Friday 5 February 2021

लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताएं हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि एवं "सूत्र" के संपादक विजय सिंह की नजर में


कवि होने के दंभ से दूर  प्रतिरोध  के कवि लक्ष्मीकांत  मुकुल  
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 _विजय सिंह


 कविता का जनपद सुनिश्चित  करने का समय है!  इस समय जब कवि होने की होड़  में  कविता की मिट्टी, कविता का जनपद कवि के जीवन में न हो  तब   चिंता स्वाभाविक  है ।     हिन्दी  कविता का  जनपद अपनी पूरी आभा, ताप और संघर्ष  के साथ  हमारे सामने मौजूद  है केदारनाथ  अग्रवाल  ,नागार्जुन  ,त्रिलोचन  , विजेन्द्र, विष्णु  चन्द्र शर्मा, शलभश्रीराम सिंह   जैसे कवियों  से हमारी कविता समृद्ध  हुई है ।   इस परंपरा से एक नई  सशक्त  संभावनाशील कवियों  की पीढ़ी  दूर गाँव, नगर - जनपद, कस्बों में रहते हुए  अपने भूगोल  ,परिवेश  जन- जीवन और अपनी मिट्टी  की अनगढ़ता में  रच बस कर जनपदीय कविता, लोक की कविता को समृद्ध  कर रहे हैं  ! भले ही इन कवियों  को महानगर, बड़े संपादकों  के नाम से निकलने वाली पत्रिकाओं  में जगह न   मिल  पा रही हो लेकिन  जनपद - कस्बों  ,छोटे शहरों  से निकलने वाली प्रतिबद्ध  साहित्यिक  पत्रिकाओं  में यह सब छप रहे हैं  और पढ़े भी जा रहे हैं।   आज बाज़ार  की आवाजाही, उदारीकरण  ,वैश्वीकरण  ,माल संस्कृति  ने जब जीवन को चारों   ओर से अपने गिरफ्त में लेने की  साजिश  में मशगूल  है  तब एेसे विकट परिस्थिति  में  गाँव का  किसान कवि  लक्ष्मीकांत  मुकुल  ,   जनपद  के    महत्वपूर्ण  कवि के रूप में प्रतिरोध  के साथ  समकालीन  कविता में  खड़े दिखाई  पड़ते हैं  !  कवि मुकुल की  दिनचर्या  में गांव  है  ,जन सामान्य   के जीवन में आने वाले उतार - चढ़ाव हैं  संघर्ष  है, आशा है , ताप है  जिससे उनकी कविता खेत में पके अनाज  की तरह पकती है !कविता लिखना, किसान का जीवन जीने जैसा ही है  अच्छी  बात यह कि कवि  लक्ष्मीकांत  मुकुल   के जीवन में ही  किसानी है, खेत है  इसलिए  उनकी कविताओं  में मिट्टी  की सौंधी महक है तो पके अनाज की तरह चमक!  ! किसान का जीवन मौसम की तरह है उतार - चढ़ाव से भरा रहता है जैसे कवि अपने समय से जूझता है जिस कवि में यह हौसला है,  अपने समाज, अपनी मिट्टी  के रंग में सरोबोर होकर जीवन  से जूझने की ताकत  है वही कवि  अपनी कविता सामर्थ्य  को दूर तक पहुँचा पाता है लक्ष्मीकांत  मुकुल    एेसे ही सहज कवि हैं जो   अपने जनपद  में रहकर समकालीन  कविता परिदृश्य   में रेखांकित  किये जा रहे हैं  उनकी कविताएं  सहज जीवन संसार रचती हैं  उनकी कविताओं  में उनके आसपास  का जीवन है ।  प्रकृति को  आत्मसात  करते कवि के पास कविता का बड़बोला पन नहीं  है  बल्कि  कविता की जीवंतता  है, कवि का रचना संसार  मदार के उजले फूलों  की तरह है, सूरज से धमाचौकड़ी मचाते गाँव के मछुआरों  से समृद्ध  होता वसंत का अधखिला प्यार  भी है ।  कवि लक्ष्मीकांत  मुकुल से मेरी बात होती रहती है उनके कवि को मैं  लगातार  महसूस  करता रहता हैं  यह कवि कविता को लेकर अपने गाँव, देश शहर की चिंता  के साथ  अपने परिवेश  में, खेती किसानी  , जनपद के लोगों  के जीवन यापन में आ रहे विषमताओं  ,अंतविरोधों को लेकर सजग रहते हैं  वह उनके कवि होने की स्वभाविक  पहचान को और गाढ़ा करता है मुकुल की कविताओं  में  जीवन के प्रति जो लगाव दिखाई   पड़ता  है वह उन्हें  अपनी पीढ़ी  के कवियों  से एकदम अलग करता है  आज कवि होना    आम बात सी हो गई  है ,क्या कवि  होना सचमुच  आम होना है।  नहीं  कवि होना आम होना नहीं   बल्कि  कवि  होना जिम्मेदार  होना है  इसलिए  मुकुल  जी कविताओं  जिम्मेदारी  की भाषा आप अलग से पढ़ सकते हैं  आज जब कविता   में एक सिरे  से संवेदना   को नकार कर एक ठस कविता जीवन गढ़ने की साजिश  रची जा रही हो तब  लक्ष्मीकांत  मुकुल की कविताएं  आशा जगाती हैं  मुकुल के पास कविता की सहज भाषा  है देशज शब्द  हैं  तो अनुभव संसार व्यापक है तभी लक्ष्मीकांत  मुकुल ' कुलधरा के बीच मेरा घर ' जैसी महत्वपूर्ण  कविता  लिख पाते हैं  इस कविता से आप मुकुल के कविता जीवन को और बेहतर समझ  सकते हैं  ! राजस्थान  के शापित गांव कुलधरा के बारे में आप सभी को पता है ।  जिस तरह से इस गांव  के निवासी आताताईयों के डर से गाँव  छोड़कर  चले गये और कभी इस गांव  की ओर लौट कर नहीं  आये जैसे किसी ने इस गांव  को     शापित  कर दिया खण्डहर में तब्दील  हो जाने के लिए  आज वर्षों बीत गये कुलधरा में कोई  नहीं  आया वर्षो बाद भी यहाँ मकान है  लेकिन  खंडहर रूप में खेत, तालाब, नदी नाले खेल मैदान  पेड़ सब आज भी खंडहर रूप  विद्यमान है कुलधरा की स्मृतियों  को जीते हुए  कवि लक्ष्मीकांत  मुकुल ने  अपने देश  ,गाँव, जनपद को  देखा है  जिस तेजी से शहरीकरण  ,औद्योगीकरण , माल संस्कृति  ,नये नये बाज़ार, पैसों का आतंक ने अपने गिरफ्त  लिया है जिससे मनुष्य  का जीवन  ,मनुष्य  की तरह नहीं  रहकर एक मशीन में  तब्दील  हो गया जिसमें  संवेदना, प्यार  ,हरियाली  दुख दर्द    मनुष्य  का मनुष्य  से दूर हो जाना जैसे सब कुलधरा गांव  की तरह शापित  हो गये हैं  अन्यथा  एक समय गांव, गांव हुआ  करता था, घर, घर जैसे दिखता था जहां   जिंदगी  बसती थी, चूल्हे  के धुएं  से आकाश निखर जाता था, बर्तनों  की खड़खड़ाहट से संगीत  लहरी  की धुन से जीवन खिल उठता था, आपसी प्रेम, भाईचारा से जीवन उमगता था लेकिन  कहाँ गये वे दिन जैसे कुलधरा श्राप से सारे अच्छे दिन, अच्छा  समय खंडहर  हो गया है... 
  कुलधरा की तरह 
 शाप के भय से नहीं  ,कुछ  पेशे बस कुछ  शौक से छोड़ दिए घर - गांव 
 खो गए दूर - सुदूर शहरों  के कंक्रीट  के जंगलों  में छूटे घर गोसाले मिलते गए मिट्टी  के ढेर में ( कुलधरा के बीच  मेरा घर)  कहने को तो हम आधुनिक  समय में जी रहे हैं     ज्ञान - विज्ञान  के क्षेत्र  में हमने काफी उन्नति  कर ली है  लेकिन  सोच और समझ के स्तर पर आज भी हम पिछड़े हैं धर्म, आडम्बर  जाति, छूआछूत और सांम्प्रदायिकता के आग  में झुलस रहे हैं  सांम्रदायिकता  का ज़हर आज़ादी  के इतने वर्षों  बाद   भी वहीं  स्थिति  हैं मानवता जार - जार कर आंसू बहा रही  है,  कट्टरपंथी    ताकतों, धार्मिक  उन्माद   ने कई घर  जला दिये, कई जिन्दगी  छीन  ली लेकिन  यह उन्माद  आज  भी कम होने की जगह सब दूर  फैलता जा रहा है सचमुच  यह चिंता  का विषय  है ।  लेकिन कवि लक्ष्मीकांत  मुकुल  आश्वस्त  हैं   कि इस देश  में  कुछ  एेसे पड़ोसी   आज   भी जीवित हैं  जो ' जोल्लहहट में बचे बदरुद्दीन  मिंया ' को बचाने  के लिए खुद लहूलुहान  होते रहेंगे....   तुम्हें  याद है न बदरूददीन  मिंया, वह   अमावस की रात कैसे बचाने आया था तुम्हारे  पास वह पंडित  परिवार  जो बांचता था / भिनसारे में रामायण  - गीता की पोथियां वह निरामिष तुलसी दल से भोग लगाने वाला / जिसका समाज  तुम्हारे  इलाके को / मलेच्छों का नर्क मानता और तुम मानते रहे उसे काफिरों  की औलाद  / किन रिश्तों  को जोड़ता हुआ आया था तुम्हारे  पास लुटेरों  के बीच के भीषण चक्रवात  में / बचाता रहा मुस्लिम  परिवार  को रखते हुए  भी बेखरोंच खुद लहुलूहान  होता रहा वह पंडित  पड़ोसी पना के धागे  को सहेजता हुआ...  ( जोल्लहहूट में बचे बदरुद्दीन   )कवि  लक्ष्मीकांत  मुकुल 
 तमाम प्रतिकूलताओं में जीवन   की सच्चाई  ,प्रेम - भाईचारे  के लिए  उठ खड़े  होने का संकल्प  कवि की दृड़ता, संवेदना  जीवन दृष्टि   को व्यापकता प्रदान करती है । अपने समय के अंधकार, कुरीतियों   सकीर्ण सोच  ,कठमुल्लापन के खिलाफ  यह   कविता कवि मुकुल  को  एक प्रतिबध्द  संवेदनशील  कवि के रूप में पहचान  देती है ।किसी भी कवि के पास प्रेम संवेदना  नहीं  है तो उसकी कविता नदी बहुत  जल्दी  सूख जाती है इस भाव दृष्टि  में भी कवि लक्ष्मीकांत  मुकुल   ,अन्य कवियों  से अलग दिखाई  पड़ते हैं  वे प्रेम के जीवन को बहुत  मासूमियत से लोक रंग, लोक भाषा और देशज  शब्दों  से बुन कर   प्रेम का  जीवंत संसार   रचते हैं   ' हरेक रंगों  में दिखती हो तुम ' सीरिज की कविता है जिसमें कवि का काव्य वैभव कितनी सरलता  से प्रेम को ऊंचाई  प्रदान  करता है इस कविता में कवि ने देशज शब्द जैसे मदार, पोखर, बभनी पहाड़ी  ,गहवर, पुुलुई पात, टभकते घाव जैसे शब्दों  का उपयोग  अद्भुत  ढंग से किया है जिससे  यह प्रेम कविता  पढ़ते ही  पाठक के मन में घर कर जाती है कभी न विस्मृत  करने के लिए  ! इसी तरह से  '  वसंत  का अधखिला प्यार  ' कविता  भी है जिसमें कवि प्रेयसी की आँख में वसंत  को देखते हैं  यह देखना  पृथ्वी  को  भी देखना है  कवि इस कविता में कवि जीवन को धड़कता देखता है आज जब व्यक्ति   काठ हुआ  जा रहा है जैसे स्वभाविक  रूप से जीवन  जीना ही भूल गया है  एेसे रिक्त, बेजार समय में प्रेम ही व्यक्ति  को जिंदा कर सकता है कवि की यह सोच इस कविता को और अर्थवान बनाती है --  
 मदार के उजले फूलों  की तरह / तुम आई हो कूड़ेदान भरे मेरे इस जीवन  में / तितलियों, भौरों जैसा उमड़ता/ तुम्हारी पनीली आंखों  में छाया पोखरे का फैलाव .. / शगुन की पीली  साड़ी  मैं  लिपटी / तुम दिखी थी पहली बार / जैसे बसंत बहार  की टहनियों  में भर गए हों  फूल.. ( हरेक रंगों में दिखती हो  तुम)  
 
 मैं तो अभी वही ठिठका  हूँ, जहां  मिली  थी तुम / जैसे मिलते हैं  दो खेत बीच की मेड़ों पर / आंखें गड़ाए कभी न लौटोगी तुम / वनतुलसी की मादक गंध  लिए  / इस पगडंडी  पर कभी किसी वसंत में.... ( वसंत का अधखिला प्यार)   किसी भी रचना की कसौटी  क्या हो, कविता  पढ़ने - गुनने  के बाद हमारी मन:स्थिति  कैसे बनती है हम खुद से किस तरह बतियाते हैं  लक्ष्मीकांत  मुकुल की कविता ' जहर से मरी मछलियां  ' पढ़कर आप यह सोचने के लिए  बाध्य होंगे हमारी संवेदना  को झिंझोड़ती यह कविता अपने समय में मनुष्य  के पतनशीलता को इंगित  करती है अजीब समय है यह मनुष्य  अपनी छवि, अपना व्यवहार  ,अपनी अच्छाई स्वयं  नष्ट  करने में तुला हुआ  है, जंगल को नष्ट  करने वह सबसे आगे है तो वन प्राणियों  का संहार कर जंगल   को शिकारगाह बनाये हुआ है तो अब उसकी नज़र नदी की ओर है, निशब्द  बहने वाली नदी और वहाँ अठखेलियां  करती मछलियों  पर भी  उसकी नज़र है ।  मुकुल का कवि इस जघन्य  कृत के लिए   अपनी कविता के माध्यम  से कड़ा विरोध  करता है ।  यह कैसा समय है मछलियां  भी नदी में सुरक्षित  नहीं  है ।  मनुष्य  अपने स्वार्थ  ,लाभ के चलते मछलियों  की  भी हत्या कर रहा है  - 
 नदियों  को हीड़ने वाले शिकारी मछुआरे  / बदल दिए हैं  अपनी शातिर चालें / वे नदी में लगा रहे हैं  तार से करंट / पानी में फेंकने लगे हैं कीटनाशक  दवाईयां   / बीच लहरों  में करते हैं  डायनामाइट का विस्फोट  ( जहर से मरी मछलियां)  कवि  लक्ष्मीकांत  मुकुल  सचेत कवि हैं  ,अपने परिवेश   से ही कविता के बीज ढूँढंते हैं  उनके आसपास  चीन्हे जाने वाले लोग  हैं उनकी जीवनचर्या में मृत्यु  के  समीप पहुंचे व्यक्ति  की   इच्छा  में जीवन जीने की चाह, उम्मीद  की  रोशनी  जलते - बूझते देखते  हैं यह देखने समझ कवि को अपनी समकालीन   स्थितियों  की गहरी समझ  , जुड़ाव  से है  तभी वह ' मृत्यु  के समीप पहुंचा  व्यक्ति ' कविता लिख पाते हैं ' कुछ  ही देर पहले भी इसी सोच की कविता है .. कवि समाज की नब्ज पर गहरी नज़र रखते हैं  यह पंक्तियां  देखिए  - 
  मृत्यु  सैया के मुहाने पर खड़ा आदमी / आखिरी दम तक कोशिश  करता  है कि वह बना रहे जीवित व्यक्तियों  की  दुनिया  में....  कवि मुकुल  की सभी कविताएं   एक नया मुहावरा रचती हैं  जहां  मानवीय  पक्ष, जनपक्षधरता, जन संस्कृति  के साथ  उपस्थित  है  ये सभी कविताएं  जीवन को कई रूपों खोलती हैं   जहाँ मृत्यु   शैया में पड़ा व्यक्ति  है तो हत्यारों  की खौफनाक  गलियां हैं, शहर के पुराने रास्ते  हैं  ,जहर से मरी मछलियां  हैं  ,शापित कुलधरा है  तो प्यार  का पीला रंग है  यह सभी कविताएं  मानवीय  सरोकारों  से अवगत कराती हैं, स्मृतियों  से जुड़ी ये वस्तुएं  पूरी मानवीयता के साथ   कविता के लोक पक्ष को जीवटता और जीवन के संघर्ष को पूरी व्यापकता के साथ  पाठकों  के समक्ष  उपस्थित  होती हैं!  लक्ष्मीकांत   मुकुल  जैसे सजग कवि जो कविता के जीवन चुनने के लिए  कोई लोभ नहीं  पालते  बल्कि  कविता की लोक हिस्सेदारी  में अपनी अनगढ़ स्वभाविक  नैसर्गिक  कविता प्रतिभा से  कविता  लिखते हैं    कवि मुकुल की  सभी कविताएं  अपने समाज, अपने जनपद से उपजी हैं  इसलिए कवि लक्ष्मीकांत  मुकुल सब ओर  खूब पढ़ें जाते हैं  ..... 


 विजय सिंह  
 बंद टाकीज  के सामने 
 जगदलपुर  ( बस्तर)  
छत्तीसगढ़

बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन , पटना द्वारा लक्ष्मीकांत मुकुल को हिंदी सेवी सम्मान

लक्ष्मीकांत मुकुल की दो लंबी कविताओं पर समीक्षात्मक टिप्पणी ___ सतीश कुमार सिंह

खेतों की पगडंडियों से होकर गुजरती किसान कवि की लंबी कविता
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                सतीश कुमार सिंह

छायावाद और छायावादोत्तर काल से लेकर समकालीन हिंदी कविता तक लंबी कविताओं का एक दौर चलता रहा है और आज भी नये पुराने सभी रचनाकार समय समय पर इसमें हाथ आजमाते रहे हैं । इसमें कोई दो राय नहीं कि इन लंबी कविताओं में कथ्य की नवीनता , भाषा और भाव संवेग की तारतम्यता को बनाए रखने में कवि को बहुत मशक्कत करनी पड़ती है । किसी एक विषय या संदर्भ पर केन्द्रित इन रचनाओं में विचार और संवेदना के इतने तल उभरते हैं कि उसके सभी पक्षों पर एक सम्यक दृष्टि जाती है तथा बहुत कुछ नये परिप्रेक्ष्य भी सामने आते हैं  । यहाँ कवि अपने सूक्ष्म अवलोकन से ऐसे विंब और रूपक रचता है कि सभी परिदृश्य परिचित जान पड़ते हैं लेकिन अगर वह इसमें चूक गया तो कविता का पूरा ढाँचा ही लुढ़क जाता है । कविता में इस तरह के ख़तरों को उठाना सचमुच हिम्मत का काम होता है । कवि पर इस बात का भी रहता है कि वह पाठक को इस बीच अपने से जोड़कर रखे और उसकी आगे की जिज्ञासा तथा रोचकता पाठ के दौरान बनी रहे । निराला से लेकर मुक्तिबोध तक लंबी कविताओं के सृजन की एक श्रृंखला है । प्रख्यात आलोचक नंदकिशोर नवल की आलोचना पुस्तक " निराला और मुक्तिबोध- चार लंबी कविताएं " में उन्होंने निराला की दो लंबी कविता " सरोज स्मृति और " राम की शक्तिपूजा " तथा मुक्तिबोध की दो कविता " अंधेरे मे " तथा ब्रम्हराक्षस " को केंद्र में रखकर विस्तार से चर्चा की है । इसी तरह से यदि हम धर्मवीर भारती के " कनुप्रिया " को लें तो वह प्रेम का ऐसा अनूठा और रसमय आख्यान है कि एक बार पढ़ना शुरू करेंगे तो अंत तक पहुँचे बिना मन नहीं मानता । इसको एक नहीं कई कई बार पढ़ने पर भी उसका आस्वाद कम नहीं होता साथ ही नये अर्थ संदर्भ भी विषयवस्तु के साथ उभरकर सामने आते हैं । यह भी एक लंबी कविता है जिसे नये दृश्यबंध के साथ भारती जी ने सर्गों में विभाजित किया है । शायद इसके पीछे उनकी यही मंशा रही है कि प्रेम नित नया है जिसकी अनुभूतियों में कुछ न कुछ निरंतरता के प्रवाह में  जुड़ता ही चला जाता है । प्रत्येक सर्ग में पाठक इस नवीनता को " कनुप्रिया " में कुछ कुछ अंतराल में पढ़ते हुए महसूस कर सकते हैं । इस सबसे इतर लंबी कविता का सृजन जनपदीय रचनाओं में भी इन दिनों दिखाई पड़ रहा है । गाँव, जवार , मुहल्ले, टोले से होकर खेत , खलिहान तक इसकी पहुँच बनाने में कुछ रचनाकार लगे हुए हैं और वे सफल होते भी नज़र आ रहे हैं । 
 किसान कवि लक्ष्मीकान्त मुकुल की हिंदी और भोजपुरी में रचित लंबी कविता " घिस रहा है धान का कटोरा " किसानी जीवन और लोक समाज की संवेदनापरक अंतर्धारा को अतीत और वर्तमान के साथ चित्रित करने में समर्थ है । कवि ने अपनी ग्राम्य जीवन की अनुभूतियों को 17 भागों में विभाजित कर छोटी छोटी रचनाओं में एक ही कथ्य को अलग-अलग रूपों में अपनी सघन वैचारिकता के साथ रखने का प्रयास किया है । वे प्रश्नाकुलता के साथ कृषि संस्कृति के भिन्न-भिन्न स्वरूपों की व्याख्या करते हुए खेती - किसानी की सामयिक चुनौतियों को भी रेखांकित करते हुए इन कविताओं में चलते हैं जहाँ बदलते मूल्यों के साथ गाँवों में हो रहे परिवर्तनों को भी इसी भावपक्ष में समोने का यत्न करते हुए संस्कृतिकरण के साथ वर्ग संरचना का भी एक खाका प्रस्तुत करते वे नजर आते हैं  । उनकी इस लंबी कविता की पहली रचना धरती की उर्वरता और हरियाली का ऐसा दृश्य उपस्थित करता है कि पाठक को खेतों की मेढ़ पर खड़े होने का अहसास होने लगता है -

जिधर देखो उधर / फैले हैं धान के खेत /
सद्य प्रसूता की तरह/ गोभा की कोख से निकलकर/ चौराते कच्चे , अधपके बालियों के गुच्छे/ डुलते हुए नहरपार से आती / किनारों से बहती / पूर्वी पश्चिमी हवाओं के झोंकों से / जैसे लहरा रहा हो विशाल समुद्र 

इस दृश्य से एक परिचय कराते हुए कवि अपनी लंबी कविता की बुनियाद रखता है । वह खेती के सांस्कृतिक इतिहासबोध को भी अपनी इस रचना यात्रा में लोकविश्रुत कथाओं में तलाशता है । उसके लिए कृषि के संबंध में जो इतिहास पुस्तकों में दर्ज है वह उतना मायने नहीं रखता जितना कि दादी - नानी की कहानियों में वह किवंतियों के साथ सुरक्षित है । इसके बहाने लक्ष्मीकान्त मुकुल पीछे की ओर मुड़ते हैं और अतीतजीविता से बंधे हुए अपने वर्तमान से भी दो - चार होते हैं । इसमें वे सगुन पाखी को भी शामिल करते हुए काव्य के समष्टि गत चेतना को भी बचाए रखना चाहते हैं जिसमें किसान के साथ पशु पक्षी और कीट पतंग भी उनके सहचर हैं - 

देख देख हुलस रहा किसान का सगुना / इतिहास की लंबी परंपरा का वाहक / सनातन काल से करते हुए खेती / दादा लकड़दादा के जमाने से ही नहीं/ उसके पूर्व से जब पहली बार हुए थे धान परती में  / सुनता आया है वह दादी - नानी से कहानियाँ/ जब धान के कंसो से उपजते थे चावल
बदला जमाना / बदलते गये लोग बाग / स्वभाव , चरित्र, चाल ढाल / वे खेतों के दाने में लटक रहे चावल के दाने को / कच्चा चबा जाते थे / या दूसरों के खेतों के चावल झाड़ देते लग्गी से / आखिरकार कुदरत ने खोज लिया / अन्न को बचाने का उपाय / चावल के ऊपर लगा दी खोल नोकदार

कवि यहाँ पर चावल के ऊपर चढ़े खोल को सामने रखकर अन्न की सुरक्षा के लिए प्रकृति की मेहरबानी मानता है और इसे लोक में व्याप्त कथानक से संयुक्त करता है । प्रत्येक अंचल का अपना लोक विश्वास होता है । किसान कवि इस पर प्रतिवाद नहीं करता और न ही इस बात की तह तक जाता है । वह सीधे सीधे इसे स्वीकार लेता है । वह इस लोकधारा में बहते हुए लोकगीत , पुराने कृषि उपकरणों  बदलते मूल्य और रीति रिवाज की भी पड़ताल पीछे मुड़कर करता है । 

बदलता गया जमाना / बदलते गये समाज के रिवाज / खेती के औजार , बैलों की जोड़ी / हल , जुआठ , हेंगा , ढेंका , जांत , ओखल - मूसल / सिमटते गये शुभ मुहूर्त में अक्षत छींटे का रिवाज / विवाह के समय गीतों के बोल -" एने के धनवा ओने के धनवा एके में मिलाव रे "  

हिंदी के वरिष्ठ आलोचक डाॅ. रमाकांत शर्मा अपनी पुस्तक " आलोचना की लोकधर्मी दृष्टि " में कहते हैं कि - " क्रियाशील जीवन के ऐंद्रिक बिंब विचार - खनिज और जीवन द्रव ही कविता का प्राण है । एक मुकम्मिल कविता का साथ श्रव्य और दृश्य होती है । कविता का स्वभाव गहन शब्द साधना और कला संयम की मांग करता है । महत्वपूर्ण कवि वह होता है जो साँचे बनाता है , बार बार उन्हें तोड़ता है और नये साँचे की तलाश में निकल पड़ता है । अच्छी कविता साधारण होते हुए भी असाधारण होती है । " 
 डाॅ. रमाकांत शर्मा जी के कथन के इस आलोक में अगर देखें तो कविता को लेकर वायवीय बातों का पहाड़ खड़ा करने वाले लोगों से हटकर साधारण विषयों पर कवि के जीवनानुभव से जो कविता पककर आती है उसका ज्यादा मूल्य है । उन्होंने कविता के संबंध में जिस दृश्य और श्रव्य की बात कही है मुकुल इन शर्तों को अपनी इस रचना में पूरी करते जान पड़ते हैं  -

मानसून की पहली बूँदों में/ भीग रहा है गाँव/ भीग रहे हैं जुते - अधजुते खेत / भीग रही समीप बहती नदी / भीग रहा है नहर किनारे खड़ा पीपल वृक्ष / हवा के झोंके से हिलती भीग रही है बेहया , हंइस की पत्तियां/ भीग रही हैं चरती बकरियां/ भीग रहा है खंडहरों से घिरा मेरा घर

यहाँ बूंदों की ध्वनि के साथ जो दृश्य उपस्थित है वह हमें मानसून के बादलों के साथ गाँव की सैर करा लाता है । ध्वनि और दृश्य जैसे एकाकार हो गये हों इस तरह का भाव यह कविता जगा जाती है । यह कविता जब आगे बढ़ती है तो और भी ढेर सारे दृश्यों को अपने में समेट लेती है जिसमें प्रेम की कुछ अनगढ़ और लहरदार स्थितियां भी ध्यान खींचती हैं और कवि के भीतर की सरसता का अनुभव कराती हैं । 
 इस लंबी कविता की टुकड़ियों में किसान से मजदूर बनते जा रहे छोटे किसानों के दुख- दर्द और पलायन पर भी कवि की दृष्टि जाती है और वे आज के समय की जायज चिंता को बड़ी साफगोई के साथ रखते हैं  -

आरा - दिनारा के दुलरूए / छोड़ते जा रहे हैं धान के इस देश को / जैसे धनखर खेती की पहचान जताने वाले / गायब होते गये पुआलों की गांज / वे फैलते गये / गुजरात की कपड़ा मिलों/ मुम्बई की फैक्ट्रियों, आसाम के चाय बागानों/ गिरमिटिया बन माॅरीशस , फिजी , सूरीनाम और न जाने कहाँ कहाँ/सपनों की मृगतृष्णा की खोज में 

लक्ष्मीकांत मुकुल ने धान की कुछ देसज किस्मों की उपज को लेकर उसके कहीं भी उग आने और गरीब गुरबा लोगों के लिए जीने का साधन बन जाने को जिस तरह अपनी इस लंबी कविता में पिरोया है वह ध्यान देने योग्य है । कुछ धान के पौधे यहाँ वहाँ बिखरे हुए होते हैं और उनकी पकी हुई बालियों को अपनी टोकनियों में कामगार महिलाएं चुन लेती हैं और उससे उनके परिवार का पेट पलता है । इन श्रमशील महिलाओं के इस परिश्रम से चुने गये दानों पर भी शोषक वर्ग की कुदृष्टि रहती है जिसे अच्छी तरह से इस रचना में सहेजने का यत्न किया है कवि ने -

कहीं भी हो सकता है धान का कटोरा / समतल मैदानों में , पहाड़ की घाटियों - तलहटियों में/ राहसबदल चुकी नदियों की छाड़न में/ देखा था न तुम्हें सुरहा ताल में/ छिटुआ बोए धनकटनी को / लहरों के ऊपर धान - पौधों के मथेला सूर्य की तेज किरणों में चमकते हुए / सुगापंखी , सिंगारा , करियवा , टुंडहिया , दुललाची जैसी किस्में पसरी थीं अथाह जलराशि में/ डोंगी पर चढ़कर मलूलाह स्त्रियाँ झटका देकर कैसे काटती थीं धान की बालें / जिसे देखकर जलती आँखों से घूरते थे वहाँ के ठेकेदार , दलाल , पटवारी / नोच लेने को उनके श्रम के सारे मोल
 
 कवि का चूँकि खेती किसानी से सीधा वास्ता है इसलिए वह धान की रोपाई से लेकर निराई - गुड़ाई और उसके पकने , खलिहान तक आने मिंजाने और बाज़ार तक आने की पूरी यात्रा अपने चिर-परिचित लोक शैली के गीतों के साथ कराते हैं । यहाँ अलग अलग धान की पुरानी , नई किस्मों तथा देसज औजारों की चर्चा के अलावा आधुनिक कृषि यंत्रों की तकनीक , धरती की उर्वरता , अतिवृष्टि , किसान की दुरूहता , शोषण के महाजनी तंत्र का इतनी सहजता से क्रमबद्धता है कि लगता है कवि अपनी मिट्टी से गहरा लगाव रखते हुए उस पीड़ा को जी रहा है जो सदियों से किसान की नियति बनी हुई है । हिंदी ही नहीं वे अपनी भोजपुरी भाषा में भी अपनों तक अपनी बात पहुँचाने के लिए इसी तर्ज पर " भरकी में चहुपल भईसा " लंबी कविता रचते हैं । अपनी बोली - बानी में वे वही दृश्य उपस्थित करते हैं जिससे दो चार उनके अंचल का कृषक समुदाय होता रहा है -

आवेले ऊ भरकी से / कीच पांक में गोड़ लसराइल / आर- डंडार प धावत चउहदी / हाथ म पोरसा भ के गोजी थमले / इहे पहचान रहल बा उनकर सदियन से / तलफत घाम में चियार लेखा फाट जाला / उनका खेतन के छाती / पनचहल होते हर में नधाइल बैलहाटा के / बर्घन के भंसे लागेला ठेहुन / ट्रेक्टर के पहिया फँस के / लेवाड़ मारेले हीक भ / करईल के चिमर माटी चमोरे देले / उखमंजल के हाँक - दाब 

मैंने इस भोजपुरी में लिखी गई रचना की एक बानगी भर पेश की है । आगे इसमें ढेर सारे किसानी जीवन के संदर्भ आपस में गुँथे हुए चले आते हैं । कवि लक्ष्मीकान्त मुकुल अपने काव्य सरोकारों के साथ अपने परिवेश को बुनने में इन कविताओं में सफल हुए हैं ऐसा मेरा मानना है ।
  बिहार के जिला रोहतास के एक गाँव मैरा में रहकर वे सृजनरत हैं और कविता के अलावा , ग्रामीण इतिहास , आदिवासी जीवन , स्त्री संघर्ष, युवा लेखन , दलित साहित्य विषयक लेख लिखकर वे हस्तक्षेप भी करते रहते हैं । हिंदी, भोजपुरी और अंग्रेजी में समान अधिकार रखने वाले विधि स्नातक इस युवा कवि ने अपने गाँव में रहकर कृषक जीवन को चुना और प्रगतिशील मूल्यों से भी उनका नाता है । संप्रति वे बक्सर जिला के प्रगतिशील लेखक संघ के सचिव हैं और निरंतर कुछ नया करते रहते हैं । उनसे लोकधर्मी जनपदीय कविता संसार की बहुत उम्मीदें हैं । मैं यह समझता हूँ कि लंबी कविता की बड़ी भूमिका नहीं होनी चाहिए इसलिए कुछ महत्वपूर्ण रचनाओं का ही मैंने जिक्र किया है । आगे कविता के पाठक तय करेंगे । यह उनका अपना अधिकार है । कवि मुकुल की काव्य दक्षता को ध्यान में रखते हुए मैं यही कहूंगा कि उनकी लिखी हुई इस लंबी कविता का हिंदी और भोजपुरी में यथोचित आदर होगा ऐसा मेरा विश्वास है । युवा कवि को मेरी हार्दिक शुभकामनाएं 

पुराना काॅलेज के पीछे , जांजगीर 
जिला - जांजगीर-चांपा ( छत्तीसगढ़  ) 495668
मोबाइल नंबर- 94252 31110

लक्ष्मीकांत मुकुल के प्रथम कविता संकलन "लाल चोंच वाले पंछी" पर आधारित कुमार नयन, सुरेश कांटक, संतोष पटेल और जमुना बीनी के समीक्षात्मक मूल्यांकन

लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताओं में मौन प्रतिरोध है – कुमार नयन आधुनिकता की अंधी दौड़ में अपनी मिट्टी, भाषा, बोली, त्वरा, अस्मिता, ग...