Tuesday 10 September 2019

लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताओं पर लेखकों की टिप्पणियां

लक्ष्मीकांत मुकुल हमारे समय के एक सक्रिय कवि हैंI पिछले दिनों प्रकाशित  'लाल चोंच वाले पंछी' उनकी कविताओं का एक   महत्वपूर्ण संकलन है I बक्सर की धरती, वहाँ के दर्शन की परंपरायें, प्रकृति और जीवन का संघर्ष  आदि को देखने की उनके अंदर गहरी क्षमता है I  उनकी कवितायें देशज मन और भाव के इन उपादानों को समझने में मदद करती हैंI                                                 ------------प्रोफ़ेसर देवेंद्र चौबे,भारतीय भाषा केंद्र,जवाहर लाल  नेहरू विश्वविद्यालय ,नई दिल्ली .

Lakshmi kant Mukul an active poet of our time . published a few days' red-billed birds is an important collection of his poems. Buxar soil, there is their deep inside the ability to see the struggle of the traditions of philosophy, nature and life, etc. His poems indigenous mind and helps in understanding these variant expressions ----------- - Devendra Chaubey, Noted Writer and Academician.


जैसे-तैसे जो बच गया है,उसे बचाये रखने की चिन्ता।अनेकानेक वनस्पतियों व जन्तुओ की तरह मानव जीवन भी विलुप्ति के कगार पर है,उस लुप्त प्राय की पीड़ा।आगत की आशंका।बार-बार बाहर से उबती,गाँव लौटती और दाना-पानी के जुगाड़ फिर-फिर छलांग लगती हैँ आकाश में।सपनों को सींचती,सपनोँ को उर्वरक देतीं,अस्मिता की खोज करती;जड़ों की पड़ताल करती हैं ये कविताएँ।उसका ठहराव भी गाँव है,और उड़़ान भी गाँव है।जब भी कोई कविता कहीँ से निकलती है,उसकी अंटी में थोड़ी -सी अपनी माटी होती है।वह खर्च करने के लिए नहीँ,मुट्ठी में जकड़ कर महसूस करने के लिए है।कविता जिन मुहावरों में हमसे बतियाती है,उसमेँ कवि का निजत्व और स्पंदन है।बिम्बों और प्रतीकों के धागोँ मेँ लोक चेतना पिरोई हुई है।इस ग्लोबलाइजेशन-लिबरलाईजेेशन के हुँकार के इस कठिन दौर मेँ हमें अपनी आत्मा में झांकने,उतरने और उसे सुरक्षित रखने को प्रेरित करती हैँ लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताएँ.......!        

                         ---माझी अनंत


लक्ष्मीकांत मुकुल के भीतर एक बेहद संजीदा और ईमानदार कवि मौजूद है जो जर्जर, दमघोंटू और खूनी व्यवस्था पर पैनी नजर रखता है। इन कविताओं कि खासियत यह है कि ये सामाजिक सरोकारों से जुड़ी होने के साथ-साथ मनुष्य,गाँव-गिराँव, खेत-खलिहान, नदी-नालें, पशु-पक्षी और रिश्ते-नाते, चाँद-सूरज से गुजरती गंगा के जल की तरह हमारे भीतर उतर कर ऊर्जा और उष्मा पैदा करती हैं। हमें आश्चर्य से भर देती है कि कविता इतनी आसान भी होती है क्या?                       -----बनाफर चन्द्र

लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताएें बेहतरीन हैं.....!                                                             
लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताओं में माटी का सोंधापन लिए देशज शब्दों का बारीक प्रयोग आकर्षित करता है। कविताओं का केंद्रीय भाव बड़ी सहजता से मन को छू जाता है। आने वाले कल की विभीषिका दर्शाने के लिए सटीक शब्दों को खूबसरती से पिरोना तो कोई आपसे सीखे...!अच्छी कविताओं के लिए साधुवाद 💐.                    .      ----अनुपम निशांत

लक्ष्मीकांत मुकुल की कवितायें ग्रामगंधी चेतना से लबरेज हैं।धरती,प्रकृति,पखेरुओं को बचाने की चिन्ता और समय को खुली आँख से देखने की दृष्टि,जो एक संभावनाशील कवि के रूप मेँ उनका परिचय कराती हैँ।                                    -पूनम सिंह

जमीं से जुड़ी कविता ही कालजयी होती है और ऐसी ही कविता अपने समय में हस्तेक्षप करने का जूनून पैदा करती है । जब हम श्री लक्ष्मीकांत मुकुल जी का 59 कविताओं से सज्जित काव्यसंग्रह लाल चोंच वाले पंक्षी से होकर गुजरतें हैं तो हमें पल पल उन आयामों से पाला पड़ता है जो यथार्थ में जहां हमें कसोटती है वहीं एक नई दिशा भी दिखाती है वह भी गांव की मिट्टी से पगी रचना जैसे उनकी कविता "लाल चोंच वाले पंछी", जंगलिया बाबा का पुल, धूसर मिटटी की जोत में,  अंखुआई उम्मीद या पहाड़ी गांव में । यहां उनके देशज शब्दों से बनी गई कविता अपनी मारक क्षमता को तो दर्शाता ही है साथ ही साथ चिंतन का वह द्वार भी खोलता है जहाँ से हम जमीं से जुड़े कई सवालों को जूझते भी देखते हैं । मुकुल जी शब्दों का चितेरा तो है ही साथ ही वे इन शब्दों को देशज भूमि से जोड़कर सटीक और गरिमामय गांव से जोड़ती है । उनकी कविता कथन, खोज, कभी न दिखेगा और पावं भर बैठने की जमीं में हम देखते हैं की वे शब्दों से खेलते हैं और उन्हें एक नए अर्थ देने में सक्षम होते है । कुल मिलकर यह संग्रह कई मायनों में देश, समाज और गांव को सही आईना दिखाता अपना रास्ता खुद बनाती हुई सभी मानकों को तय करती है । यहां हम उनको पढ़ने पर यह तो होता है जब हम प्रत्येक पल खंडित हो रहें हैं , उससे बचा जा सके । उनको पढ़ना एक सुखद अहसास तो है ,साथ ही नई दिशा भी दिखती है।     
                       ✍मोतीलाल, राउरकेला

लक्ष्मीकांत मुकुल जी ,आपके काव्य संग्रह ,लालचोंच वाले पक्षीं का पीडिएफ पढा !पहली बार तो अवाक निशब्द ही रह गयी ,दोबारा तिबारा पढने पर लगा ,कि

ये कवितायें नहीं लाल चोंच वाले पक्षीं हैं जिनसे लाल रंग झड़ कर पढने वाले की आँखों में तैर जाता है .नहीं रुलाई नहीं बस मन भर आता है जैसे मेघों की गुहार में मंगल गान करती अँगूठा छाप औरतों की आँखें भर आती होंगीं ।

किस किस कविता की बात करूँ एक एक कविता स्वयं में सम्पूर्ण ग्रंथ है .हर कविता पर घंटो मनन किया जा सकता है .हर एक  कविता जीवन के ,समय के एक अध्याय के पन्ने पलटने जैसी . पृष्ठभूमि यूँ तो गाँव हैं ,दारिद्रय ,भय ,अनिश्चितता ,और संकटों से भरे हुये.मगर फिर भी ये गाँव मरते हुये नहीं लगते.बीते हुये ,रिक्त नहीं लगते .

कहीं छुद्रता नहीं है कोई स्वर गिड़गिड़ाता हुआ नहीं है .और फिर भी कोई पथरीली तटस्थ असम्पृक्ता नहीं .

मानचित्र के किस कोने में है तुम्हारा गाँव कवि ?इतनी संवेदना इतनी चेतना, इतनी कोमलता कैसे कवि ?

आप कहते हैं "जीने की ललक को वे फसलों की तरह बचातें हैं अगोरिया के "

आप मुझे वैसे ही बचाते लगते हैं कविता को !

बार बार पढी ,गुनी ,मानी ,याद रखने वाली कवितायें हैं ये!           
                 _डॉ ज्योत्स्ना मिश्र (कवियित्री एवं स्त्री -रोग विशेषज्ञ, नई दिल्ली)




लक्ष्मीकान्त मुकुल जी अपने समाज के पहरुआ कवि हैं।बिना लाग लपेट अपनी बात जैसे साँझ के झुरमुट से ओसारे में कविता को पसार देना मुकुल जी की ख़ासियत हैं।आज के लहकते दौर में भी कविता उसकी लहक और उसकी महक को भी संजोये रखना कोई कम बात नहीं है।
                      _अजीत मिश्रा,
संपादक - सार्थक संवाद



लक्ष्मीकांत मुकुल गाँव को बाहर से देखकर कविता करने वाले कवि नहीं है, वे गाँव को गाँव के भीतर से जी रहे हैं । मेरे लिए यह संग्रह पढ़ना एक विस्मित कर देने वाला अनुभव है। मैं लाल चोचवाली चिड़िया को गाँव की आत्म अभिव्यक्ति कहूँगा। इन कविताओं की स्थानीयता इनकी प्रामाणिकता है। बिहार के भोजपुरी क्षेत्र के गाँव अपनी सांस्कृतिक इयत्ता के साथ इन कविताओं में  व्यक्त हैं । मैं एक पूरा दिन इन कविताओं पर बोल सकता हूँ । गाँव की तरह बोलचाल की भाषा में लिखी ये कविताएँ साधारण नहीं गूढ़ है।" गाँव तक आ गई सड़क / उसी सड़क से/ गाँव के लोग शहर चले गए ।" ये साधारण पंक्तियाँ कम से कम तीन घंटे का गंभीर गद्य अपने में समाहित किए हुए है। मुकुल का विषय गाँव है लेकिन वे गँवार कवि नही हैं। दूर से गाँव की छवि आंकने वाले कवियों से वे भिन्न हैं ।कविताएँ  पठनीय और संग्रहीत हैं ।       
              _ डॉ. अनुपम,फिल्म लेखक           

लक्ष्मीकांत मुकुल की हिंदी शायरी मेँ तरक्क़ीपसंद नज़रिया,मुकामियत,वक़्त की नज़ाक़त,इब्हाम के हवाले से दौर-दौरा के हकीकत की नकाब कुशाई और तआर्रुफ़ का एहसास होता है।इनके अशआरात में गाँव की मोअत्तर फ़िजा व खेतीबाड़ी का मिज़ाज वाज़ेह है,चुनांचे इसमें खुद वतन के कच्चे अमरुद की महक भी मिलती है।शायरी के अल्फ़ाज में ये बोली-ठोली से प्रभावित पाकदामन अहले -कलम हैं,जहाँ मुक़द्दस बियाबान में शज़र पर लाल चोंच का परिंदा चीख़ता है।इनकी शायरी से गुजरते वक्त्त ऐसा महसूस होता है कि काफ़िला में चलते हुए हम किसी हमराह  को अचानक अपना दिल दे चुके हों...!               
                                         ✍रुबीना  सहसरामी

लक्ष्मीकांत मुकुल की काव्यांजलि __कवि केदारनाथ सिंह के लिए

कवि केदारनाथ सिंह को याद करते हुए / 

लक्ष्मीकांत मुकुल

दो बौरायी नदियों के दोआबे में

जन्मी थी एक उम्मीद

जो सोते समय सपनों में मचलती हुई कहती- " यहां से देखो"

तो, कांपता दिख जाएगा माझी का पुल

जागते समय आकाश में सफेद बादलों जैसे

 सरसों की धवल पंख

वह हिंदी कविता का सारस था

जिसके पैर सने थे गांव की सोंधी मिट्टी में

चोंच उठाए अपने हिस्से के नवान्न लिए

वह उड़ान भरता था बनारस, दिल्ली के बसेरों 

तक

भागदौड़ की घड़ी में भी  थके नहीं उसके अजगुत पंख

हिंदी कविता की पक रही जमीन पर वह बरसाता रहा अनछुए बिंबो जैसी बारिशों की बौछारें

गीली -गीली - सी होती रही आठवें नौवें दशक की हिंदी कविताएं

नवांकुरों को रस -प्राण के गुण मिलते रहे

जिसके प्रयोगों से कई पीढ़ियां चीखती रही उसके काव्य - रूपकों से

जैसे हवा के विरुद्ध उड़ने का कौशल सीख जाते हैं बाज के बच्चे

ग्राम्य व शहरी काव्य - रूपों के बीच

एक सीढ़ी था वह कवि

जिसने समझाया कविता में स्थानीयता का बोध

निजता में विश्व दृष्टि की फलक 

जैसे  वीराने में खड़ा एक पेड़

दिसावर से आये पंछियों को सुनाता है

अपने संघर्ष की मिथकीय कथाएं

सीधा शांत दिखता

एकदम खेतिहर कवि लगता था वह

जिसकी कविताओं से फूटती थी

धान रोपनी के अविरल गीतों की ध्वनियां !

लक्ष्मीकांत मुकुल की दशरथ मांझी पर कविता

अदम्य इंसान थे दशरथ बाबा  / लक्ष्मीकांत मुकुल

तुम्हारे छेनी - हथौड़ी के आगे माथा टेक दिया

तीन सौ साठ फुट लंबा भीमाकाय पर्वत

जो मुंह चिढ़ाता आ रहा था युगांतरों से

जिस की छांव में बढ़ता था गरीबों पर जुर्म

सभ्यता के विकास का सबसे बड़ा रोड़ा

देश आजाद होने के बावजूद

इतने छोटे हथियार से कैसे ढाह दिये

पच्चीस फुट ऊंचे पहाड़ को

जिसे तुम ने खरीदा था अपनी बकरियां बेचकर

पूरे बाईस साल कैसी जूझते रहे अपनी सनक भरी साहस से

किन आंतरिक बलों से लड़ते रहे अमानुषिक ता के विरुद्ध

बीस कोस के दुर्गम रास्ते बदल गए कोस भर में ही

न्याय युद्ध में पांव के सहारे ही नाप लिए दिल्ली तक की दूरी

यह जनहित के लिए किया गया काम था

कि फगुनिया की स्मृतियों से किया गया वादा

जो पहाड़ चढ़ती फिसल कर मरी थी यहीं पर

उसके बहते  खून के छींटे अब भी इन चट्टानों पर

तुम्हारी जीवन - लीला में खलनायक बने

इन पर्वत - मेखलाओं के विरुद्ध यह कैसा भयंकर प्रतिरोध था तुम्हारा...?

जब कभी हवा से उड़ती आती हैं तुम्हारे कानों में

चूड़ियों की खनक , पायल की रुनझुन

तुम डूब जाते थे उसकी सुनहरी यादों में

अगले ही पल बनैले दैत्य - रूप में दिखाई देती थीं

तुम्हें गहलोत की पहाड़ियां

तुम चल देते थे बेहिचक उससे होड़ लेने अपने नन्हें औजारों के साथ

हथौड़ी के ठोकर से जूझती छेनी से गूंजता था श्रम का गीत

इतिहास के पन्ने पर दर्ज कराने मनुज की संघर्ष गाथाएं

उस इलाके के जिंदा - मुर्दा लाशों के जंगल में

एक तुम ही अदम्य इंसान थे दशरथ बाबा !

तुम्हारे नाम से ही जीवंत होती है बर्बर दौर में प्रेम  की संकल्पनाएं

पथरीली घाटी में लगाए तुम्हारे गाछी से

बहती रहेगी शीतलता की बयार

उगते रहेंगे हर साल नए किसलय

प्रेरित होती रहेंगी नस्लें तुम्हारी साहसिक कथाओं से!

लक्ष्मीकांत मुकुल की मॉब लीनचिंग पर कविता

पागल  भीड़ ने घेर लिया है मुझे / लक्ष्मीकांत मुकुल




जैसे ही मैं कहना चाहा

कि नाबालिक बच्चों को नहीं चलानी चाहिए बाइक

शौक बस चला भी रहे हो तो सिर पर रख लेना हैमलेट

सुनते  ही नौछिटीहों के भीड़ की आंखें घूरती है मुझे

उनकी नजरों से दहक रही हैं क्रूरता की लपटें बौखलाए कुत्तों -सा घेर लेते हैं मुझे झुंड के झुंड अचानक

किशोरावस्था की सीमा रेखा पर पांव रखने वाले इन छात्रों में कहीं नहीं दिखती बचपना वाली तरलतायें

उनके जीवन के कनात तने हैं मोबाइल ,बाइक,अवैध धन के प्रवाह के  सहारों पर

वे घूरते हैं मुझे लगातार गुस्से में

जैसे शिकारियों के झुंड घूरते हैं घबराए हिरण को

उन्हें नफरत है समाज के बनाए ढांचे से

नियम ,कायदे, कर्तव्यों की खाल उधेड़ने की सनक बोरसी  की आग -सी धुआं रही है उनके भीतर

उन्हें पसंद नहीं है सड़क पर दाई ओर चलना

वे रखना चाहते हैं पूरी दुनिया को अपनी मुट्ठी में कैद

कोई बहाना नहीं चाहते हैं मेहनत करते हुए पसीने की एक भी बूंद, वे कभी नहीं देना चाहते  मातृभूमि की रक्षा के लिए अपना सर्वस्व बलिदान

वही अपनी बातों से कच्चे चबा जाना चाहते हैं पाकिस्तान को

काश्मीर- राम मंदिर -तीन तलाक- सर्जिकल स्ट्राइक पर जबानी कैची कतरते इन नौजवानों को गांधी, भगत सिंह ,अंबेडकर लगते हैं उनके सबसे बड़े दुश्मन, नेहरू के माथे पर फोड़ना चाहते हैं सभी कमियों का ठीकरा

विषहीन डोंडहा सांप को घेरकर बच्चे मारते हैं ढेला

खेलते हैं सांप मारने वाला खेल

जैसे नील गायों के झुंड रौंद डालते हैं हमारी खड़ी फसलों को 

 इन किशोर बाइक सवारों ने घेर लिया है मुझे

बरसाते हुए मुक्का- लात ,ठीक शहर के चौराहे पर

राहगीर मेरी दशा को देखकर मुस्काते, तो प्रफुल्लित हैं पुलिस वाले

जैसे अपने शिकार को छटपटाते देख कर उमंगित होते हैं शैय्याद......!!




लक्ष्मीकांत मुकुल के प्रथम कविता संकलन "लाल चोंच वाले पंछी" पर आधारित कुमार नयन, सुरेश कांटक, संतोष पटेल और जमुना बीनी के समीक्षात्मक मूल्यांकन

लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताओं में मौन प्रतिरोध है – कुमार नयन आधुनिकता की अंधी दौड़ में अपनी मिट्टी, भाषा, बोली, त्वरा, अस्मिता, ग...