Tuesday 31 December 2019

संतोष पटेल की नजर में लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताएं

पुस्तक समीक्षा : लाल चोंच वाले पंछी

- समीक्षक: सन्तोष पटेल

काव्य मानवीय संवेदनाओं की अभिव्यक्ति का सर्वाधिक जीवंत माध्यम है।प्रभाव उत्पन्न करने  की दृष्टि से काव्य मानवीय अंतश्चेतना को प्रभूतत: आकृष्ट एवं प्रेरित करता है। अतः अनादिकाल से आज तक कविता का महत्व स्वीकारा गया है।

मैक्सिकन कवि ऑक्टविया पाज ' कविता' को दूसरी आवाज़ कहता है। इतिहास या प्रति इतिहास की आवाज़ नहीं, बल्कि एक ऐसी आवाज़ जो (लय और झंकार तात्कालिकता की) इतिहास के भीतर हमेशा कुछ अलग कहती है।'

ऐसी ही एक आवाज़ लक्ष्मीकांत मुकुल के सद्य: काव्य संग्रह ' लाल चोंच वाले पंछी' में दर्ज है। 59 कविताओं को पढ़ने के बाद लगता है कि कवि का गाँव की मिट्टी से कितना लगाव है। मुकुल ग्रामीण परिवेश में रहना पसंद करते हैं।वे नगर के 'मेडिंग क्राउड' दूर रहकर प्रकृति से करीबी रिश्ता में विश्वास करते हैं। खेत -खलिहान, पोखर, तलाब, नदियाँ, चिरई-चिरुंग से कंसर्न तो हैं ही, साथ ही समाज के मुख्यधारा में अब तक नहीं आये घुमन्तु जन जनजातियों, आदिवासी, महिलाओं के हक-हुक़ूक़ और मरते नदियों के बचाव के लिए भी मुखर हैं। देशज शब्दों से लदी इनकी कविताएं बोधगम्यता को कहीं बाधित नहीं करतीं, वरन सहजता से सम्प्रेषित होती हैं। 

अमेरिकन कवि एडगर ए पोई ( Edger A Poe) लिखता है कि - कविताओं की सबसे अच्छी बात यह है कि सत्य को उद्घाटित करती है और यह एक नैतिकता का संचरण करती हैं और इसी नैतिकता की एक काव्यात्मक योग्यता की परख कविता में ही की जाती है। 
इस संग्रह में एक कविता है - बदलाव। मुकुल ने इस छोटी से गात की कविता में मानो एक बड़ी चिंता को अभिव्यक्त कर दिया है-

"गाँव तक सड़क
आ गई
गाँव वाले
शहर चले गए।"

इन चार पंक्तियों में मुकुल ने भारतीय समाज की समस्याओं और समाधान का एक महाकाव्य रच दिया है। सत्य है कि जहाँ कवि गाँव से नगर की ओर तेज़ी से हो रहे पलायन से आहत है ; लेकिन यह फौरी तौर पर है ,परन्तु जब कविता की अंतवस्तु का विश्लेषण किया जाए ;तो कवि इस 'बदलाव' से आहत नहीं, बल्कि प्रसन्न है कि गाँव वर्ण व्यवस्था का संपोषक होता है ,ऐसी स्थिति में पलायन इस अर्थ में मानवता को सम्पोषित करना का टूल है, जहाँ इंसान जाति नहीं, आवश्यकता और काम से जाना जाता है और तब यह कविता मनुष्यता की भाव - दशा के सबसे करीब है।

इस संग्रह में एक कविता है 'धूमकेतु'। बिंम्बों से लबरेज यह कविता दुनिया में तेजी से हो रहे बाजारीकरण और ग्लोबलाइजेशन की मुख़ालफ़त बड़ी ताकत से करती है। मुकुल इस कविता में बिंम्बों ( image) का करीने से प्रयोग  करते हैं और कविता सबलाइम हो जाती है। उद्दात भाव की इस कविता को देखें-

"चाँद तारों के पार से
अक्सर ही आ जाता है धूमकेतू
और सोख ले जाता है हमारी
जेबों की नमी।" 

मुकुल बिंम्बों का प्रयोग मुक्तिबोध की तरह करते हैं ;जो अर्थ सर्जन करते है ,बोझिल नहीं बनाते। एजरा पाउंड की बात याद रखना चाहिए- उन्होंने बिम्बवादियों को अपने बहुचर्चित आलेख' अ फ़्यू डोनट्स' (1913) में चेताया था कि बिम्ब के नाम पर जरूरत से ज्यादा शब्द विशेषकर विशेषण नहीं प्रयोग करें।' 

मुकुल के काव्य संग्रह से गुजरने के बाद उनकी काव्यशैली (poetic diction) पर कविता की जानिब से बात करना वाजिब होगा। इस संग्रह की बहुतायत कविताएं यथा, लाल चोंच वाले पंछी, कौए का शोकगीत, बसंत आने पर, बदलते युग की दहलीज पर, गाँव बचना, लाठी आदि में देशज शब्दों का प्रयोग लालित्य पूर्ण है-
 
नवम्बर में ढलते दिन की
सर्दियों की कोख से
चले आते हैं ये पंछी
शुरू हो जाती है जब
धान की कटनी
वे नदी किनारे आलाप 
भर रहे होते है।"
( 'लाल चोंच वाले पंछी' कविता से)

कवि प्रवासी पंछियों के कलरव और जल क्रीड़ा  को देख भावविह्वल है। नवंबर माह में हज़ारों किलोमीटर की यात्रा कर विदेशी पक्षियों का आगमन कवि ह्रदय को मुग्ध कर देता है और कवि देशज शब्दों में विदेशों पक्षियों का अभिवादन करता है। इस भाषा को विलियम वर्ड्सवर्थ लिखता है_ Langauage near to the language of man.

मुकुल की कविताओं में ऐसे सहज शब्द जो गाँव के हो, किसान के हो , हलवाहों के हो , चरवाहों के हो  और कविता का विषय भी उनका ही हो, यह सुगमता से दिखता है। 
चमघिंचवा, अदहन, बीजू का तना हुआ लोहबान, बथान, करवन की पत्तियां, जतसार और पराती, पीली मिट्टी से पोता उसका घर, लाल सिंहोरा, चितकाबर चेहरे, ड़ेंगी, बिअहन अन्न के दाने, हल-जुआठ और झँउसा आदि अनेक शब्द ग्रामीण जीवन की सहजता को सम्प्रेषित करते हैं।

मुकुल की कविताएं सामाजिक सरोकार रखती है उसका एक उदाहरण हम उनकी कुछ कविताओं में देख सकते हैं जैसे सियर -बझवा। सियर-बक्षवा या सियार मरवा यह एक स्थानीय नामकरण है ,दरअसल यह एक घुमन्तु जन जाति (नोमेडिक ट्राइब) होते हैं। ऐसी बंजारा जाति खानाबदोश का जीवन जीती है और अपने भोजन के लिए बिलाव ,स्यार आदि जानवरों का शिकार कर अपना भोज्य बनाती है। ये यायावर  जातियां देश की मुख्यधारा से कोसों दूर हैं और आदिम युग में जीने को अभिशप्त है। कवि उनकी दशा को अपनी कविता में उल्लेखित करता है -

"दौड़ रहे हैं उनके पांव
समय के हाशिए की पीठ पर
वे सिंयर-बझवे हैं
शिकारी कुत्तों के साथ उछलते हुए
जैसे कोई प्रश्न प्रतीक।" (सिंयर-बझवा)

जर्मन कवि बेन ने कहा है कि आदर्श कविता वह है जो आदि से अंत तक कविता ही कविता है, जिसके भीतर न तो कोई आशा है, न विश्वास जो किसी को भी सम्बोधित नहीं है, जो केवल उन्हीं शब्दों का जोड़ है, जिन्हें हम मोहिनी अदा के साथ एकत्र करते हैं। परंतु मुकुल की कविता बदलते गाँव के बानगी है-
" जिस जमाने में
गांवों जैसे बनने को आतुर हैं शहर
और शहर जैसे गाँव
जिन घरों में बजती थी काँसे की थाली
गूंजते थे मंडप में ढोल की थाप
जिस जमाने में गाये जाते थे
होरी-चैता कजरी के गीत
कहीं बैठती थी बूढ़ों की चौपाल।"

इस कविता में कवि परिवर्तन को बहुत आसानी से स्वीकार नहीं कर पाता। वह इस परिवर्तन के कारण लगातार नॉस्टेल्जिया से जूझता रहता है। कवि को बुद्ध के उस सन्देश याद रखना था। बुद्ध के अनुसार "परिवर्तन ही सत्य है। पश्चिमी दर्शन में हैराक्लाइटस और बर्गसाँ ने भी परिवर्तन को सत्य माना। इस परिवर्तन का कोई अपरिवर्तनीय आधार भी नहीं है। बाह्य और आंतरिक जगत् में कोई ध्रुव सत्य नहीं है।"

मुकुल की कविताओं में प्रतीकों का प्रयोग बहुतायत है जो मूर्त नहीं हो पाती हैं ,जिसके कारण पाठक इन कविताओं में उलझ जाता है ,क्योंकि अर्थवत्ता के आधार पर पाठक को कुछ रचनाएँ सहजता से समझ नहीं आती। 

वैसे बिम्ब विधान में जो सम्मुर्तन और चित्रोपमता की प्रधानता होनी चाहिए थी ,वह कुछ कविताओं में नहीं हैं जिसके कारण कुछ कविताएं सम्प्रेषण के स्तर और कमजोर हैं। पाठक बेकन के शब्दों में उन कविताओं का टेस्ट भर करता है, रसास्वादन नहीं। 
बाबजूद इसके कवि की कारयित्री प्रतिभा इस कृति में दिखती है और कविता प्रेमियों को इसे जरूर पढ़ना चाहिए। इस बेहतरीन कविता संग्रह के लिए लक्ष्मीकांत मुकुल बधाई के पात्र है।

कृति- लाल चोंच वाले पंछी
रचनाकार- लक्ष्मीकांत मुकुल
विषय- कविता
प्रकाशक- पुष्पांजलि प्रकाशक, दिल्ली,
संस्करण- 2016
मूल्य-  रुपये 300

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