ले की गई थी। बाहर से आ रहे फेस्टिवल में सभी प्रतिभागियों
का एक साथ सूचीबद्ध करके। ड्राइवर ने सूची पत्र ले जाकर मेरा नाम व पारगमन पत्र पुलिस को
दिखाया और समय व गाडी नम्बर रजिस्टर में दर्ज कराया। रास्ते में मुझे नोआ दिहिंग नदी मिली।

चौड़ी नदी दिहिंग

Dihing


नाओ दिहिंग नदी को बूढ़ी दिहिंग और दिहोंग के नाम से लोग जानते हैं, जिसका अर्थ होता है-चौड़ी नदी।
यह नदी पटाकाई हिल्स से उद्‌गमित होकर 380 K.M. की जलयात्रा करके ब्रह्मपुत्र नद में अपना मुहाना बनाती है। यह पूर्वांचल के दिहिंग मुख से निकलकर अनेक वर्षा वनों, गीले धान के खेतों, चाय बगानों,बांस के जंगलों और पेट्रोलियम क्षेत्रों से गुजरती है। इसकी दिसांग, दिखो, दिसाई और धन सिरी नामक सहायक नदियाँ हैं। यह अपने बहाव के रास्ते में अनेक गोखुर झीलों का निर्माण करती है। प्राचीन अभिलेखों के अनुसार यह नदी पहले पूरे उत्तरी असम के भाग में बहती थी और बोकाखाट के पास
महुरामुख में ब्रह्मपुत्र में विलय होती थी। परन्तु 17 वीं सदी में यह धारा सूख गई। अभी ब्रह्मपुत्र
में इसका मुहाना नागांव जिले के काजलिमुख के पास है। इस नदी का बेसिन मैदानी भाग में हैं, जो अपनी
जैव विविधता एवं वानस्पतिक परिदृश्यता के कारण मशहूर रहा है। नामसाई, डिगबोई, नाहरकटिया
जैसे शहर इसी की घाटी में आते हैं। NH15 का नदी पुल 660 मीटर लम्बा है, मार्च, 2002 में निर्मित हुआ।

दिहिंग नदी के उद्भव एवं उसके मैदानी क्षेत्रों के निर्माण के विषय में प्रसिद्ध एन्थ्रोपोलोजिस्ट वेरियर एलविन ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक Myths of the North East Frontier of India  में J. Errol Gray की Diary of a journey to the Bor Khamti country in 1892-93 को उद्धृत करते हुए सिंगफो जनजाति के एक लोक कथा में आस्था और विश्वास को इस प्रकार वर्णित किया है,जिसका मेरा द्वारा हिन्दीनुवाद इस प्रकार है_
" युगों पूर्व डाफा घाटी में  मिरीस की एक जाति निवास करती थी। कुल सात गांव थे उनके, और वे धाराओं के दोनों किनारे बसे थे। उन दिनों की तरह कोई खुला घास का मैदान नहीं था, बल्कि जंगल जल की तीर तक पसरा हुआ था। एक दिन शिकार पर निकले मिरीस के एक दल को एक विचित्र जीव को दफा और दिहिंग के संगम पर एक पत्थर पर बैठा दिखा। ये पिता और पुत्र की दो जल आत्माएं थी; जो नदी के किनारे के खुले भाग में धूप का आनंद ले रही थी। किन्तु मिरीस दल को इन जीवों की प्रकृति के बारे में कुछ भी ज्ञान न था - और उनके दल में से एक ने धनुष पर बाण चढ़ाकर बड़ी आत्मा को पीठ की ओर से वेंध दिया, उसकी मृत्यु  तत्क्षण हो गई। युवा आत्मा नदी में छलांग लगा दी और गुम हो गई। मिरीस मृत शरीर के पास आए और पाया कि जिसकी उन्होंने हत्या की है; वह कोई सामान्य जीव नहीं है और यह अनुमान करते हुए कि वह कोई परा प्राकृतिक जीव है, सशंकित हो उठे  कि उन्होंने कोई बड़ी गलती की है, और शीघ्र ही वह वहां से भाग गए। युवा आत्मा जो जल में कूद गया था, आगे बढ़ता गया जब तक कि वह अपनी मां के पास न पहुंच गया और जब उसने अपनी जीवित बचे अभिभावक को यह बताया कि क्या हुआ है? तब उसने तुरंत बदला लेने का निश्चय किया। यह बदला उसने एक बड़े भूस्खलन से दाफा की घाटियों में संकीर्ण और गहरे प्रवाह पथ में पैदा कर दिया। फिर उसने इस बांध को एकाएक तोड़ दिया। जल प्रवाह ऊंची उठती तेजी से नीचे घाटी में बहने लगा- और उसका विस्तृत प्रवाह मार्ग सारे जंगलों को उजाड़ता- बहाता चला गया। सातों मिरीस गांव जो नदी के किनारे बसे थे, उनके अवशेष तक  कुछ न बचे। उसी समय पुराने जंगल के स्थान पर नए हरे घास वाले मैदान बने और खुले में बड़ी-बड़ी चट्टानों और पत्थरों का पाया जाना यह पुष्ट करता है कि यह तेज और ऊंची धाराओं के अचानक प्रवाह के कारण ही है।"

दिहिंग नदी के विषय में अंग्रेज यात्री टी. टी. कूपर ने अपने यात्रा वृतांत' विजिट टू मिश्मी हिल्स' में बहुत
ही मनोहारी चित्रण किया है। उनकी यह यात्रा कोलकाता से मिश्मी पहाड़ तक सन् 1869 ई.हुई
थी। डिब्रुगढ़ से तेंगापानी जाते हुए इस नदी से उन्हें मुलाकात हुई थी। उनके द्वारा दिये गये  यात्रा-
विवरण से ज्ञात होता है कि तब नदी का किनारा जीवंत और मनोरम था। जलकागों के झुंड नदी के ऊपर उड़ रहे थे और किनारे के वृक्षों की शाखें आधी डूबी हुई थीं। नाविक अलाव तापते हुए उंघ
रहे थे। तट पर हिरणों के झुंड और धार में मगरमच्छ चहलकदमी कर रहे थे। बत्तखें फड़फड़ा रही थीं।
वहाँ पीली पंखों वाले पंछी मिले। उसने माना कि यह बहुत शुभ है, क्योंकि महान लामा के लिए पीला
पवित्र रंग है। उसने अपनी डायरी में दिहिंग के जल को स्वच्छ और अविरल धारा वाला कहा था।
परन्तु, आज हमने भौतिक विकास की अंधी दौड़ में सबसे ज्यादा नुकसान अपनी जीवनदायिनी नदियों
को ही बनाया है, वे अब के समय में साफ मीठा जल नहीं, बल्कि प्रदूषित कचरा ढो रही हैं।


नया बसता शहर नामसाई

नामसाई अरुणाचल प्रदेश का एक छोटा जिला है, जो पूर्णतः मैदानी भाग में बसा है। इसका मुख्यालय
इसी शहर में है। जिसकी कुल आबादी 2011 की जनगणना के अनुसार 95,950 है। यह शहर राष्ट्रीय
राजमार्ग संख्या - 15 से जुड़ा है। यह एक नया जिला है, जो लोहित जिले से काटकर 25 नवम्बर 2014
को बना था। इसके उत्तर पश्चिम से दक्षिण पश्चिम तक असम की सीमा लगती है और पूरब में लोहित एवं
दक्षिण में चांगलांग जिला है। यहाँ जनसंख्या का घनत्व 15 व्यक्ति पर कि. भी है। जिले की साक्षरता दर 65.38% है।
नामसाई एक नव विकासमान शहर है। अभी बनता हुआ। इस इलाके में ताई खम्प्ती जनजाति के लोग
रहते और छिटफुट सिंगफो जनजाति के भी, जो 17वीं सदी अहोम राजाओं के जमाने में पूर्वोत्तर वर्मा के क्षेत्रों से आकर यहाँ बसे थे। थाई खम्प्ती भाषा में नामसाई का अर्थ बालु पानी होता है।
और खम्प्ती का मायने सोने से भरी भूमि। इस शहर की जनसंख्या 14,246 है, जिसमें 7,487
पुरुष एवं 6,759 महिलायें है। यहाँ की साक्षरता दूर 76.61% है। यहाँ के निवासियों की मातृभाषा
खामती है, परन्तु असमिया, बंगाली, हिन्दी, नेपाली और भोजपुरी बोलने वाले लोग भी यहाँ रहते
है। करीब 8% लोग भोजपुरी भाषी यहाँ रहते हैं। इस शहर में डिप्पी कमिशनर का मुख्यालय है,
जो जिले का प्रशासनिक प्रधान है। यहाँ ऑल इंडिया रेडियो का एक रिले स्टेशन भी है- आकाशवाणी
नामसाई, जिसका प्रसारण F.M. फ्रिक्वेंसी पर होता है।


लिटरेचर फेस्टिवल में 

मुझे The Woodpecker's Nest नाम गेस्ट हाउस व रेस्टोरेंट में ठहराया गया। यह रेस्टोरेंट
स्टेडिम रोड, 2nd मिले, नामसाई में अवस्थित है, जो नामसाई शहर के उत्तर पूर्व में स्थित है। इसके परिसर में एक तीन मंजिला, एक दो मंजिला
और कुछ कमरे बने हुए हैं, जो पूर्णत: असमिया गृह निर्माण शैली में है। उपर तिकोना है। वहाँ
एक लकड़ी का भी कमरा है। इसी एक कमरे में मुझे ठहराया गया, जो दो बेड का था, अटैच बाशरूम।
मैं वहाँ जाकर अभी आराम ही कर रहा था, तभी जमुना बीनी का फोन आया कि आयोजन
स्थल पर एक डिनर पार्टी आयोजित है, उसमें मुझे आना है। यह डिनर पार्टी Multipurpose
cultural Hall के परिसर में चल रही थी। आयोजन स्थल मेरे होटल के पास स्टेडियम रोड
पर ही स्थित था। वहाँ मैं पैदल घूमते चला गया। नया बसता हुआ शहर बहुत मनोरम लग रहा
था। पुरानी शैली के लकड़ी के मकानों को चिढ़ाते हुए अत्याधुनिक बनते मकान, बीच-बीच में परती मैदान, खेत बहुत ही अनूठे दृश्य पैदा कर रहे थे। शहर का पूरा शोर वहाँ नहीं, अजीब शांति व्याप्त थी।

मुख्य हॉल के सामने खामती पूर्वज दम्पति की आदमकद मूर्तियाँ लगी थीं, जो पुराने भेष-भूषा
में दिख रहे थे। आयोजन-संचालन के लिए तीन आडोटोरिम बनाये गये थे। पहला मुख्य हॉल के आंतरिक
भाग में और दूसरा कुछ दूर पर बायीं तरफ और तिसरा दायी तरफ। दायी तरफ के खुले भाग में
पुस्तक प्रदशर्नी और स्थानीय उत्पादित वस्तुओं के विक्रय-प्रदर्शन की जगह थी और उसके दाएं 
में डिनर पार्टी के लिए जगह रंगीन पर्दों से घेरी गई थी। वहाँ पहुँचकर मैं सबसे पहले जमुना 
बीनी से मिला। उन्होंने मुझे अरुणाचल के लेखकों और विभिन्न क्षेत्रों में कार्य कर रहे कुछ गणमान्य 
व्यक्तियों से मिलवाया, जिसमें वहाँ पर पद्मश्री वाई.डी.थोंग्ची और लेखिका मयांग दई भी थीं।
इसी दरम्यान अंबिकापुर से आये नीलाभ कुमार जी, अमरकंटक के संतोष कुमार सोनकर
जी, दिल्ली से आये मेरे मित्र संतोष पटेल, दलित साहित्यकार अनिता भारती, अरुण कुमार
और हिन्दी के वरिष्ठ कवि रमेश प्रजापति से भी पहली बार मुलाकात हुई। डिनर पार्टी में
बेहतरीन शराब पीने का दौर चल रहा था। मेरे कई मित्रों ने मुझे भी जाम चखने को कहा, परंतु
मैं इसके स्वाद का प्रेमी नहीं था। इसलिए मैं बांटने वालों से जूस लेकर पीया। देश भर से आये कवि-कवयित्रियों की टोली आयोजन की धूम में खुशी से झूम रही थी। तभी सामने के मंच पर नाच-गान सिलसिला शुरू हो गया। कितना अच्छा लगता है लेखकों का स्वच्छंद विचरण आयोजनों में । अन्य दिनों में तो बेचारे काम-धंधों में उलझ कर रह रहते हैं।

मैं तो शाकाहारी था। वहाँ के बने व्यंजन ज्यादातर मांसाहारी थे। मुझे खामती लोगों का गीला
चावल अच्छा लगा, जिसे केवल भाफ् पर सेंका जाता है। स्थानीय पत्ती का साग भी स्वादिष्ट था।
वहाँ खाना देने वाली लड़कियाँ/स्त्रियां मेरे शाकाहारी होने पर आश्चर्यचकित थीं और बहुत ही सम्मान
की दृष्टि से मुझे निहारती थीं। एक औरत जो वहाँ की लोकल थी, उनसे इस चावल की विशेषता के
बारे में पूछने पर उसने इसका नाम खौलम बताया और कहा कि इसे भाप पर केले की पत्ती में लपेट
कर सेंका जाता है। मैंने उनसे स्थानीय लोक संस्कृति के बारे में कुछ और जानने की इच्छा प्रकट की। उनको ठीक से हिन्दी में बात करना नहीं आता था। उन्होंने अपनी बेटी खलीना से मेरा परिचय कराया। खलीना, ठीक अपनी मां की तरह एक सुशील, पढ़ी-लिखी और समझदार युवती है, जो ईटानगर में रहती है। प्राय: यह देखा जाता है कि 
पढ़े लिखे युवक/युवतियाँ आधुनिकता, अंग्रेजीपन और शहरीकरण के प्रभाव में आकर अपनी
मूल जनजातीय संस्कृति को भूल रहे हैं। अपनी आस्था, टोटम, रीति रिवाज, खान-पान, पहनावा
सब उनको पिछड़े लगते हैं। अमेरीकन संस्कृति ही उन्हें अच्छी लगती है। हमारे भोजपुरी क्षेत्र के
गाँव भी इस बदलाव से अछूते नहीं है, न ही अरुपाचल के सुदूर गाँव ही ।
आयोजन समिति के संयोजक सवांग वांगचा से भी मेरी मधुर मुलाकात हुई।
अरुणाचल सरकार द्वारा आयोजित इस कार्यक्रम का उद्‌घाटन उप मुख्यमंत्री चोउना मेइन ने
किया। यह चौथा अरुणाचल साहित्य सम्मेलन था। इसमें वक्ताओं ने मौखिक व वाचिक साहित्य
के दस्तावेज़ीकरण पर जोर दिया। इस आयोजन में जनजातीय लोक नृत्य का भी प्रदर्शन हुआ,
जिसमें अरुणाचली लोक जीवन की सतरंगी झाँकियाँ प्रस्तुत की गयी। इस आयोजन में कविता -
पाठ, अनुवाद पर विमर्श, कथा पाठ, पुस्तक चर्चा, उपन्यास लेखन, ट्रांसजेंडर के अधिकार,
बाल साहित्य आदि विषयों पर चर्चा-सत्रों का आयोजन भी हुआ। जमुना बीनी के कहानी
संकलन 'अयाचित  अतिथि' पर गंभीर साहित्यिक विमर्श हुआ, जिसमें अनिता भारती, सुनीता
और डॉ. नीलाभ कुमार की टिप्पणियों पर जोरदार बहसें हुए। जमुना बीनी अरुणाचल की एक
महत्वपूर्ण लेखिका है, जिन्होंने अपनी रचनात्मकता, व्यवहारकुशलता और ज्ञान कौशल से
पूर्वोत्तर भारत ही नहीं, अपितु संपूर्ण भारतीय भाषाओं के लेखन की मुख्य धारा को बड़ी ही कुशलता
के साथ जोड़ा है। कविता-पाठ के सत्र में मैंने अपनी प्रेम कविताओं का पाठ किया, जिसे लोगों ने
काफी मनोयोग से सुना।

इस फेस्टिवल में देश भर के नामी लेखक भी शामिल हुए थे। दिविक रमेश, मीठेश निर्मोही, देवेन्द्र
मेवाडी, आरती पाठक, स्नेह नेगी, विभा रानी, कविता कर्माकर आदि प्रमुख थे। इस अवसर पर
महान असमिया कवि- गीतकार स्मृति शेष भूपेन हजारिका की पुण्य तिथि पर भावभीनी श्रद्धांजलि भी
दी गई। असम व अरुणाचल के इलाके में भूपेन हजारिका का वही महत्व है, जैसा हमारे बिहार
और भोजपुरी समाज में भिखारी ठाकुर का है। वहाँ के लोग उन्हें अपनी मुख्य विरासत मानते हैं।
मेरे होटल की खिड़की से दूर पटाकाई की पर्वत श्रृंखलायें दिख रही थीं। बाहर से आये साहित्यकारों को अलग-अलग की काफी दूर ठहराया गया था।  कुमार नीलाभ जी को भी 25K.M. दूर ठहराया गया था। वे सुरदासपुर गाँव, जिला-जहानाबाद (बिहार) के पैतृक निवासी हैं और शासकीय विज्ञान महाविद्यालय, अम्बिकापुर सरगुजा, छत्तीसगढ़) में हिन्दी प्राध्यापक के पद पर कार्यरत हैं। साहित्यिक लेखन में नीलाभ जी कहानी लेखन के अतिरिक्त गंभीर और धारदार आलोचना भी लिखने में सक्रिय हैं। उनको मैं अपने कमरे में रहने के लिए बुलाया। एक बेड़ खाली था। मुझे अकेले रहने में डर लग रहा था। उनके आने से
अकेलापन से उपजा मेरा भय जाता रहा।

इस बीच मैं फेस्टिवल में लगे स्टॉल से अरुणाचल के ग्रामीणों द्वारा तैयार किये बांस के अचार का एक
डिब्बा भी खरीदा - Namsai organic spices and Agricultural product-king chilli
Bamboo shoot pickles, 200 ग्राम का 140 रुपये में।


खामती:अरुणाचल की एक जनजाति

यह क्षेत्र खामती आदिवासी समाज का केन्द्र रहा है। यहाँ बहुलक में खामती हैं, कमतर में सिंगफो है।
ये जनजातियाँ बौद्ध धर्म को मानती हैं। इनके खान-पान भिन्न शैलियों के है, जिसमें उनकी रचनात्मकता 
दिखाई देती है। यहाँ के भोजन में प्रमुख चावल है, जिसे बांस की नली में भाफ से पकाया जाता 
है, जिसे खौलम चावल कहा जाता है। यह एक अन्य किस्म का चावल है, जिसको पकाने के
गर्म पानी की भाफ का उपयोग किया जाता है और फिर पके हुए चावल को तोको पात (हल्दी के पत्तों के
आकार के चौड़े) में पैक कर दिया जाता है। चावल पत्ते की सुगंध को सोख लेता है। खामती लोग झूम की
खेती करते है पहाड़ियों पर और तलहटी में गीले चावल वाले धान की। ये लोग लाई पत्ता का साग खाना पसंद करते हैं, जो नमक और मसाले डाले बिना तैयार होता है। विशेष प्रकार के चावल (खाओ पुक) (चिपचिपे और तिल से बने), चावल (खो), चावल से बना पेय (लाउ) कहा जाता है। चाय के पेड़ का प्राचीन स्थानीय नाम 'सोमा' है,जो यहाँ की भूमि में उगता है। इनके आहारों में मांस और मौसमी फल भी शामिल हैं।
ये लोग पहले के जमाने में एक पशु (बैल या भैंसा) से हल चलाते थे। इनके हल को थाई, झोंपड़ी वाले
घर को चरोप कहा जाता है। प्राय: झोपड़ीनुमा घर बांस से निर्मित और काठ तामुल और खेर की पत्तियों
से छाये कुटिया की तरह होते थे। थाई खामती जनजाति की अपनी भाषा और लिपि भी है। ये लोग भी समय के साथ विकास कर आधुनिक जीवन शैली को अपना रहे हैं। प्राचीन जीवनचर्याएँ अब क्षीण पड़ती जा रही हैं। परन्तु, बौद्ध धर्म में परंपरागत आस्था, शिकार संग्रहण एवं कृषिगत कार्यों से अभी भी जुड़ाव बना हुआ है। इसकी भावना खामती फॉक सिंगर chow Lumang monnoi के गीत "लिक होंग खान खाओ" में स्पष्ट झलकती है, जिसके अंग्रेजी टेक्स्ट से मैंने हिन्दी भावानुवाद कुछ इस अंदाज में पेश किया है _
नमोतसा भगोवतु अरोहातु सामा सोम बुद्धसा ।
नेले सिंग रखा पांसू चौइवान होंग 
पुयामन  चो लाईथा काम फा,
जिम मोउ साक जोंग यह फान हाउ माउ या पुंग लुंग |
खाम पोउ ताउ जिम खाई हाउ यू लोम।
::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::::

सम्यक सम्बुद्ध की 
चरणों में माथा टेक
मंत्र पाठ कर अह्वान करता हूँ माँ अन्नपूर्णा का
जैसे करते आये हैं मेरे आदिम पुरुष
पालनिया अवोग खेती करते हुए
निगाई-गुड़ाई पश्चात् नियमगत्
प्राप्त करने के लिए पुरातन ज्ञान
अपने पोता-पोतियों के लिए!

माँ लक्ष्मी से करता है निवेदन
सभी विधियों से समर्पित होते हुए उनके समक्ष
कि हमारे घर के भंडार धान-चावल भरे रहें पूरे साल
समग्र व्यंजन, शाक-पात, आलू-कंद से। करते रहें
धर्म कर्म, दान दक्षिणा
 खिलाते रहें पशु पंछियों को
जैसे खुश हैं हम, वैसे ही रहें प्राण - प्राण
सुखी और खुशहाल !


गोल्डेन पैगोड़ा का भ्रमण

GOLDEN PAGODA ECO RESORT

जमुना बीनी ने नामसाई के प्रसिद्ध बौद्ध मंदिर को देखने जाने के लिए मुझे अपनी कार उपलब्ध करवायी।यह पैगोड़ा (Golden pagoda Eco Resort) नामसाई  से 25 K.m. दूर तेंगापानी जाने के रास्ते में कोंगमखाम के इलाके में Teang (तेंगापानी) नदी के किनारे ऊँचे टीले पर अवस्थित है। थाई-वर्मी
शैली का बना यह शानदार सुनहला पैगोड़ा हरी-भरी हरियाली से परिपूर्ण बीस हेक्टेयर के एक सुंदर
और विशाल भूभाग वाले बगीचे में स्थित है। इसमें बीच में सोने से बनी हुई बुद्ध की प्रतिमा है और पूरा
पैगोड़ा, उसका प्रवेश द्वार पीताभ के रंग से आच्छादित है। इसका निर्माण सन् 2010 में पूर्ण हुआ था ।
यहाँ से उत्तर दिशा को देखने में हिमालय की दीवांग घाटी की पर्वत चोटियाँ दिखाई देती हैं, तो दक्षिण पूर्व
से पटाकाई के पहाड़ पेड़ों के बीच से झाँकते हैं। यहाँ अप्रतिम शांति का अनुभव होता है। यह परिसर
खामती - सिंगफो जनजातियों के अनुसंधान का केन्द्र है, जिसमें एक पुस्तकालय और ध्यान केन्द्र भी है।
दो तालाबों (एक सूखा व दूसरा जल भरा)  के बीच में बनी बुद्ध की मूर्तियाँ बहुत आकर्षक हैं। बौद्ध स्तम्भों,
रंग-बिरंगी मंत्र पूरित प्रार्थना ध्वजा-पताकाएँ, विविध किस्म के वृक्ष-लताओं और पुष्पवाटियों से सज्जित यह
पैगोड़ा मनमोहक दृश्यछवियाँ प्रकट करता है। यह थेरवाद बौद्ध धर्म के अनुयायियों का इलाका है।
नामसाई से NH15 पर गुजरते हुए Manmow Buddhist  monastery के पास  Jengthu नदी के डाइवर्सन को पार करके जा रहा
था। रास्ते में बायीं ओर गाँव दिखते थे और कई जगह बौद्ध मंदिर भी। दाईं ओर नीचे की ओर धान के
खेत। दोनों ओर सघन ऊंचे ऊंचे पेड़ वन्य लताओं से गुम्फित। ड्राइवर मोन्जू बता रहे थे कि वे पहली बार 1991 में आये थे, तब रास्ता कच्ची अवस्था में धा
और जंगल घना था। रास्ते में जाते हुए उस समय अनेक जंगली जानवर सड़क पार करते मिल जाते थे। पहले इन
इन आदिवासियों के घर झोपड़ी के थे। अब पक्की सड़कें, खेती लायक भूमि, बिजली, शिक्षा, रोजगार
में विकास होने के कारण बहुत परिवर्तन हुआ है। रास्ते में जाते हुए दायीं ओर पटाकाई पर्वत
मालाएँ और घने जंगल साफ दिखाई दे रहे थे।



टुंग टाओ रिसॉर्ट की डिनर पार्टी

TungTao Resort


सम्मेलन के अंतिम समय में एक निमंत्रण पत्र मिला । उप मुख्यमंत्री Chowra mein की ओर से
आयोजित अरुणाचल लिटरेचर फेस्टिवल के आगंतुक लेखकों को Tung  Tao Resort पर
आयोजित डिनर पार्टी में शामिल होने का। हम लोग वहाँ से चले। हमारी गाड़ी में नीलाभ जी,
डॉ. सुनिता जी, विभा रानी, हीरा मीणा आदि थीं। यह स्थल नामसाई से उत्तर पूरब की ओर 40 km.
की दूरी पर है। NH15 से तेजू जाने के मार्ग में पेट्रोल पंप से आगे मुख्य सड़क से उतर कर
दक्षिण की तरफ जाना था। रास्ते में एक पानी का बहता नाला  Miling मिला, जिस पर मोटा लोहा के चदरा का
पुल बना था। दिल्ली की सुनिता जी ने बताया कि इस नदी के पानी को बांध कर पटवन के लिए इस्तेमाल किया जाता है। रास्ते के दोनों तरफ धान के हरे-भरे खेत थे और बीच-बीच में खेत वालों के
बनाये बांस के मचान। यह आधा पक्का ,कुछ कच्चा,ऊबड़- खाबड़ रास्ता 5 K.m. तक का था । Chong kham प्रखंड के meme गाँव के पास नदी किनारे के रेस्तरां में हमें जाना था। कहा गया था कि वहाँ का सूर्यास्त बड़ा मनोरम होता है, परन्तु जाते जाते ही अंधेरा हो गया।


टुंग टाओ रिसॉर्ट क्या था - नदी से जुड़ा मुसाफिरगाह ! यहाँ एक छोटी-सी नदी दक्षिण से आती हुई पश्चिम मुड़कर कुछ ही दूरी पर उत्तर की ओर घूम जाती है। परिसर के बायीं ओर नदी के किनारे के पास कुछ अंतरालों पर कुल पाँच झोपड़ीनुमा सीमेंट की संरचनाएँ बनी
थीं। अरुणाचली गृह निर्माण कला की शैली में। आगे बाड़ों से घिरा हुआ । सिंगल कमरा अटैच
वाशरूम। दायीं ओर एक लम्बी झोपड़ी थी, जहाँ सैलानी भोजन नाश्ता का लुफ़्त उठाते हैं। उसके
उत्तर में एक स्विमिंग पौंड, किनारे पार्कों की तरह बैठक खाने । बगल में तेज धार वाली छोटी नदी
टुंग टाओ । इसके किनारे पर लकड़ी के मचान बने हैं, जिसके एक शिरे नदी की धार में और दूसरे
कगार पर थे। गोल-गोल पत्थरों से भरी स्वच्छ जलधार वाली यह नदी है। नदी के मध्य भाग से
कगार को जोड़ता एक अर्ध्यचंद्राकार लम्बा लकड़ी का डेक बना है, जिसके उत्तर और दक्षिण मचान के भाग को और उभारा गया है। मचान के बीच में भी एक झोपड़ी है और नदी के किनारे पर भी। यह मचानों की एक
श्रृंख्ला नदी के जलधार के मध्य तक जाने के लिए बनायी गयी है, जिसके नीचे सीमेंट से बने
छोटे- छोटे स्तंभ इसे आधार प्रदान करते हैं। दक्षिण की तरफ डेक के पास नदी में एक कछुआ
की सीमेंटेट मूति भी रखी गई है। यहाँ शहर के लोग जल क्रीडाओं का आनंद लेते हैं और प्राकृतिक
जीवन का लुफ़्त उठाते हैं। इस रिसॉट को इसी साल जून में शुरू किया गया था। रिसॉर्ट के
प्रबंधक की ओर से यहाँ इंग्लिश में लिखे दो साइन बोर्ड लगाये गये हैं, जिसमें इस जगह की महत्ता को वर्णित किया गया है, जिसका हिन्दीनुवाद मैंने इस प्रकार किया है_
(1)
'मछुआरे का डेक' पानी में स्थित मजबूत खड़ा है। तेज धाराओं को धत्ता बताते हुए। सदियों
पुराने मछुआरा को समर्पित यह एक छोटी सी श्रद्धांजलि है। उस समय को जब न केवल
उसका और उसके परिवार का अस्तित्व इसी पर टिका था। दिन मछली पकड़ने में बितता था।
कल्पना करें कि आपके हाथ में एक पेय की भरपूर खुशी की भावना पानी में एक दिन गुजारने
के बाद किसी को भी महसूस हो सकती है। मछुआरे से अत्यधिक आत्मिक अनुभव इस
डेक पर सवार होकर करें और दुखों-शोक को अलविदा करें, जैसे सारे इस धार में बह
गये हो और बच गया संतृप्ति के साथ पीना तथा मछुआरे को अपने अंदाज में याद करना-
एक सच्चे देशवासी की तरह। प्रोत्साहित करना!

(2)

अच्छी तरह टुंग टाओ रिसॉर्ट पर आइए, प्रकृति की प्रतिध्वनि पाने के लिए!
टुंग टाओ' नाम में आपको जानने की एक आकर्षक कहानी है। थाई खामती समुदाय के बीच
एक लोकप्रिय आस्था के अनुसार ' टुंग' का अर्थ गहरा और 'टाओ' का अर्थ कछुआ होता है।
एक समय था, जब यह गहरा पानी विशाल कछुओं और महशीरों का निवास स्थल था और
कहा जाता है कि ऐसा अब भी है। यहाँ कछुओं और महशीरों के दर्शन होते रहते हैं। हालाकि
अब वे दुर्लभ हो गये हैं। करीब-करीब वैसे ही, जैसा पुराने समय में मौजूद थे। परंतु ,वे
अब नहीं मिलते। जैसे कि उनका दुर्लभ दर्शन हर एक सच्चा प्रकृति प्रेमी करना चाहता है।
रिसॉर्ट का नाम इसी लोकप्रिय विश्वास के आधार पर रखा गया है, क्योंकि यह पुराने समय की
भावनाओं को जगाता है। जब मनुष्य और प्रकृति एक दूसरे साहचर्य थे। दोनों के बीच रिश्ता
पवित्र था। यह जगह इन सबको मिलाती थी। मनुष्य को फिर से उस शांतिपूर्ण और शांत प्रकृति का हिस्सा बनाने की इच्छा, जैसे कि कोई कह रहा हो कि कुछ पुरानी ताजा हरा, बहता पानी,
हरे-भरे पेड़ और धूप जैसी जरूरी चीजों को छोड़ पाना मुश्किल है। टुंग टाओ रिसॉर्ट' में हम आपको 
अपने साथ आने, परिवार का हिस्सा होने और आनंद का अनुभव कराने के लिए आमंत्रण देते हैं।
प्रकृति के साथ गुनगुने पानी और हरी भरी हरियाली के बीच आराम करें और शांति लायें और
अपने भीतर सुख पायें !"

Tung Tao एक नद/नदी है, जिसका अन्य नाम Tenglung और Bara Tenga pani  भी है, जो तेंगापानी रिजर्व फॉरेस्ट ऐंड बर्ड सेंचुरी वर्षा वन के दक्षिण पूर्व व पूर्वांचल के पहाड़ों की तलहटी के रिसते जलधार के बहते पानी के  Streams (जिसका भोजपुरी नाम खरोह होता है) को अपने में समेट कर अपने बहाव मार्ग  को संचालित करती है। इसका उद्गम Chongkham प्रखंड के Dueling व Tuling गांवों के Teyeng kka के पास से होता है। Kamphai nala,Tilai kha,Nagni kha,Ligaung kha,Lepen kha,Teyeng kha, Lunga,Sumbri kha,Kaipet kha, Mathang kha,Lunga kha,Tenga kha,Mimi kkar river,,Mara Tengapani,Namkahi,Namkamlo,Namlung Nadi, Miliang आदि सहायक नदियों, नालों और जलस्रोतों को समेटती हुई करीब 40km यात्रा तय कर गोल्डन पैगोडा के पास यह छोटी-सी नदी मुख्य Teang नदी में अपना मुहाना बनाती है। तेंगापानी फिर लोहित नदी में और लोहित ब्रह्मपुत्र नद में। इसका जल सफेद झक्क है।
गोल-गोल पत्थरों का बिखराव तलहटी में साफ दिखाई देता है। रिसॉर्ट के सामने इसकी चौड़ाई करीब
35 फुट है। नदी व इसके जलधार की तीव्रता को देखकर लगता है कि कोई नटखट बच्चा उछल कूद
धुम्म मचा रहा हो | टुंग टाओ या तुंग ताओ का स्थानीय बोली
में अर्थ गहरा कछुआ या कहुआ- निवास होता है। कहा जाता है कि यहाँ गहराई में बड़े आकार के कछुआ पाये जाते हैं। यहाँ नदी का किनारा मेरे
गाँव  वाली नदी की तरह सीधा नहीं है, बल्कि सपाट है। मुझे ऐसा लग रहा है कि थाई खामती लोगों के पूर्वज थाइलैंड के टुंग टाओ झील की स्मृतियों को बनाये रखने  के लिए इस छोटी-सी नदी का नामकरण किये होंगे। बारिश के दिनों में भीषण वर्षा जल से यह रिसॉर्ट जलमग्न हो जाता होगा, क्योंकि यहाँ का किनारा, तट से जुड़ा रिसॉर्ट का पूरा भाग ऊँची भूमि पर नहीं, बल्कि उथली  भूमि पर बना है। बाढ़ के उफान के समय में नदी की तेज जलधारायें अपने साथ बड़े- छोटे श्वेतवर्णी गोलाश्म, चट्टानी टुकड़े और छोटे चट्टानी मलबा बहाकर लायी है,जो यहां रिसॉर्ट परिसर में बहुतायत में बिखरा पड़ा है। जिससे चोट लगने की डर से मैं वहां संभल- संभल कर चल रहा था। रिसॉर्ट की खानपान वाली झोपड़ी और सिमेंटेड झोपड़ी के बीच खोदा एक गड्ढा दिखाई दिया,जिसमें कुछ पानी भी भरा था।उस कुंआनुमा गढ्डा का किनारा पुरानी ईंटों से बना हुआ, पर बिना जगत था।  मुझे लगता है कि पहले के समय में मछुवारे नदी से मछलियां मार कर उसे ताजा रखने के लिए इसको इस्तेमाल करते होंगे, चाहे पेय जल के लिए भी इसका उपयोग होता हो। महशीर मछली इस नदी की खास मछली है, जो हिमालयी क्षेत्र के
मीठे पानी में पायी जाती है।  तेंगा पानी और उसकी इन सहायक नदियां में मछलियों का उत्पादन भी बहुत होता है। इस नदी प्रणाली में कुल 38 किस्म की मछलियां पाई जाती हैं।
Kungyao, Sampling और Lathao ( बौद्ध मंदिर)  गांवों के पास यह धंधा बहुत प्रचलित है। यहां के लोग मछली पकड़ने में मुख्यतः Cast Net और Gill Net का इस्तेमाल करते हैं। सुनहली महाशीर मछली, साफ पानी में पाई जाने वाली पुरानी प्रजातियों की मछलियां, हिम धाराओं की मछलियां एवं वाशा मछली प्रमुख हैं। महाशीर मछली की स्थानीय प्रजातियों को स्थानीय के लोग पा इय मान, पा खाम केत होंग, पा मोन,पा खाम थाइन, पा पोन, पा खूम, पा सीव,पा लाई,पा नेन,पा नेंग नाम से जानते हैं। अन्य मछलियों के लोकल नाम हैं_ पा खी, पा यक, पा तंग मो, पा खोनतोक,पा खी साई, पा मु,पा नूक, पा मागुर,पा गनेउ,पा हट्ट,पा पोंग और पा टेंग।
यहां की नदी में मछली ठीक मेरे गांव की तरह ही  मारा जाता है और नदी के बहाव की दिशा भी ठीक उसी तरह है। मेरे यहां के लोग जाल, कुरजाल और बांस का चिलवन लगाकर मछलियां मारते हैं_ बरारी, गरई, गोंजी, पोठिया जैसी भोजपुरी नामों की मछलियां। 
विदित हो कि अंग्रेजों के विरुद्ध खामतियों ने भीषण युद्ध लड़ा था, जबकि सिंगफो जनजाति के लोग अंग्रेजों पक्षधर थे। यहीं पर chau Yongwa chaupoo नामक एक भद्र
नवयुवक मिले, जो कार्यक्रम में मेरी कविता सुने और पसंद किए थे। वे एक सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं।  वहीं पर खड़े
भूपेन जी से भी मिलना हुआ,जो वहां के स्थानीय हैं। वे लुंगी पहने हुए थे । वहाँ दो-तीन घेरों में आग जला
जा रहे थे। हो सकता है कि ठंढे में स्थानीय संस्कृति को दर्शाने के लिए ऐसा किया गया है। 

स्थानीय खामती लोक संस्कृति को जोड़ता रिसॉर्ट मुझे पूँजीवादी ताकतों द्वारा अदिवासी संस्कृति
में दखल लगा- नदी के प्राकृतिक स्वरूप के साथ खिलवाड़ और जैव विविधता का नष्टकारक ।
मछुआरा, जल, नदी, मछली, कछुआ आदि जनजातीय टोटम, लोक आस्थाओं, विश्वासों- स्मृतियों को बाजारू बनाकर सुविधा भोगी समाज की थाली में परोसने का नायाब जरीया! यह देखकर सचमुच
ही मेरा मन क्षुब्ध हो गया।

 सिंगफो जनजाति की लोककथा में कछुआ

वेरियर एल्विन की पुस्तक "मिथ्स ऑफ द नॉर्थ-ईस्ट फ्रंटियर ऑफ इंडिया" में उद्धृत लोक आस्था व विश्वाश से जुड़ा कछुआ पर एक किस्सा इस तरह से व्यक्त हुआ है_

"एक बार एक बहुत महान राजा थे, जिनकी सात पत्नियाँ थीं। एक साल वे सभी एक ही समय गर्भवती हुईं। छह बड़ी पत्नियों के मानवीय बच्चे थे, लेकिन सातवीं और सबसे छोटी ने एक कछुए को जन्म दिया। जब राजा ने कछुए के बच्चे को देखा तो वह क्रोधित हुआ और माँ को, हालाँकि वह सबसे सुंदर थी, अपने घर से बाहर निकाल दिया और गाँव के बाहर उसके लिए एक छोटी सी झोपड़ी बना दी। धीरे-धीरे छह बड़े लड़के बड़े हो गए और जब वे काफी बड़े हो गए, तो उन्होंने व्यापार करने के लिए नदी के नीचे जाने की तैयारी की। जब कछुए के लड़के ने इसके बारे में सुना तो उसने अपनी माँ से कहा, 'मेरे भाई व्यापार करने जा रहे हैं; मुझे भी जाने दो।' माता ने कहा, 'तेरे भाई चल फिर सकते हैं, उनके तो हाथ पांव हैं, परन्तु तेरे पास नहीं। आप किसके लिए व्यापार करना चाहते हैं?' 'फिर भी,' कछुआ लड़का बोला, 'भले ही मेरे हाथ-पैर न हों, मैं जाना चाहूंगा। ' इसलिए माँ ने कछुआ-लड़के को उसकी यात्रा के लिए तैयार किया और उसे उसके भाइयों के साथ नाव में बिठा दिया। जब वे मध्य धारा में आए तो कछुआ-लड़का अपने खोल के नीचे से एक बांसुरी लाया और उसे बजाया। जंगल के पेड़ संगीत सुनकर किनारे पर आ गए और यही कारण है कि आज भी नदियों के किनारे कई पेड़ हैं। नाव नदी में चली गई और कछुआ अपनी बांसुरी बजाता रहा। कुछ समय बाद उसने छ: भाइयों से कहा, 'मुझे यहीं छोड़ दो; तुम जाओ और जब तुम लौटो, मुझे बुलाओ और मैं तुम्हारे साथ मिलूंगा। वह पानी में कूद गया और नीचे डूब गया। वहाँ उसे सोने, चाँदी और कीमती पत्थरों का एक बड़ा भंडार मिला और उसने उन्हें अपने खोल के नीचे छिपा दिया। वह थोड़ा और आगे बढ़ा और उसे कई अलग-अलग वाद्य यंत्र मिले। जब उनके भाइयों ने अपना व्यापार समाप्त कर लिया तो वे लौट आए और अपने कछुआ-भाई को बुलाया, और वह नदी के तल से ऊपर आया, और नाव पर चढ़ गया। फिर उसने अपने खोल के नीचे से वाद्य यंत्र निकाले और उन्हें बजाया। उसने उनमें से कुछ अपने भाइयों को दे दिए और वे सभी खुशी-खुशी साथ-साथ खेलने लगे। जब नाव घर के पास पहुंची और राजा ने संगीत सुना तो उसने सोचा कि उसके बेटों ने बहुत पैसा कमाया होगा और अपनी सफलता का जश्न मना रहे होंगे। वह सम्मान के साथ उनका स्वागत करने के लिए बैंक गया और उन्हें घर ले गया। लेकिन उसने कछुआ-लड़के पर कोई ध्यान नहीं दिया और उसे नाव के तल में छोड़ दिया। लेकिन जल्द ही उसकी मां उसके लिए आई। जब नाव घर के पास पहुंची और राजा ने संगीत सुना तो उसने सोचा कि उसके बेटों ने बहुत पैसा कमाया होगा और अपनी सफलता का जश्न मना रहे होंगे। वह सम्मान के साथ उनका स्वागत करने के लिए बैंक गया और उन्हें घर ले गया। लेकिन उसने कछुआ-लड़के पर कोई ध्यान नहीं दिया और उसे नाव के तल में छोड़ दिया। लेकिन जल्द ही उसकी मां उसके लिए आई। जब नाव घर के पास पहुंची और राजा ने संगीत सुना तो उसने सोचा कि उसके बेटों ने बहुत पैसा कमाया होगा और अपनी सफलता का जश्न मना रहे होंगे। वह सम्मान के साथ उनका स्वागत करने के लिए बैंक गया और उन्हें घर ले गया। लेकिन उसने कछुआ-लड़के पर कोई ध्यान नहीं दिया और उसे नाव के तल में छोड़ दिया। लेकिन जल्द ही उसकी मां उसके लिए आई।
वर्तमान में राजा ने अपने पुत्रों के विवाह की व्यवस्था की। कछुआ-लड़के ने अपनी माँ से कहा, 'मेरे भाइयों की शादी हो रही है; मेरे लिए भी एक पत्नी ढूंढो।' मां ने कहा, 'लेकिन तुम कछुआ हो, तुम इंसान नहीं हो। तुम किस तरह की लड़की से शादी करोगी?' कछुआ-लड़के ने कहा, 'दूर के एक गाँव में एक राजा की बेटी है और मैं उससे शादी करना चाहता हूँ।' माँ ने कहा, 'लेकिन वह एक राजा की बेटी है और तुम एक कछुआ हो।' कछुआ-लड़के ने कहा, 'ऐसा हो सकता है, लेकिन इससे क्या फर्क पड़ता है? जाओ और लड़की के पिता से पूछो।' अत: माता राजा के पास गई और बोली, 'अपनी पुत्री मेरे पुत्र को दे दो।' राजा ने उत्तर दिया, 'बहुत अच्छा, मैं उसे अपनी पुत्री इस शर्त पर दूंगा कि दो दिन के भीतर, दूसरी बार सूर्य उदय होने से पहले, तुम्हारा पुत्र सोने और हीरों की एक नाव बनाकर मेरे महल में ले आए। ' मां ने घर जाकर बेटे को बताया। अब कछुए के पास अपने खोल के नीचे बहुत धन छिपा हुआ था और उसने उसे बाहर निकाला और एक शिल्पकार को बुलाया जिसने सोने और हीरे की एक नाव बनाई और वे उसे दूसरी बार सूरज उगने से पहले राजा के महल में ले गए। राजा उसे देखने के लिए नीचे आया और वहाँ कछुआ-लड़का सूरज की तरह चमकते हुए नाव में बैठा था। जब कछुए ने राजा को देखा तो उसने अपना रूप बदल लिया और एक सुंदर युवा बन गया, और राजा ने स्वेच्छा से उसे अपनी बेटी शादी में दे दी।"

उस वीराने में स्थित रिसॉर्ट को देखकर मैं बहुत देर तक सोचता रह गया कि क्या ऐसे पर्यटन
स्थल बिहार के मेरे गाँव की नदी के तट पर नहीं बनाये जा सकते ? अरुणाचल का यह इलाका कितना शांत, सौम्य और खुशहाल है।
परन्तु, मेरे बिहार के गाँव अब भी अपराध के भय से ग्रसित हैं। हमारे यहाँ ऐसा सोचना ही मुमकिन नहीं है।

नामसाई जैसे दूर-दराज के इलाके में भोजपुरी भाषियों का मिलना अचरजपूर्ण लगा। बिहार के
अनेकों लोग उधर कमाने गये हैं। परन्तु, घर बनाने के लिए अपने गाँव लौटते हैं। इन मजदूरों का
गाँव से रिश्ता जीवंत है। शादी-ब्याह, पर्व-त्योहार में गाँव जरूर आते हैं।
अरुणाचल निवासियों का बिहार समेत पूरे भारत से गहरा लगाव है। वहाँ के लोग भले और अतिथि
का सत्कार करना बहुत पसंद करते हैं।
डिनर पार्टी में शराब-जूस-मांसाहारी व्यंजनों का दौर चल रहा था। नदी के डेक पर संगीत 
और डांस के कार्यक्रम चल रहे थे। बत्तियों की चकाचौंध से पूरी नदी  जगमगा रही थी। हवा के
झोंके से नदी किनारे के पेड़ों की शाखाएँ एवं  पातों की हिलने-डुलने की युगलबंदी में दृश्यावली मस्तानी लग रही थी। मैंने फिर वही गीला चावल खाया और पानी पीया।

वहाँ पर अमरकंटक के संतोष कुमार सोनकर और त्रिपुरा के कवि विकास रॉय वर्मा से बातें हुई। संतोष जी मुझे उस दिन कच्ची सुपारी वाला पान खिलाये थे, जो बड़ा स्वादिष्ट लगा था। असमिया लोग इसे 'ताम्बूल' कहते हैं। संतोष जी अमरकंटक में अंग्रेजी के प्रोफेसर हैं और दलित साहित्यकार एवं आदिवासी विषयों के मर्मज्ञ भी। वे दलित साहित्य को उपेक्षित बनाये क्षुब्ध हैं। उनका मानना है कि पाठ्‌यक्रमों में दलित साहित्य और आदिवासी साहित्य को
उचित स्थान मिलना चाहिए। वहीं विकास रॉय वर्मा से काकबरक कविताओं की बावत बात होती 
है। फिर देर रात को हम होटल में लौटते हैं।
इस यात्रा में आयोजन समिति के संयोजनकर्त्ता सवांग वांगचा, सूचना विभाग के ही विष्णु
कुरुप से आत्मीय मुलाकातें यादगार रहीं। विभाग के सचिव मुकुल पाठक भी मिल गये। उनसे
बातचीत में मैंने उनके साथ प्रगाढ़ता को बढ़ाया, क्योंकि हम 'मैं भी मुकुल तुम भी मुकुल'
थे।

6 नवम्बर को सुबह चलने की तैयारी थी । डिब्रुगढ़ के मोहन बाड़ी एयर पोर्ट पर Indigo प्लेन 11:25
A.M. में पकड़ना था। हमारी जिप्सी में नीलाभ जी, अगरत्तला के विकास रॉय वर्मा,रायपुर की आरती पाठक और दिल्ली की स्नेह
नेगी भी साथ थीं। आरती एवं स्नेह को नामसाई शहर के मुख्य भाग में एक खामती परिवार के साथ
ठहराया गया था। आरती पाठक बक्सर के गंगा नदी पार कोटवानारायणपुर की मूल निवासिनी हैं और
छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के एक कॉलेज में पढ़ाती हैं। वे प्रयोजक मूलक हिन्दी, भाषा प्राद्यौगिकी,
समाज भाषा विज्ञान जैसे विषयों पर जोरदार अधिकार रखती हैं और अनुवाद कार्य के अलावे मृतप्राय भाषाओं के संरक्षण और संवर्धन पर भी कार्य करती हैं। हाल ही में उन्होंने बस्तर की लुप्त हो रही बोली'दोर्ली' पर गंभीर शोध कार्य किया है। स्नेहलता नेगी भी आरती की तरह गंभीर और विनम्र लेखिका है। वे कानन, जिला किन्नौर (हिमाचल प्रदेश) की रहने वाली हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी की
प्रोफेसर हैं। कविताएँ-कहानियाँ- स्त्री विमर्श-आदिवासी साहित्य लेखन में सक्रिय रहती हैं। इनका
अभी हाल में प्रकाशित हुआ कविता संकलन "लिपिबद्ध होना" बहुत ही चर्चित रहा है। बातचीत के क्रम में स्नेह बताती हैं कि किन्नौर के सेव की खेती पर अड़ानी ने कब्जा कर लिया है। उत्पादकों को बहुत
कम मूल्य मिल रहा है। सेव उगाने वाले अब घाटे का जीवन व्यक्ति कर रहे हैं। एयर पोर्ट के प्रतीक्षालय
में केरल की लेखिका व अनुवादक मिनी प्रिया से भी मुलाकात हुई, उनकी शालीनता और स्मित मुस्कान
मेरे दिल को छू गई।

  मोहनबाड़ी हवाई पट्टी के गेट नं०-3 पर विमान इंडिगो लग गया था। उड़ने समय मेरे कानों में दर्द हुआ।
इस स्थिति को Airplane Ear कहा जाता है। कान में दर्द होना, कान बंद होना और दबी आवाज़ सुनाई देना, हरेक विमान- यात्री महसूस करता है। फ्लाइट के टेक ऑफ करके आसमान की ओर जाने और लैंडिंग करते हुए जमीन की ओर आते विमान के समय अचानक यात्रियों के कानों में जोर का दर्द स्वभाविक रूप से होता है। कुछ को ज्यादा महसूस होता है, तो कुछ को कम। इसका कारण होता है-कान के बीच के भाग पर पड़ने वाला वायु-दबाव।हमारी कान का यह भाग एक गुफा की तरह होता है, जिसमें हवा भरी होती है। हवाई जहाज के ऊँचाई बदलने पर बाहर का दबाव कान के भीतर के एयर प्रेशर को तेज रफ़्तार में बदलता है। इसी कारण कान दर्द,और कान सुन्न पड़ जाने का अनुभव होता है। 
डिब्रूगढ़ - कोलकाता के हवाई मार्ग में बायीं तरफ की मेरी सीट की खिड़की से बाहर झांक पर मेघालय और त्रिपुरा के पहाड़ बहुत साफ दिखाई दे रहे थे।घटाटोप बादलों से घिरे। गारो-खासी- जयंतियां पर्वतों के उतुंग शिखर। दो बार हमारा विमान बादलों को चीर कर निकला। वर्षा जल के फव्वारों से छर छर करते हुए डैने भीग गए।यह रोमांच देखकर  मेरा अंतर्मन गीला गीला - सा हो गया।
दोपहर बाद हम नेताजी सुभाष चंद्र बोस इंटरनेशनल एयरपोर्ट, कोलकता की धरती पर
उतरे। फिर तुरत ही हमें पटना की फ्लाइट पकड़नी थी। कोलकला का एयरपोर्ट भी काफी लम्बा-
चौड़ा है। चेकिंग के बाद हम गेट नं०-18 पर पहुँच चुके थे। पटना तक उड़ान भरने के लिए हमारा
यात्री विमान इंडिगो लग गया था। प्रतीक्षालय की पारदर्शी दीवालों से हवाई अड्डा पर पूरा नजारा
साफ दिखाई दे रहा था। आसमान साफ था, परन्तु कहीं-कहीं छिटफुट बादल के टुकड़े दिख जाते थे।
मेरी कान का तेज अभी खत्म नहीं हुआ था। यात्री विमान में बैठने लगे थे। माइक पर विमान के
शीघ्र उड़ान भरने की सूचनाएँ गूंज रही थीं। फिर एक बार और तेज कानों का दर्द पाने के लिए मैं तैयार
होकर विमान में चढना नहीं चाहता था पटना आने के लिए। लेकिन नीलाभ जी ने बांह पकड़ कर
मुझे सीट से उठाया । मैं उनके पीछे-पीछे जाने लगा, विमान के गेट की ओर। जैसे कोई बकरा जिबह
होने के लिए जा रहा हो !

हालाकि, मेरी इन पहली विमान यात्राओं का एक अनूठा पहलू यह था कि मैंने करीब चार हजार किलोमीटर विमान की सवारी की, जिसमें पांच - पांच बार टेक ऑफ़ और लैंडिंग हुआ और इन हवाई यात्रा के मार्गों में भारत के अलावे नेपाल,भूटान और बंगला देश के आकाशीय क्षेत्र भी भरपूर शामिल थे।

अलविदा हो गया अरुणाचल प्रदेश ! जमुना बीनी, सवांग वांगचा, मोनू फूकन, खलीना और उनकी माँ !
सभी लगातार याद आते रहे!

मेरी अरुणाचल यात्रा बहुत ही सुखद, अनुभवजन्य और स्मृतिकारी रही। थोड़े समय की ही सही,
लेकिन हजार साल जीने के समान थी।





©Lakshmi Kant Mukul
#arunachalliteraturefestival,2022

11 comments:

LAKSHMI KANT MUKUL لکشمیکاںت مُکُل लक्ष्मीकांत मुकुल said...

नमस्ते सर, बहुत रोचक! मैं एक ही सांस में पढ़ गयी।
आत्मीय आभार आपका 🙏

_ जमुना बीनी

LAKSHMI KANT MUKUL لکشمیکاںت مُکُل लक्ष्मीकांत मुकुल said...



बहुत बारीकी से पूरे भ्रमण की कहानी लिखी है आप ने। बहुत सारे तथ्य भी डाले हैं इस लेख में।चीजों को गंभीरता से आपने परखी। आपकी यह गहरी नजर सचमुच अच्छी लगी मुझे।
_ विकास रॉय वर्मा, अगरत्तल्ला,त्रिपुरा।

LAKSHMI KANT MUKUL لکشمیکاںت مُکُل लक्ष्मीकांत मुकुल said...

मित्र *लक्ष्मीकांत मुकुल जी* की अरुणाचल की यात्रा का अक्षरश: विस्तृत संस्मरण , उत्साह से भर गया ।
सचमुच यात्राएँ आंतरिकता को संपन्न बनाती हैं ।समाज,संस्कृति व वहाँ की अनदेखी दुनिया की तस्वीर बरसों तक मन में सुरक्षित कर देती हैं ।
लिटरेचर फेस्टिवल में आयोजन की धूम का नृत्य संगीत के साथ सुंदर दृश्य बना ।
यात्रा सुखद, अनुभवजन्य व स्मृतिकारी रही यह पढ़कर आपकी यात्रा का आनंद हमने भी महसूस किया ।
बहुत सुंदर संस्मरण पर बधाई स्वीकारें ।

_ मीना शर्मा

LAKSHMI KANT MUKUL لکشمیکاںت مُکُل लक्ष्मीकांत मुकुल said...

पढ़कर मज़ा आ गया, वहां की जलवायु उस पर निर्भर वेश-भूषा, वहां की कृषि, कृषि पर आधारित खान-पान, वहां की संस्कृति जो आज भी चेहरे पर मुस्कुराहट लाने के लिए पर्याप्त है, यात्रा का इतने सूक्ष्म स्तर पर जीवंत वर्णन मानो ऐसा लग रहा है, हम स्वयं ही यात्रा कर रहे हैं यात्रा का आनंद ले रहे हैं।
हमने तो भूगोल विषय का चुनाव ही यात्रा के चकल्लस में किया था हालांकि हमारे पिता जी बैंक सेवा में थे, उन्हें सपरिवार एलटीसी मिलता था घूमने के लिए, पर हमारा पेट उतने से नहीं भरता था, मुझे बिना रोक-टोक अकेले घूमने की आजादी चाहिए थी, बता दूं इसके कुछ फायदे हैं तो कुछ नुकसान भी पर यदि इनको दरकिनार कर दिया जाए तो यात्रा में आनंद भरपूर है और हमारी तो आनंद की थैली वैसे भी बड़ी है।
अंत में field tour report तैयार की जाती थी, उस पर तांगा-टैंपो, दूरी, चर्चित स्थान आदि का वर्णन होता था, मानचित्र के माध्यम से तैयार हमारा पहला पृष्ठ इतना आकर्षक होता था कि अंदर न भी झांको तो भी पर्याप्त, इसके लिए मैं कुछ खर्चा भी कर देता था; आज भी वो सब सुरक्षित है पता नहीं था संग्रहालय इतना कीमती हो जाएगा।
*आदरणीय जैसा आपका नाम आज वैसा ही त्योहार...*😊👍🏻
आपके चेहरे की मुस्कुराहट यूं ही बनी रहे और आप यूं ही आनंद लेते रहें...👏🏻
_ पंकज राठौड़

LAKSHMI KANT MUKUL لکشمیکاںت مُکُل लक्ष्मीकांत मुकुल said...

सुखद अनुभवों से समृद्ध साहित्यिक यात्रा वृतांत...संस्कृति को जानने समझने के लिए यात्राएं अहम् भूमिका का निर्वहन करती हैं..
बहुत-बहुत बधाई, सर

_ बबिता गुप्ता

LAKSHMI KANT MUKUL لکشمیکاںت مُکُل लक्ष्मीकांत मुकुल said...

तीन दिवसीय आपकी अरुणाचल यात्रा में सबसे पहले 'पहली हवाई यात्रा का अनुभव' किसी भी व्यक्ति के लिए रोमांचक,रोचक, अनुभूति जन्य होता है इसका सूरुचि पूर्ण विवरण मिलता है। तत्पश्चात लिटरेचर फेस्टिवल के अनुभव और टुंग टाओ रिसोर्ट का सूक्ष्मता से वर्णन।

कोई भी यात्रा वृत्तांत तभी सफल माना जाता है जब उसमें विस्तार से वहां के समाज, संस्कृति,सभ्यता की पड़ताल गहनता से की गई हो इस आधार पर आप बहुत कुछ जानकारी देने में सक्षम रहे हैं।

प्रकृति और मनुष्य का साहचर्य सदैव सुखद रहा है बशर्ते प्राकृतिक संसाधनों का अतिक्रमण न किया जाये।

आपकी चिंता वाजिब है कि आधुनिकता वहां भी पांव पसार रही है। विकास जहां भी होगा प्रकृति की नैसर्गिकता प्रभावित होने से नहीं बच सकती।

आपके साथ पाठक ने भी यात्रा का आनंद लिया, अनुभवों को महसूस किया। नि: संदेह अविस्मरणीय।

बधाई लक्ष्मीकांत मुकुल जी 🙏💐
_ खुदेजा खान,जगदलपुर।

LAKSHMI KANT MUKUL لکشمیکاںت مُکُل लक्ष्मीकांत मुकुल said...


लक्ष्मीकांत जी की रचना तब लगी है जब लक्ष्मी के कांत होने के दिन हैं। उन्होंने तो बड़ी दीवाली मना ली इस यात्रा वृत्तान्त को पढ़कर पता चला। जमुना बीनी स्वयं अच्छी कवि, कथाकार हैं उनके आतिथ्य का ही सुखानुभव था कि आपने इस यात्रा को वृतांत के रूप में अच्छी भाषा शैली लिखी । इसमें अच्छा ठहराव है।तथ्य और स्थानों के साथ अपने अनुभव अच्छे से उभरे हैं। कुल मिलाकर अच्छा कथेतर।
_ ब्रज श्रीवास्तव, विदिशा।

LAKSHMI KANT MUKUL لکشمیکاںت مُکُل लक्ष्मीकांत मुकुल said...

लक्ष्मीकांत जी की यात्रा का विवरण पढ़कर बहुत अच्छा लगा। वाकई यात्राएं हमें कई
तरह से समृद्ध बनाती हैं।
मुकुल जी को शुभकामनाएं

_ डा. विजय पंजयानी, धमतरी

LAKSHMI KANT MUKUL لکشمیکاںت مُکُل लक्ष्मीकांत मुकुल said...

आज का यह व्यस्त दिन और मुकुल जी का लम्बा किंतु रोचक,सघन तमाम जानकारियां समेटे हुए यह यात्रा वृतांत जिसका एक एक वाक्य कितना कुछ समोये है। पढ़ते पढ़ते लगता है कुछ छूट न जाए। घूमना- जानना तो खूब चाहता हूं ।पर कहीं निकल नही पाता, यह हिन्दी प्रदेश के लोगों का कहना होता है। उसमे मैं प्रथम हूं। मैं अब तक मध्यप्रदेश के कुछ जिले, बलिया, शाहजहांपुर, रुद्रपुर व संगरूर ही जा पाया हूं। बाकी जानने के क्रम में मैं जहां कहीं किसी राज्य जिले गांव के स्थान की बातें किसी किताब अखबार में पा जाता हूं, उसे खूब मन लगाकर पढ़ता हूं। इस तरह देश के कई भागों अमेरिका, जापान और भी कई देशों के बारे में पढ़कर दूसरों से साझा करता रहता है। कभी- कभी कोई पूछ बैठता है कि कब गए थे? बिना झेंपे के देता हूं कि मुझे फलां जगह से यह जानकारी मिली,आज से अरुणाचल पर चर्चा करते हुए मुकुल जी का जिक्र आना तय है। इतनी बारीक विस्तृत जानकारी मिलना बहुत सुखद है। शिक्षा मंत्री होता तो इसे पाठ्यक्रम में शामिल करने की सिफारिश तत्काल कर देता। आपने हवाई यात्रा के बारे में अपने अनुभव संशय को एवम पहली बार यात्रा करने को जिस सरलता से वर्णित किया है। आप लिखते है कि मैं किसान कवि हूं। कोई छुपावा नही हूं तो जैसा हूं वैसा हूं। यात्राएं दूसरों को जानने समझने से ज्यादा स्वयं को जांचने- परखने का अवसर देती हैं। आपने हवाई जहाज से यात्रा करते हुए आसमान, बादल, नदी मौसम, जंगल, पहाड़, शहर, गांव का ललित शैली में चित्रांकन किया है।
यह भी सही है कि यात्रा के लिए शौक से ज्यादा कुछ जानने समझने की लालसा अधिक जरूरी है। और इससे भी जरूरी है। उसमें पैठना जरूरी है। जिन ढूंढा तिन पाइयां गहरे पानी पैठ, इस तरह के पैठने से ही रस मिलता है, दृष्टि मिलती है। सौंदर्य का आस्वाद प्राप्त होता है। वह एक यात्रा जो एक रचना का रूप प्राप्त कर ले,भला उससे ज्यादा एक कवि लेखक को क्या चाहिए, उस यात्रा से ,
एक कवि की यात्रा वर्णन में किस तरह एक अनजान जगह पर अपनत्व का उजाला दिखता है।उसे पढ़कर नई ऊष्मा, नई ऊर्जा, नया परिवेश, व्याकुल बना देने वाला भाव मिलता है। यह सब आपकी इस सुंदर यात्रा को पढ़कर अनुभव हुआ।

यह विलक्षण संयोग था कि अपने स्वभाव के विपरीत भी आप वहां सबके सहचर बने, वहां की एक नदी का नाम, खेत का जिक्र, लोक कला का जिक्र, जीव- जंतु की बात, रहन- सहन, खान- पान का अद्भुत व जीवंत उदाहरण आपने अपने इस यात्रा वृतांत के जरिए हमारे सामने रखा है।

आप न केवल जगहों के नाम लिखे है, बल्कि आप खामती लोगों के गीले चावल के बनने की सम्पूर्ण प्रक्रिया को भी जानते और बताते भी हैं। चावल का नाम खौलम बनाने वाली की लडकी का नाम खलीना उसका निवास इटानगर कितना ठहराव कितना जुड़ाव महसूस होता है। यह पढ़कर कि आपको अमरीकन संस्कृति से खिन्न भी होता है। आप जहां से नदी उस समाज का जीवन है, तभी तो आप हर चाहे धरती पर हो, आकाश में हो, नदी को जरूर देख लेते है । Tung Tao के बारे में आप लिखते है। थाई खामती समुदाय के बीच एक लोकप्रिय आस्था के अनुसार टुंग का अर्थ गहरा और टाओ का अर्थ कछुआ , इस नदी के बारे में जब आप बता रहे होते हैं तो मन में रह- रह कर गंगा, जमुना, सोन, नर्मदा का नाम आने लगता है।

आज व्यस्त हूं। बहुत कुछ छूट रहा है। अरुणाचल के साहित्य की जलधारा जमुना बिनी जी, सवांग वांगचा मोनू फुकन, खालिना और उनकी मां को इस अच्छे यात्रा का संस्मरण को पढ़ने के बाद भुलाया नही जा सकता।
आपको बहुत बधाई।
_ मिथिलेश रॉय, शहडोल।

LAKSHMI KANT MUKUL لکشمیکاںت مُکُل लक्ष्मीकांत मुकुल said...

आज धनतेरस के दिन मुकुल जी के मार्फ़त अरुणाचल प्रदेश के दर्शन हो गये
सुंदर वर्णन
_ अजय श्रीवास्तव

LAKSHMI KANT MUKUL لکشمیکاںت مُکُل लक्ष्मीकांत मुकुल said...

यह सही है की नदियां संस्कृतियों और सभ्यताओं को जोड़ती हैं। बल्कि यह कहना उचित होगा कि पहले जितनी भी संस्कृतियांँ बसीं या जितनी भी सभ्यताओं के बारे में अपन जानते हैं, सभी किसी न किसी नदी के किनारे ही बसे थे, क्योंकि पानी जीवन की महत्वपूर्ण जरूरत है।
विमान में किसी किसी को कानों में दर्द की शिकायत होती है, इसलिए जिन लोगों को जानकारी है वह कानों में रुई लगा कर जाते हैं।
अपने यात्रा का बहुत ही बारी और विधिवत वर्णन किया है सबसे बड़ी बात तो यह है कि इतने कठिन कठिन नाम आपको बराबर याद रहे। हो सकता है डायरी में नोट करते गए होंगे। यह काबिले तारीफ है
हम तो जैसे-जैसे पढ़ते हुए आगे बड़े वैसे-वैसे नाम भूलते गये।
आपके साथ-साथ हमने भी काफी कुछ अरुणाचल को जान लिया बहुत-बहुत शुक्रिया इस यात्रा वर्णन के लिए आदरणीय लक्ष्मीकांत जी!

_ नीलिमा करैया

लक्ष्मीकांत मुकुल के प्रथम कविता संकलन "लाल चोंच वाले पंछी" पर आधारित कुमार नयन, सुरेश कांटक, संतोष पटेल और जमुना बीनी के समीक्षात्मक मूल्यांकन

लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताओं में मौन प्रतिरोध है – कुमार नयन आधुनिकता की अंधी दौड़ में अपनी मिट्टी, भाषा, बोली, त्वरा, अस्मिता, ग...