Tuesday 10 September 2019

लक्ष्मीकांत मुकुल की काव्यांजलि __कवि केदारनाथ सिंह के लिए

कवि केदारनाथ सिंह को याद करते हुए / 

लक्ष्मीकांत मुकुल

दो बौरायी नदियों के दोआबे में

जन्मी थी एक उम्मीद

जो सोते समय सपनों में मचलती हुई कहती- " यहां से देखो"

तो, कांपता दिख जाएगा माझी का पुल

जागते समय आकाश में सफेद बादलों जैसे

 सरसों की धवल पंख

वह हिंदी कविता का सारस था

जिसके पैर सने थे गांव की सोंधी मिट्टी में

चोंच उठाए अपने हिस्से के नवान्न लिए

वह उड़ान भरता था बनारस, दिल्ली के बसेरों 

तक

भागदौड़ की घड़ी में भी  थके नहीं उसके अजगुत पंख

हिंदी कविता की पक रही जमीन पर वह बरसाता रहा अनछुए बिंबो जैसी बारिशों की बौछारें

गीली -गीली - सी होती रही आठवें नौवें दशक की हिंदी कविताएं

नवांकुरों को रस -प्राण के गुण मिलते रहे

जिसके प्रयोगों से कई पीढ़ियां चीखती रही उसके काव्य - रूपकों से

जैसे हवा के विरुद्ध उड़ने का कौशल सीख जाते हैं बाज के बच्चे

ग्राम्य व शहरी काव्य - रूपों के बीच

एक सीढ़ी था वह कवि

जिसने समझाया कविता में स्थानीयता का बोध

निजता में विश्व दृष्टि की फलक 

जैसे  वीराने में खड़ा एक पेड़

दिसावर से आये पंछियों को सुनाता है

अपने संघर्ष की मिथकीय कथाएं

सीधा शांत दिखता

एकदम खेतिहर कवि लगता था वह

जिसकी कविताओं से फूटती थी

धान रोपनी के अविरल गीतों की ध्वनियां !

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