Thursday 11 November 2021

लक्ष्मीकांत मुकुल की मां पर आधारित कविताएं

मां पर आधारित तीन कविताएं 
_लक्ष्मीकांत मुकुल 

1.

तुम धनहर खेत की तरह हो  मां 
जिसे जोतते - कोड़ते उपजते हैं हम अनाज 
जीवन भर की भूख मिटाने के लिए 

तुम नदी सरीखी हो मां 
जिससे बुझाता रहा 
सूख रहे कंठ में प्राण 

तुम बारिश जैसी हो मां
 जेठ की तीखी तपन में
 दहकते मेरे तन - मन को 
हरसाने आ जाती हो 
आषाढ़ की टप - टप बूंदों से

 तुम सांझ के ढिबरी की लौ हो मां 
जो बाती की तरफ तिलतिल कर जलती हुई
 भरती रहती हो मेरे अंतर्तम में उजास 

तुम रात की चांदनी हो मां 
जिसकी भीनी  किरणें दिखाती हैं मुझे 
घुप्प अंधेरे में भी बच निकलने की राहें !


2.

चूल्हे के घुएं के बीच
अदहन में भात सींझाती हुई
तुलसी चौराहा के पास दीप चलाती हुई 
दरवाजे पर खड़ी 
खेत - खलिहान से मेरे आने की बाट जोहती
दूर रिश्तेदारी से मेरे कई दिनों से न लौटने 
नहीं कोई संदेशा पाने से 
डभडभाई आंखों से सगुन का टोटम करती हुई 
कई तस्वीरें हैं मां की मेरे जेहन में 
जिसे सजा कर रखा हूं अपने दिल में 
अनोखे एल्बम की तरफ।

3.

कभी नहीं गया देखने
 संथाल परगना के आमड़ापड़ा के उस स्कूल को
 जिसमें अपने बचपन में पढ़ा करती थी मेरी मां 
बासलोई नदी का किनारा 
उस पर अंग्रेजों के जमाने का पुल 
जंगल विभाग का डाक बंगला 
सहपाठी आदिवासी बच्चे
 गुम्मा पहाड़ की वो शैक्षिक यात्रा
 पहाड़ी जनजाति की आदिम घरों के नजारे 
साप्ताहिक हाट में अपने मां बाप के साथ 
लकड़ियों के बोझ लादे संथाली बच्चे
 कितना कुछ अब भी
 याद करती है मां बड़ी शिद्दत से 

सुनाती है अपने समय की भूली - बिसरी यादें 
किन्ही दंतकथाओं - सी

 उसके स्मृतियों की धार में 
बारंबार पतवार थामे खेता हूं अपनी नाव 
उसके बचपन की उमगती हुई बलखाती नदी में।


लक्ष्मीकांत मुकुल की कोयल पर पांच कविताएं


कोयल पर पांच कविताएं
____________________

* खींचती है मुझे अपनी ओर कू कू की आवाज़ *
_ लक्ष्मीकांत मुकुल
1.


खिड़की से देखता हूं 
गिलोय की लात्तरों
 रेंड की गांछ पर बैठी 
कूक रही है कोयल
 गा रही है कोई मधुर गीत 
अपनी बोली में 
उन ध्वनियों से आ रहे हैं  सप्तसुरों के राग
 बांसुरी की मादक धुन 
तुम्हारेे मीठे बोल जैसी सधी आवाज 
बतासे जैसी घुलती हुई अंतर्मन में 
जीवन के रिक्तता में भरती हुई मिठास के स्वाद

उस वनप्रिया के बोलते ही 
प्रारंभ होता है ऋतुराज का आगमन 
उसकी कुहू कुहू से बौराती है आम्र मंजरियां
 उसके चहकने से मुदित होते हैं उदास बगीचे 

उसके जैसी काली न सही, पर सांवली रूपमती हो तुम उसकी आवाज हर बार खींचती है मुझे अपनी ओर
 ठीक, लौकी - फूलों -सी धवल दंत पंक्तियों के बीच
 तेरी तिरछी मुस्कान की तरह !


2.



नदी के कगार किनारे
 गूलर की गझिन पत्तों वाली डाल पर 
जाने क्या कूकती है कोयल 
प्रेम की तीव्रता या विरह पीड़ा की बातें
तुम भी तो जाती हो उधर सूखे कंडे बटोरने 
गोबर पाथने "बुढ़वा इनार" के पास
क्या बतियाती हो उसके साथ 
शायद , वह कौवे के प्रतिघात की शिकायत करती होगी तुमसे तुम भी मेरी बेवफाई के खांची भर उलाहने
 साझा करती होगी उसके साथ

दुख भरी अंदाज में कहती होगी कुहुकुनी
 अब नहीं बचे घने वाले बाग 
उसके कूकने को नहीं माना जाता है 
लग्न मासों के आरंभ होने का समय 
उसकी मधुरम आवाज से अब नहीं भरते 
पोरदार ईख की डंठलों में अमृत सरीखी रसधार

उसकी दर्द को बड़ी गौर से सुनती हुई तुम 
आखिर कहीं देती होगी अपनी व्यथा - कथा 
अब नहीं रहा वह प्रेमिल भाव बोध जीवन में 
पहले जैसा , जब हम मिले थे  कौमार्यावस्था  में 
उस नीम की घनी छांव में ,जब देर तक कूकती रही थी तुम।


3.


मेरे आजू - बाजू के भग्न गृहों पर 
चहकती है कोकिल बयनी
बरसों से सुनाती हुई आदिम राग
नहीं लौटे वे लोग फिर कभी 
जो गए थे गांव छोड़कर 
शहरों की चमकती दुनिया में 

उन भ्रंसित घरों में बिल्लियों- नेवलों ने
 बसा लिया है अपना बसेरा
 उस पर उगे चिलबिल के पेड़ पर 
हर शाम होता है कर्कश कौवागादह 

 टिटिहरियों के झुंड टी टी करते हुए 
बढ़ाते हैं उधर पसरेे हुए अनवरत सन्नाटे 
कू कू करती हुई कोयल 
याद दिलाती है विगत जमाने के किस्से
 जब वन फूलों की तरह सर्वदा
 खिलखिलाते रहते थे उजाड़ होते जा रहे हैं  ये गांव !

4.

उसकी कू कू को सुनकर 
तड़प उठता हूं तुम्हारे पास जाने की चाहत में 
सुनने को तुम्हारी मीठी बातें 
खनकती हंसी , थिरकते लब 
तुम्हारी पनीली आंखें 
छू लेने को मचलता हूं 
तुम्हारी करमी- पातों सी नरम उंगलियां
 जैसे सूंघती हुई कोयल 
स्पर्श करती है अपनी चोंच से 
आम के गुच्छे में लगे टिकोरे
 गेंदे  फूलों पर मंडराते
 पराग- कणों की ललक में भौंरे
 पके पपीते को ठोरियाने के लिए सुग्गें !

5.

जब लहराती हैं शिरीष वाले खेत में 
गेहूं की रोएंदार बालियां 
गदराती है मटर की छमियां
 हवा के झोंके से झिलमिलाते हैं
 तीसी के नीले फूल 
सरसों के पीले फूलों से  भर जाती है बधार 
तभी वह आती है कू कू करती हुई 
बांस के झुरमुटों ,
वन बेरियो की झाड़ियों ,
मकोह की झलांस में
 ताजे गुड़- सी महकती आवाज लिए 
कहती हुई कि प्रेम करने का माकूल समय है यह
 मिलने को आतुर हो खोजने लगता हूं तुम्हें 
नदी -घाट ,पोखरा , खेत - खलिहान 
डरते हुए कि कहीं बीत ना जाए 
मिलन का यह समय ,यह चाहत 
जैसे पेड़ की डाल से चूक गए
 बंदर को नहीं मिलते  चखने को ताजे फल 
सूख चुकी फसलों को नहीं मिलता फिर से जीवन
असमय बारिश की झड़ी से...!

लक्ष्मीकांत मुकुल के प्रथम कविता संकलन "लाल चोंच वाले पंछी" पर आधारित कुमार नयन, सुरेश कांटक, संतोष पटेल और जमुना बीनी के समीक्षात्मक मूल्यांकन

लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताओं में मौन प्रतिरोध है – कुमार नयन आधुनिकता की अंधी दौड़ में अपनी मिट्टी, भाषा, बोली, त्वरा, अस्मिता, ग...