Saturday 24 April 2021

लक्ष्मीकांत मुकुल की भोजपुरी कविताओं पर डॉ. बलभद्र और सुनील कुमार पाठक की बेबाक टिप्पणी




समय के चउथाई का पीठ पर
_ डॉ. बलभद्र

1990 के बाद हिंदी - कविता में लोक - जीवन नया रंग - ढंग में अभिव्यक्ति पावक  लउकता । ऊ नयापन विषय - वस्तु के लेके जतना देखल गइल, ओसे कतहीं जादे कहन के तौर- तरीका बिंब , भाषा आदि के लेके रहल । ओह काव्य परिदृश्य में दू गो कवि   भोजपुर , भोजपुरी माटी आ भाषा के रहलें। ऊ दूनों कवि हवें बद्रीनारायण आ निलय उपाध्याय । एह दूनाें जना में समानता एह बात के लेके रहल कि ई दूनो जना लोक - जीवन के ओकरा विश्वसनीयता में रचे - सिरजे के  कोशिश कइलें । गांव , खेत,  कथा - कहाउत, मुहावरा जवन लोक ही जीवन में प्रचलित रहे  -- ओकरा के  लेके कविता रचल लोग। एह में निलय उपाध्याय अइसन  रहलें , जे  अपना शुरुआती दौर में कुछ कविता भोजपुरियो में लिखलें आ भोजपुरी के कवि के रूप में मान पवलें । अशोक द्विवेदी जब कबो भोजपुरी -  कविता पर लेख वगैरह लिखेलें , त उनकर चर्चा जरूर करेलें। बाकि, ऊ शुरुआती दू - तीन गो के भोजपुरी के कवितन के अलावे अउर कुछ ना लिखलेँ। ओही समय में भोजपुर के जमीन पर कुछ अउर कवि उभरलें , जे निलय के प्रभाव से अपना के  अलग ना कर पवलें। ओही में के एगो कवि हवें लक्ष्मीकांत मुकुल। उनकर कुछ कविता हमारा भोजपुरियो में पढ़े के मिल जात रहे। एने कतने बरिस से उनकर कवनो हमरा पढ़े के ना मिलल । हँ, ई मालूम भइल कि उनकर एगो हिन्दी - कवितन के संग्रह छप के आइल बा, जवना के नांव ह ' लाल चोंच वाले पंछी '।

लक्ष्मीकांत हिंदी आ भोजपुरी दूनो के कवि हवें, बाकि भोजपुरी में बहुते कम कविता लिखले बाड़न ,  लिखलहूं जवन बाड़न , तवना   के   भोजपुरी में नइखन रहे देले । हिंदी में क के हिंदी के कविता बना देलेे बाड़न। एकरो एगो बड़हन कारन बा, जवना पर बात कइल जरूरी बा। बाकि एहिजा , हम ई कहल चाहब कि हिन्दी - संग्रह के शीर्षक - कविता ' लाल चोंच वाले पंछी '  ' समकालीन भोजपुरी साहित्य' के जनवरी -  जून 1999 में "लाल ठोर वाली चिरईं" शीर्षक से छपल बा एही में उनकर एगो अउर कविता बा ' सियरबझवा ' । प्रभाव चाहे जेकर होखे , ई दूनो कविता बढ़िया कविता बाड़ी सन आ कहे में कवनो संकोच नइखे कि अगर ऊ  आउर लिखत रहितें , त जरूर भोजपुरी - कविता में कुछ नया जोड़ पावतें । "सियरबझवा" में ऊ हाशिया पर खड़ा मानुस - समुदाय के जीवन के ताल - मातरा सिरजे के कोशिश कइले बाड़न। सियरबझवा, बेशक, सियार बझावेवाला समुदाय ह , बाकि ओकर सुर आ लय सियारन के सुर आ लय में घोराइल। शिकार आ शिकारी के दासा एके अस।अपना कुकुरन के संगे छउकत सियरबझवा सवाल बनि खड़ा   बाड़न स  मानव समुदाय के प्रगति आ लोकतंत्र के सोझा। " लाल ठोर वाली चिरईं " में कवि नया बिंब के जरिए लोकजीवन के संवेदनशील यथार्थ के उकेरले बा।

लक्ष्मीकांत के कुछ कविता ' पाती ' आ ' भोजपुरी वार्ता ' में भी छपल रहे। कवि से कहल जा सकेला कि फेरू से भोजपुरी में लिखे के तरफ बढ़े के चाहीं। कवि के पासे जीवन आ कविता के नीमन समझ बा। उदाहरण के तौर पर 
"सियरबझवा" के ई लाइन देखल जा सकेला _
" धउरता ओहनी के गोड़
समय के चउथाई का पीठ प
ऊ सियरबझवा हवें सन
शिकारी कुकुरन का साथ छंउकत
कवनो सवाल मतिन । "


_ हिंदी विभाग, गिरिडीह कॉलेज, गिरिडीह (झारखंड)

{ पटना से प्रकाशित भोजपुरी के साहित्यिक पत्रिका "परास" के अक्टूबर_ दिसंबर, 2015 की पृष्ठ संख्या 9-10 पर प्रकाशित।}


 इस आलेख का देवनागरी से कैथी लिपि में रूपांतरण
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𑂮𑂧𑂨 𑂍𑂵 𑂒𑂇𑂟𑂰𑂆 𑂍𑂰 𑂣𑂲𑂘 𑂣𑂩
_ 𑂙𑂰. 𑂥𑂪𑂦𑂠𑂹𑂩

1990 𑂍𑂵 𑂥𑂰𑂠 𑂯𑂱𑂁𑂠𑂲 - 𑂍𑂫𑂱𑂞𑂰 𑂧𑂵𑂁 𑂪𑂷𑂍 - 𑂔𑂲𑂫𑂢 𑂢𑂨𑂰 𑂩𑂁𑂏 - 𑂛𑂁𑂏 𑂧𑂵𑂁 𑂃𑂦𑂱𑂫𑂹𑂨𑂍𑂹𑂞𑂱 𑂣𑂰𑂫𑂍 𑂪𑂇𑂍𑂞𑂰 𑃀 𑂈 𑂢𑂨𑂰𑂣𑂢 𑂫𑂱𑂭𑂨 - 𑂫𑂮𑂹𑂞𑂳 𑂍𑂵 𑂪𑂵𑂍𑂵 𑂔𑂞𑂢𑂰 𑂠𑂵𑂎𑂪 𑂏𑂅𑂪, 𑂋𑂮𑂵 𑂍𑂞𑂯𑂲𑂁 𑂔𑂰𑂠𑂵 𑂍𑂯𑂢 𑂍𑂵 𑂞𑂸𑂩- 𑂞𑂩𑂲𑂍𑂰 𑂥𑂱𑂁𑂥 , 𑂦𑂰𑂭𑂰 𑂄𑂠𑂱 𑂍𑂵 𑂪𑂵𑂍𑂵 𑂩𑂯𑂪 𑃀 𑂋𑂯 𑂍𑂰𑂫𑂹𑂨 𑂣𑂩𑂱𑂠𑂹𑂩𑂱𑂬𑂹𑂨 𑂧𑂵𑂁 𑂠𑂴 𑂏𑂷 𑂍𑂫𑂱 𑂦𑂷𑂔𑂣𑂳𑂩 , 𑂦𑂷𑂔𑂣𑂳𑂩𑂲 𑂧𑂰𑂗𑂲 𑂄 𑂦𑂰𑂭𑂰 𑂍𑂵 𑂩𑂯𑂪𑂵𑂁𑃀 𑂈 𑂠𑂴𑂢𑂷𑂁 𑂍𑂫𑂱 𑂯𑂫𑂵𑂁 𑂥𑂠𑂹𑂩𑂲𑂢𑂰𑂩𑂰𑂨𑂝 𑂄 𑂢𑂱𑂪𑂨 𑂇𑂣𑂰𑂡𑂹𑂨𑂰𑂨 𑃀 𑂉𑂯 𑂠𑂴𑂢𑂰𑂵𑂁 𑂔𑂢𑂰 𑂧𑂵𑂁 𑂮𑂧𑂰𑂢𑂞𑂰 𑂉𑂯 𑂥𑂰𑂞 𑂍𑂵 𑂪𑂵𑂍𑂵 𑂩𑂯𑂪 𑂍𑂱 𑂆 𑂠𑂴𑂢𑂷 𑂔𑂢𑂰 𑂪𑂷𑂍 - 𑂔𑂲𑂫𑂢 𑂍𑂵 𑂋𑂍𑂩𑂰 𑂫𑂱𑂬𑂹𑂫𑂮𑂢𑂲𑂨𑂞𑂰 𑂧𑂵𑂁 𑂩𑂒𑂵 - 𑂮𑂱𑂩𑂔𑂵 𑂍𑂵 𑂍𑂷𑂬𑂱𑂬 𑂍𑂅𑂪𑂵𑂁 𑃀 𑂏𑂰𑂁𑂫 , 𑂎𑂵𑂞, 𑂍𑂟𑂰 - 𑂍𑂯𑂰𑂇𑂞, 𑂧𑂳𑂯𑂰𑂫𑂩𑂰 𑂔𑂫𑂢 𑂪𑂷𑂍 𑂯𑂲 𑂔𑂲𑂫𑂢 𑂧𑂵𑂁 𑂣𑂹𑂩𑂒𑂪𑂱𑂞 𑂩𑂯𑂵 -- 𑂋𑂍𑂩𑂰 𑂍𑂵 𑂪𑂵𑂍𑂵 𑂍𑂫𑂱𑂞𑂰 𑂩𑂒𑂪 𑂪𑂷𑂏𑃀 𑂉𑂯 𑂧𑂵𑂁 𑂢𑂱𑂪𑂨 𑂇𑂣𑂰𑂡𑂹𑂨𑂰𑂨 𑂃𑂅𑂮𑂢 𑂩𑂯𑂪𑂵𑂁 , 𑂔𑂵 𑂃𑂣𑂢𑂰 𑂬𑂳𑂩𑂳𑂄𑂞𑂲 𑂠𑂸𑂩 𑂧𑂵𑂁 𑂍𑂳𑂓 𑂍𑂫𑂱𑂞𑂰 𑂦𑂷𑂔𑂣𑂳𑂩𑂱𑂨𑂷 𑂧𑂵𑂁 𑂪𑂱𑂎𑂪𑂵𑂁 𑂄 𑂦𑂷𑂔𑂣𑂳𑂩𑂲 𑂍𑂵 𑂍𑂫𑂱 𑂍𑂵 𑂩𑂴𑂣 𑂧𑂵𑂁 𑂧𑂰𑂢 𑂣𑂫𑂪𑂵𑂁 𑃀 𑂃𑂬𑂷𑂍 𑂠𑂹𑂫𑂱𑂫𑂵𑂠𑂲 𑂔𑂥 𑂍𑂥𑂷 𑂦𑂷𑂔𑂣𑂳𑂩𑂲 - 𑂍𑂫𑂱𑂞𑂰 𑂣𑂩 𑂪𑂵𑂎 𑂫𑂏𑂶𑂩𑂯 𑂪𑂱𑂎𑂵𑂪𑂵𑂁 , 𑂞 𑂇𑂢𑂍𑂩 𑂒𑂩𑂹𑂒𑂰 𑂔𑂩𑂴𑂩 𑂍𑂩𑂵𑂪𑂵𑂁𑃀 𑂥𑂰𑂍𑂱, 𑂈 𑂬𑂳𑂩𑂳𑂄𑂞𑂲 𑂠𑂴 - 𑂞𑂲𑂢 𑂏𑂷 𑂍𑂵 𑂦𑂷𑂔𑂣𑂳𑂩𑂲 𑂍𑂵 𑂍𑂫𑂱𑂞𑂢 𑂍𑂵 𑂃𑂪𑂰𑂫𑂵 𑂃𑂇𑂩 𑂍𑂳𑂓 𑂢𑂰 𑂪𑂱𑂎𑂪𑂵𑂀𑃀 𑂋𑂯𑂲 𑂮𑂧𑂨 𑂧𑂵𑂁 𑂦𑂷𑂔𑂣𑂳𑂩 𑂍𑂵 𑂔𑂧𑂲𑂢 𑂣𑂩 𑂍𑂳𑂓 𑂃𑂇𑂩 𑂍𑂫𑂱 𑂇𑂦𑂩𑂪𑂵𑂁 , 𑂔𑂵 𑂢𑂱𑂪𑂨 𑂍𑂵 𑂣𑂹𑂩𑂦𑂰𑂫 𑂮𑂵 𑂃𑂣𑂢𑂰 𑂍𑂵 𑂃𑂪𑂏 𑂢𑂰 𑂍𑂩 𑂣𑂫𑂪𑂵𑂁𑃀 𑂋𑂯𑂲 𑂧𑂵𑂁 𑂍𑂵 𑂉𑂏𑂷 𑂍𑂫𑂱 𑂯𑂫𑂵𑂁 𑂪𑂍𑂹𑂭𑂹𑂧𑂲𑂍𑂰𑂁𑂞 𑂧𑂳𑂍𑂳𑂪𑃀 𑂇𑂢𑂍𑂩 𑂍𑂳𑂓 𑂍𑂫𑂱𑂞𑂰 𑂯𑂧𑂰𑂩𑂰 𑂦𑂷𑂔𑂣𑂳𑂩𑂱𑂨𑂷 𑂧𑂵𑂁 𑂣𑂜𑂵 𑂍𑂵 𑂧𑂱𑂪 𑂔𑂰𑂞 𑂩𑂯𑂵𑃀 𑂉𑂢𑂵 𑂍𑂞𑂢𑂵 𑂥𑂩𑂱𑂮 𑂮𑂵 𑂇𑂢𑂍𑂩 𑂍𑂫𑂢𑂷 𑂯𑂧𑂩𑂰 𑂣𑂜𑂵 𑂍𑂵 𑂢𑂰 𑂧𑂱𑂪𑂪 𑃀 𑂯𑂀, 𑂆 𑂧𑂰𑂪𑂴𑂧 𑂦𑂅𑂪 𑂍𑂱 𑂇𑂢𑂍𑂩 𑂉𑂏𑂷 𑂯𑂱𑂢𑂹𑂠𑂲 - 𑂍𑂫𑂱𑂞𑂢 𑂍𑂵 𑂮𑂁𑂏𑂹𑂩𑂯 𑂓𑂣 𑂍𑂵 𑂄𑂅𑂪 𑂥𑂰, 𑂔𑂫𑂢𑂰 𑂍𑂵 𑂢𑂰𑂁𑂫 𑂯 ' 𑂪𑂰𑂪 𑂒𑂷𑂁𑂒 𑂫𑂰𑂪𑂵 𑂣𑂁𑂓𑂲 '𑃀

𑂪𑂍𑂹𑂭𑂹𑂧𑂲𑂍𑂰𑂁𑂞 𑂯𑂱𑂁𑂠𑂲 𑂄 𑂦𑂷𑂔𑂣𑂳𑂩𑂲 𑂠𑂴𑂢𑂷 𑂍𑂵 𑂍𑂫𑂱 𑂯𑂫𑂵𑂁, 𑂥𑂰𑂍𑂱 𑂦𑂷𑂔𑂣𑂳𑂩𑂲 𑂧𑂵𑂁 𑂥𑂯𑂳𑂞𑂵 𑂍𑂧 𑂍𑂫𑂱𑂞𑂰 𑂪𑂱𑂎𑂪𑂵 𑂥𑂰𑂚𑂢 , 𑂪𑂱𑂎𑂪𑂯𑂴𑂁 𑂔𑂫𑂢 𑂥𑂰𑂚𑂢 , 𑂞𑂫𑂢𑂰 𑂍𑂵 𑂦𑂷𑂔𑂣𑂳𑂩𑂲 𑂧𑂵𑂁 𑂢𑂅𑂎𑂢 𑂩𑂯𑂵 𑂠𑂵𑂪𑂵 𑃀 𑂯𑂱𑂁𑂠𑂲 𑂧𑂵𑂁 𑂍 𑂍𑂵 𑂯𑂱𑂁𑂠𑂲 𑂍𑂵 𑂍𑂫𑂱𑂞𑂰 𑂥𑂢𑂰 𑂠𑂵𑂪𑂵𑂵 𑂥𑂰𑂚𑂢𑃀 𑂉𑂍𑂩𑂷 𑂉𑂏𑂷 𑂥𑂚𑂯𑂢 𑂍𑂰𑂩𑂢 𑂥𑂰, 𑂔𑂫𑂢𑂰 𑂣𑂩 𑂥𑂰𑂞 𑂍𑂅𑂪 𑂔𑂩𑂴𑂩𑂲 𑂥𑂰𑃀 𑂥𑂰𑂍𑂱 𑂉𑂯𑂱𑂔𑂰 , 𑂯𑂧 𑂆 𑂍𑂯𑂪 𑂒𑂰𑂯𑂥 𑂍𑂱 𑂯𑂱𑂢𑂹𑂠𑂲 - 𑂮𑂁𑂏𑂹𑂩𑂯 𑂍𑂵 𑂬𑂲𑂩𑂹𑂭𑂍 - 𑂍𑂫𑂱𑂞𑂰 ' 𑂪𑂰𑂪 𑂒𑂷𑂁𑂒 𑂫𑂰𑂪𑂵 𑂣𑂁𑂓𑂲 ' ' 𑂮𑂧𑂍𑂰𑂪𑂲𑂢 𑂦𑂷𑂔𑂣𑂳𑂩𑂲 𑂮𑂰𑂯𑂱𑂞𑂹𑂨' 𑂍𑂵 𑂔𑂢𑂫𑂩𑂲 - 𑂔𑂴𑂢 1999 𑂧𑂵𑂁 "𑂪𑂰𑂪 𑂘𑂷𑂩 𑂫𑂰𑂪𑂲 𑂒𑂱𑂩𑂆𑂁" 𑂬𑂲𑂩𑂹𑂭𑂍 𑂮𑂵 𑂓𑂣𑂪 𑂥𑂰 𑂉𑂯𑂲 𑂧𑂵𑂁 𑂇𑂢𑂍𑂩 𑂉𑂏𑂷 𑂃𑂇𑂩 𑂍𑂫𑂱𑂞𑂰 𑂥𑂰 ' 𑂮𑂱𑂨𑂩𑂥𑂕𑂫𑂰 ' 𑃀 𑂣𑂹𑂩𑂦𑂰𑂫 𑂒𑂰𑂯𑂵 𑂔𑂵𑂍𑂩 𑂯𑂷𑂎𑂵 , 𑂆 𑂠𑂴𑂢𑂷 𑂍𑂫𑂱𑂞𑂰 𑂥𑂜𑂱𑂨𑂰 𑂍𑂫𑂱𑂞𑂰 𑂥𑂰𑂚𑂲 𑂮𑂢 𑂄 𑂍𑂯𑂵 𑂧𑂵𑂁 𑂍𑂫𑂢𑂷 𑂮𑂁𑂍𑂷𑂒 𑂢𑂅𑂎𑂵 𑂍𑂱 𑂃𑂏𑂩 𑂈 𑂄𑂇𑂩 𑂪𑂱𑂎𑂞 𑂩𑂯𑂱𑂞𑂵𑂁 , 𑂞 𑂔𑂩𑂴𑂩 𑂦𑂷𑂔𑂣𑂳𑂩𑂲 - 𑂍𑂫𑂱𑂞𑂰 𑂧𑂵𑂁 𑂍𑂳𑂓 𑂢𑂨𑂰 𑂔𑂷𑂚 𑂣𑂰𑂫𑂞𑂵𑂁 𑃀 "𑂮𑂱𑂨𑂩𑂥𑂕𑂫𑂰" 𑂧𑂵𑂁 𑂈 𑂯𑂰𑂬𑂱𑂨𑂰 𑂣𑂩 𑂎𑂚𑂰 𑂧𑂰𑂢𑂳𑂮 - 𑂮𑂧𑂳𑂠𑂰𑂨 𑂍𑂵 𑂔𑂲𑂫𑂢 𑂍𑂵 𑂞𑂰𑂪 - 𑂧𑂰𑂞𑂩𑂰 𑂮𑂱𑂩𑂔𑂵 𑂍𑂵 𑂍𑂷𑂬𑂱𑂬 𑂍𑂅𑂪𑂵 𑂥𑂰𑂚𑂢𑃀 𑂮𑂱𑂨𑂩𑂥𑂕𑂫𑂰, 𑂥𑂵𑂬𑂍, 𑂮𑂱𑂨𑂰𑂩 𑂥𑂕𑂰𑂫𑂵𑂫𑂰𑂪𑂰 𑂮𑂧𑂳𑂠𑂰𑂨 𑂯 , 𑂥𑂰𑂍𑂱 𑂋𑂍𑂩 𑂮𑂳𑂩 𑂄 𑂪𑂨 𑂮𑂱𑂨𑂰𑂩𑂢 𑂍𑂵 𑂮𑂳𑂩 𑂄 𑂪𑂨 𑂧𑂵𑂁 𑂐𑂷𑂩𑂰𑂅𑂪𑃀 𑂬𑂱𑂍𑂰𑂩 𑂄 𑂬𑂱𑂍𑂰𑂩𑂲 𑂍𑂵 𑂠𑂰𑂮𑂰 𑂉𑂍𑂵 𑂃𑂮𑃀𑂃𑂣𑂢𑂰 𑂍𑂳𑂍𑂳𑂩𑂢 𑂍𑂵 𑂮𑂁𑂏𑂵 𑂓𑂇𑂍𑂞 𑂮𑂱𑂨𑂩𑂥𑂕𑂫𑂰 𑂮𑂫𑂰𑂪 𑂥𑂢𑂱 𑂎𑂚𑂰 𑂥𑂰𑂚𑂢 𑂮 𑂧𑂰𑂢𑂫 𑂮𑂧𑂳𑂠𑂰𑂨 𑂍𑂵 𑂣𑂹𑂩𑂏𑂞𑂱 𑂄 𑂪𑂷𑂍𑂞𑂁𑂞𑂹𑂩 𑂍𑂵 𑂮𑂷𑂕𑂰𑃀 " 𑂪𑂰𑂪 𑂘𑂷𑂩 𑂫𑂰𑂪𑂲 𑂒𑂱𑂩𑂆𑂁 " 𑂧𑂵𑂁 𑂍𑂫𑂱 𑂢𑂨𑂰 𑂥𑂱𑂁𑂥 𑂍𑂵 𑂔𑂩𑂱𑂉 𑂪𑂷𑂍𑂔𑂲𑂫𑂢 𑂍𑂵 𑂮𑂁𑂫𑂵𑂠𑂢𑂬𑂲𑂪 𑂨𑂟𑂰𑂩𑂹𑂟 𑂍𑂵 𑂇𑂍𑂵𑂩𑂪𑂵 𑂥𑂰𑃀

𑂪𑂍𑂹𑂭𑂹𑂧𑂲𑂍𑂰𑂁𑂞 𑂍𑂵 𑂍𑂳𑂓 𑂍𑂫𑂱𑂞𑂰 ' 𑂣𑂰𑂞𑂲 ' 𑂄 ' 𑂦𑂷𑂔𑂣𑂳𑂩𑂲 𑂫𑂰𑂩𑂹𑂞𑂰 ' 𑂧𑂵𑂁 𑂦𑂲 𑂓𑂣𑂪 𑂩𑂯𑂵𑃀 𑂍𑂫𑂱 𑂮𑂵 𑂍𑂯𑂪 𑂔𑂰 𑂮𑂍𑂵𑂪𑂰 𑂍𑂱 𑂤𑂵𑂩𑂴 𑂮𑂵 𑂦𑂷𑂔𑂣𑂳𑂩𑂲 𑂧𑂵𑂁 𑂪𑂱𑂎𑂵 𑂍𑂵 𑂞𑂩𑂤 𑂥𑂜𑂵 𑂍𑂵 𑂒𑂰𑂯𑂲𑂁𑃀 𑂍𑂫𑂱 𑂍𑂵 𑂣𑂰𑂮𑂵 𑂔𑂲𑂫𑂢 𑂄 𑂍𑂫𑂱𑂞𑂰 𑂍𑂵 𑂢𑂲𑂧𑂢 𑂮𑂧𑂕 𑂥𑂰𑃀 𑂇𑂠𑂰𑂯𑂩𑂝 𑂍𑂵 𑂞𑂸𑂩 𑂣𑂩
"𑂮𑂱𑂨𑂩𑂥𑂕𑂫𑂰" 𑂍𑂵 𑂆 𑂪𑂰𑂅𑂢 𑂠𑂵𑂎𑂪 𑂔𑂰 𑂮𑂍𑂵𑂪𑂰 _
" 𑂡𑂇𑂩𑂞𑂰 𑂋𑂯𑂢𑂲 𑂍𑂵 𑂏𑂷𑂚
𑂮𑂧𑂨 𑂍𑂵 𑂒𑂇𑂟𑂰𑂆 𑂍𑂰 𑂣𑂲𑂘 𑂣
𑂈 𑂮𑂱𑂨𑂩𑂥𑂕𑂫𑂰 𑂯𑂫𑂵𑂁 𑂮𑂢
𑂬𑂱𑂍𑂰𑂩𑂲 𑂍𑂳𑂍𑂳𑂩𑂢 𑂍𑂰 𑂮𑂰𑂟 𑂓𑂁𑂇𑂍𑂞
𑂍𑂫𑂢𑂷 𑂮𑂫𑂰𑂪 𑂧𑂞𑂱𑂢 𑃀 "


_ 𑂯𑂱𑂁𑂠𑂲 𑂫𑂱𑂦𑂰𑂏, 𑂏𑂱𑂩𑂱𑂙𑂲𑂯 𑂍𑂰𑂪𑂵𑂔, 𑂏𑂱𑂩𑂱𑂙𑂲𑂯 (𑂕𑂰𑂩𑂎𑂁𑂙)

{ 𑂣𑂗𑂢𑂰 𑂮𑂵 𑂣𑂹𑂩𑂍𑂰𑂬𑂱𑂞 𑂦𑂷𑂔𑂣𑂳𑂩𑂲 𑂍𑂵 𑂮𑂰𑂯𑂱𑂞𑂹𑂨𑂱𑂍 𑂣𑂞𑂹𑂩𑂱𑂍𑂰 "𑂣𑂩𑂰𑂮" 𑂍𑂵 𑂃𑂍𑂹𑂗𑂴𑂥𑂩_ 𑂠𑂱𑂮𑂁𑂥𑂩, 2015 𑂍𑂲 𑂣𑂹𑂩𑂱𑂭𑂹𑂘 𑂮𑂁𑂎𑂹𑂨𑂰 9-10 𑂣𑂩 𑂣𑂹𑂩𑂍𑂰𑂬𑂱𑂞 }




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लक्ष्मीकांत मुकुल [बक्सर] भोजपुरी आ हिन्दी के एगो मजिगर कवि बाड़न। हिन्दी में उनकर एगो कविता संग्रह आइल बा-' घिस रहा है धान के कटोरा'।


उनकरा कवितन में समय आ समाज के सच्चाइयन के उकेरला के साथे-साथे किसान आ मजदूरन के हक के लड़ाई लड़े के भरपूर कूबत बा। उनकर भोजपुरी कविता "भरकी में चहुँपल भईंसा' के पंक्तियन के देखल जा सकत बा-


"आवेले ऊ भरकी से

कींच-पाँक के गोड़ लसराइल

आर-डँड़ार पर धावत चउहदी

हाथ में पोरसा भर के गोजी थमले

इहे पहचान बा उनकर सदियन से।


× × ×


जाँगर ठेठाई धरती से उपराज लेले सोना

माटी का आन

मेहनत के पेहान के मानेले जीये के मोल।" 


निठाह भोजपुरी शब्दनो के जरिये  गज्झिन संवेदना आ सोच से भरल कविता लिखल जा सकत बा, मुकुल जी के कविता एह बात के नमूना बाड़ी सन।           

_डॉ. सुनील कुमार पाठक


Friday 23 April 2021

हिमकर श्याम द्वारा लक्ष्मीकांत मुकुल के कविताओं की काव्यात्मक समीक्षा






           लाल चोंच वाले पंछी
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1.

पला गाँव की मिट्टी में, बोता खेतों में कविता
पैनी दृष्टि मुकुल की, शब्दों में कटार है
गाँव ,खेत खलिहान,धान ओसता किसान
देशज बिम्ब काव्य का, ध्वनित झंकार है
ग्रामीण व्यथा वेदना, शोषण-पीड़ा-दमन
बोधा वाला पीपल की, करुण पुकार है
लाल चोंच वाले पंछी, चेतना है मुक्तिगामी
प्रतीक मौलिक ताजा, भाषा धारदार है

2.

संकलित कविता में, सिमटी है समग्रता
ज्वलंत सरोकारों से, सार्थक संवाद है
खंडहरों में घर है, उदास नदी कोचानो
सूनी हैं पगडंडियाँ, फैला अवसाद है
रेत हुए खेत सभी, कौवे का है शोकगीत
धान का कटोरा आज, रुग्ण है, नाशाद है
लोक-रंग मुहावरा, गँवई जीवन-रस
बदले परिवेश का, सच्चा अनुवाद है

-हिमकर श्याम

Wednesday 21 April 2021

समीक्षक श्री जितेंद्र कुमार की दृष्टि में लक्ष्मीकांत मुकुल के हाइकु








कोरोना काल में  लक्ष्मीकांत मुकुल के हाइकु 
 _जितेंद्र कुमार

हाइकु जेन संतों की कविता है । बौद्ध धर्म ने भारत से चीन की यात्रा की और वहां से जापान की। बौद्ध धर्म की परंपरा में अध्यात्मिक ध्यान का बहुत महत्व है। चीनी भाषा में ध्यान को चान कहते हैं । चान जब चीन से जापान गया तो झेन हो गया । जापानी शब्द झेन जब अंग्रेजी साहित्य के संपर्क में आया तो जेन  (अंग्रेजी : Zen) हो गया । अंग्रेजी साम्राज्य से प्रभावित भारतीय मानस के लिए भी झेन जेन के रूप में स्वीकृत है। शब्द जब देश और काल की यात्रा करते हैं, तब अपना रूप बदल लेते हैं।
 हाइकु ध्यान और साधना की कविता है  जापान में । किसी क्षण विशेष की सघन अनुभूति की कलात्मक प्रस्तुति है हाइकु ।  सत्रहवीं सदी में हाइकु को काव्य विधा के रूप में जापानी संत मात्सुओ बासो  (1944 से 1994 ईस्वी) ने स्थापित किया था या, कहिए प्रतिष्ठित किया ।ध्यान और साधना के चरम छणों में विचार, चिंतन और उसके निष्कर्ष की सौंदर्यानुभूति और  भावानुभूति को संत कवि ने प्राकृतिक बिंबों में व्यंजित किया । उन्होंने प्रकृति को माध्यम बनाकर मनुष्य की भावनाओं को तीन सार्थक पंक्तियों में शब्द दिया। पहली पंक्ति 5 अक्षरों की, दूसरी 7 अक्षरों की और तीसरी 5 अक्षरों की। मात्र सत्रह शब्दों में एक सार्थक काव्यात्मक भावबोध।

 भारतीय भाषाओं में सर्वप्रथम नोबेल पुरस्कार प्राप्त कवि रविंद्र नाथ ठाकुर ने जापान यात्रा से लौटने के पश्चात सन 1919 में "जापानी यात्री" में हाइकु छंद की चर्चा की और बंगला में दो जापानी हाइकु का अनुवाद  किया । हिंदी साहित्य में हाइकु छंद की कविताओं का भरपूर स्वागत हुआ है।

युवा कवि लक्ष्मीकांत मुकुल की 30 हाइकु कविताएं मेरे सामने हैं। उनकी पहली कविता जैन दर्शन का अतिक्रमण करती है, वह किसी ध्यान या साधना की अनुभूति को व्यंजित नहीं करती। बल्कि मनुष्य के सामने वैश्विक चुनौती के रूप में फैले कोरोना संक्रमण को कविता के विषय के रूप में पेश करती है_

 पांव पसारा 
कोरोना का पिचास
 बंद जिंदगी !

 प्रकृति का प्रकोप मनुष्य को जरा भी संभलने का अवसर नहीं देता। चाहे वह अंडमान निकोबार में आई सुनामी तूफान की ऊंची ऊंची लहरे हों या लातूर का भूकंप। कोविड-19 के संक्रमण से दुनिया के लाखों मनुष्य और असमय काल कवलित हो गए । वे चौथी कविता में कोरोना को "पिषाच जैविक अस्त्र " के रूप में  व्यंजित करते हैं। कवि मेंं    तटस्थ    राजनीतिक चेतना है। उनकी ज्ञानात्मक संवेदना कोरोना संकट को जैविक  के  अस्त्र  के रूप में  परखती है। उनका अनुभव संसार ग्रामीण संवेदना सेे संपृक्त है। अपनी कविता के लिए हुए खेती किसानी और गांव देहात से  सटीक जीवंत ताजा बिंबों के माध्यम से व्यंजित करते हैं । कोरोना काल में कृषि कर्म बाधित है। जिन खेतों में कंकड़ पत्थर होते हैं, उसमें खेती करने में परेशानी होती है। एक हाइकु है _

उगा पहाड़
 खेतों के आंगन में 
पाथल टीला

 सांस्कृतिक परंपराओं को निभाना मुश्किल है। वसंत आया है ,लेकिन मन उदास है । युवा कवि लक्ष्मीकांत मुकुल
 कोरोना संकट को प्रेम के शिल्प में व्यंजित  करते हैं _




 लगा है जाब

सूंघने चूमने पे

 उदास भौरें



रूठी हो तुम

कोरोना के भय से

छू न सका हूं




लहराया है
तीसी - फूलों - सा तेरा
नीला आंचल 





कभी पहली कविता में 'पिचास ' (संस्कृत : पिशाच ) और एक अन्य कविता में 'जाब' शब्द का अनूठा प्रयोग करते हैं। भोजपुर की ग्रामांचलों में आम लोग भूत-प्रेत के लिए "पिचास" शब्द का प्रयोग करते हैं । इसी तरह दुधारू गाय भैंसों के नवजात बच्चों के मुंह में "जाब" लगाकर रखते हैं, जिससे कि वह मिट्टी नहीं चाट सके। पहले दौनी के समय बैलों के मुंह में जाब लगाया लगा दिया जाता था , जिससे कि वह अनावश्यक दाना खाने में संलग्न नहीं हो जाए । कवि उस ग्रामीण परिवेश से अपनी कविता का बिंब चुनते हैं। यह नकली नहीं है । बल्कि उनकी काव्य भाषा को संप्रेषणीय और जीवंत बनाते हैं।
 युवा कवि लक्ष्मीकांत मुकुल आशा और जिजीविषा के कवि हैं। कोरोना संकटकाल में भी कवि की दृष्टि खेतों धान /मकई की आतुर बालों से सिवान को ढका पाती है। शिरीष के पके फल बीते युग ( कोरोना - काल) की खंजड़ी बजा रहे हैं , यहां तक कि बकुल झुंड पंक्ति बद्ध होकर नभ उड़ चले हैं , कवि के सपने खरहे की तरह फुदकते हैं ; एक नया अरुणोदय हुआ है; समय का धुंधलका बीत चुका है पूर्व क्षितिज पर लाली एक नये विहान का संकेत करती है_



आतुर बालें
निकली हैं खेतों में
ढका सिवान ।




शिरीष-फल
बजा रहे खंजडी
बीते युग की ।



बीत चुका है
समय धुंधलका
उगी है लाली


युवा कवि हाइकुकार लक्ष्मीकांत मुकुल ने अपने लिए अपने अनुभव संसार से संतुलित काव्य भाषा सृजित कर ली है। वे अपने कहन के लिए ग्राम्य - जीवन से ताजा काव्य बिंबों को चुनने और इस्तेमाल करने में समर्थ हैं।

 संपर्क सूत्र :
 मदन जी का हाता,
 आरा -  80 23 01 ,बिहार ।
मोबाइल नंबर _ 99 311 71 611

लक्ष्मीकांत मुकुल के प्रथम कविता संकलन "लाल चोंच वाले पंछी" पर आधारित कुमार नयन, सुरेश कांटक, संतोष पटेल और जमुना बीनी के समीक्षात्मक मूल्यांकन

लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताओं में मौन प्रतिरोध है – कुमार नयन आधुनिकता की अंधी दौड़ में अपनी मिट्टी, भाषा, बोली, त्वरा, अस्मिता, ग...