Sunday 2 April 2023

लक्ष्मीकांत मुकुल की भोजपुरी में आत्मकथा


हमार रामकहानी
_ लक्ष्मीकांत मुकुल



भोजपुरी भाषा हमनी के महतारी भाषा होखला के कारन बचपने से बोलत रहीजा। बाकिर ओकरा लिखित रूप के बारे में हमरा निकहा से जानकारी बक्सर के विजयानंद तिवारी से 1991 में मिलल, ।ओह घरी ऊ ' जगरम' पत्रिका निकालत रहन। ओही  पत्रिका के पढ़े के क्रम में भोजपुरी के लिखित रूप में हम पढ़े के अभ्यास कइलीं। भोजपुरी त हम बहुत आसानी से बोल लेल रहीं, बाकिर पढ़े शुरू करलीं, त बड़ा कठिनाई महसूस होखल लागल । ई कठिनाई के कारण रहे कि अब तक हम हिन्दीये में पढ़े लिखे के काम करत रहीं। पढ़े में ई भाषा बड़ा अटपटाह लागे आ जब-जब भोजपुरी के ठेठ शब्द आवसन त पढ़ के हँसियो बरे। काफी अभ्यास के बाद हम भोजपुरी के पढ़े लायक अपना दिल दिमाग के तेयार कइलीं। पढ़ला के क्रम में हम एगो बात महसूस करलीं कि भोजपुरी बोली के एगो समृद्ध भाषा बनाने में लिखवइया लोग ओह शब्द भंडार के नइखे जोह पावत। जवना शब्दन के आज से पचास बरिस पहिले हमनी के पुरखा पुरनिया इस्तेमाल करत रहन | भोजपुरी में ठेठ गंवई, निपुन देहाती धुन- गुन के शहरी  वातावरण में आके मनई भुला गइलन। धुर शब्दन आ मुहावरन के उपयोग के उतजोग करे के चाहीं_ ई हमारा मानना रहल बा।

बचपन में हम बड़ा सहजभउरी आ बिसभोरी
के शिकार रहीं। कवनो भी चीजन के, बातुस के रंग, गुन, पहचान, निरखे, बुझे आ इयाद रखे के ओर हम धेयान ना देते रहीं। एक बेर हमार बाबा हमरा से सुबह के समय में कहल कि हरवाह लोग हर आ जुआठ के लेके गोहींढ़का घाट के पास के खेत पर 'करइलवा' में जा रहल बा। तू अपना चारो बैलन के लेके ओहिजा पहुँचा द | हम बैलन के हांकत चल दिहनीं। गली में आगे गइला प एगो तिराहा रहे, हम उत्तर से दखिन का ओर  बैलन के  ले जात रहीं। अतने में देखली कि कुछ अउर आदमी अपना बैलन के लेके पश्चिम पुरुब दुनु ओर से आवत बाड़न। तिराहा पर ले हमरा ओह बैलन के पूरब दखिन होखे रहे। हमरा कुल बैल आउर आदमी के बैलन के हेंडा में आ गइलसन आ कुछ पुरुब आ  कुछ पछीम ओर भागे लगलसन।हम भकुआ  गइली कि एह झुंड में हमार बैल कवन हवसन | हमरा के उजबुक , बुरबक आ भोला-भाला समझ के गाँव के कुछ लोग हमरा बैलन के हिगरवलन तब ओहनी के लेके हम हरवाहीं त पहुँचनीं ।

एही तरी एक बेर हमरा के गाँव से पुरुब खेत में पानी चढ़ावे खातिर भेजल गइल | खेत में धान लागल रहे। करहा से आउरी आदमी के खेतन से मोहानी काटत पानी के राह सरियावत खेत के पटा दिहनी। बाद में पता चलल कि जवन खेत के पटवनी, ऊ हमार खेत ना, दोसरा के रहे।

अइसन भूल हमरा बचपन में खूब होखल | बाकिर एकरा से हमरा सीखो मिलल कि आदमी के अपना चीजन के पहचान पक्का होखे के चाहीं आ एकरा खातिर अपना दिमाग आ बुद्धि के चोख रखे के चाहीं, अपना हर गलती से सीखे के चाहीं। तबे जिनगी सुबहिल निबह सकेला| हमरा गाँव के भेंड़ चरावे वाला लोग के भेड़ अउरी भेड़ीहारन के  झोंझ में चल जालीसन, तबो ऊ लोग अपना भेंड़न के पहिचान लेला।

अइसन कई गो आउर घटना हमरा लइकाइँ में घटल, जेकरा से हम आपन राह सुधारे के काम कइलीं। हमरा भइंस चरावे में बड़ा मन लागत रहे।  गोरू के चरवाही सभसे  निश्चिन्त के काम मानल जाला।  बाकिर जब भइंस लेवाढ़ मार के मांके लागेलिसन आ
 आपस में सिंघ लड़उवल  करे लागेलिसन, त बड़ा दिकदारी होला। अइसहीं एक बेर हमार भइंस दोसरा भइंस से  लड़े लागलिसन, ई देखि के ओहनी के छोड़ावे खातिर बाती ले के दउरलीं, तले हमार दहिंवारा गोड़ दरार में ठेहुना भर  घुस गइल। हमार इलाका भरकी के माटी वाला ह, हम चीताने गिर गइनीं। आउर चरवाह भाई दउर के हमार गोड़ के निकलन जा।  गनीमत रहे गोड़ टूलल ना, बलुक कुछ चमड़ी छीलाइये के रह गइल। एह घटना के बाद हम बुझ गइली,  कि चले - दउरे-घुमे के बेर  बढ़िया तरी राह देखि के चले के चाहीं | कहले जाता कि सावधानी  हटल, त दुरघटना घटी।  
  चरवाही के जीवन दुनिया के सभसे सुखी जीवन ह, कहलेे जाला _
पढ़ब लिखब होइब ऊद,
भईंस चरइब मिली दूध।

हम जवना क्षेत्र के हई ऊ  ईलाका भरकी के इलाका कहल जाला। एहिजा के आदमी हेंठार आ पूरबहुता बाल के आदमी से कुछ अलगा बुद्धि विचार के होलन, जवना के चरचा हम अपना लमहर कविता "भरकी में आइल भइंसा" में कइले बानी _

आवेले ऊ भरकी से
कीच - पांक में गोड़ लसराइल
आर-डंडार प धावत चउहदी 
हाथ में पोरसा भ के गोजी थमले
इहे पहचान रहल बा उनकर सदियन से
~~~~~
शहर के सड़की पर अबो
ना चले आइल उनका दायें-बायें
 मांड़-भात खाए के आदी के रेस्तरां में 
इडली-डोसा चीखे के ना होखल अब ले सहूर
उनकर लार चुवे लागेला
मरदुआ-रिकवंछ - ढकनेसर के नांव प 
सोस्ती सीरी वाली चिट्ठी बांचत मनईं
न बुझ पावल अबले इमेल-उमेल के बात 
कउड़ा  त बइठ के गँवलेहर करत
अभियो गंवार बन के चकचिहाइल रहेले
सभ्य लोगन के सामने बिलार मतिन 
गोल-मोल-तोल के टेढ़बाँगुच
लीक का भरोसे अब तक नापे न आइल 
उनका आगे बढ़ चले के चाह 

मॉल में चमकऊआ लुग्गा वाली मेहरारू
कबो न लुझेलीसन उनका ओर
कवलेजिहा लइकी मोबाइल प अंगुरी फेरत चोन्हा में 
कनखी से उनका ओर बिरावेलीसन मुंह 
अंग्रेजी में किड़ बीड बोलत इसकोलिहा बाचा
उनका के झपिलावत बुझेलसन दोसरा गरह के बसेना
शहरीन के नजर में ऊ लागेलन गोबरउरा अस 
उनका के देखते छूछ्बेहर सवखिनिहा के मन में भभके लागेला
घूर के बास, गोठहुल के भकसी, भुसहुल के भभसी !

एक बेर  अपना गाँव के आउर लइकन के देखा-
देखि आ कहा-सुनी में पड़ के हमरो चोरी करे के ललक जागल। हम बाबा के कुर्ता के थइली में से
चउदह गो रुपया चोरा लेलीं । बाकिर ई समझ में ना आवत रहे कि एक माल के कहवां रखल जाव। काफी सोच- विचार के हम ओह रूपेया, जवन दस रोपेया के एगो नोट आ अठन्नी चवन्नी सभ  मिला के रहे, ओकरा के गोईंठा वाला घर में घुर माटी में गाड़ देनी। बाकिर, पता ना कइसे बाबा के ई थाह चल गइल आ उनुका से आपन गलती कबुले के पड़ल। हर बात से हमरा बड़ा झटका लागल, ओही घरी से चोरी वाला बुद्धि के त्याग देनीं।ना त आज हम लिखवइया के जगहा पर चोर उच्चका भ गरल रहीतीं।

हम बचपन में बड़ा डेराहुँक रहीं, भूत-प्रेत में नाँव से बहुते भय लागत रहे । गांव-घर के लोग आ साथी संघतियन से ऐकरे बड़ा बतबूचन सुनत रहीं। लोग बतावे कि एह फेंड पर चूरइल रहले त ओह घनगर गांछी प राकस | एह अहरा में हई मर के भूत
भ गइल बा, त नदी के ऊ घाट पर कवनो बूड़ा।  ई सुन-सुन के हमरा में शंका बढ़त गइल कि
छत पर रात में अकेले सूतला पर चिरई के रूप ध के कवनो बैताल आ के मार  मार-मुआ दीही।
एब बेर के बात ह, हम सासाराम से आवत रहीं। तब रास्ता आ साधन के अतना सुबिधा ना रहे। दिनारा से बस से उतर के, साढ़े तीन कोस के राह पैदल चल के हम अपना गाँव के नदी त अइलीं । सांझ के झुलफुलाह के बेर हो गइल रहे आ नदी लबालब कोर तक भरल रहे ।धार ओतने तेज आ ओह में लहर ठहीं- ठहीं चकोह आ घड़ारी मारत रहे। जब हम नदी के गांव के रहे वाला रहीं, अबे नवका पंवरनिहार। हम आपन कपड़ा खोल के झोरा में रख के दिहनी, आ एक हाथ में झोरा झकड़ी उठवले, एक हत्थी नदी के धार काटत पंवर के एह पार अइनी। पानी के बहाव खूबे जोर लगावले रहे। हमरा के बहवा देवे खातिर। अतने में नदी के कगरी प के झूर हमरा हाथे पकड़ा गइल । झोरा  के जोर से हम अरार प फेंकनी आ गते - गते नदी के तीर चढ़ गरलीं। तब तक अन्हारी- बन्हारी छवले आवत रहल, तले  हमार नजर नदी के कोन्हा पर के जामुन के बगइचा  का ओरे गइल, हमरा ईयाद परल कि लोग कहेला कि ओकरा में भूतन के बसेरा बा। ओहिजा दिन दुपहरिया में भूत घूमेलसन । हम भींजल देहें ओहीजा से भगलीं, आ बुढ़वा  ईनार के पास एके दउरकिये आ गइली , जहवां से  पूरब गली के सोझ  पर हमरा घर रहे।  तले हमरा खेयाल आइल कि ऐही कुइंया में त एगो मेहरारू कूद के कवनो जबाना में मुअल रहे। हम फेनु ले चउकड़िया मरनीं आ उत्तर ओरे गाँव के अहरा वाली सड़क त पहुंचनीं । फेनू ईयाद भइल कि एहु में भूत रहेले, हम फेर भाग के गांव के मुख गली में पहुँचलीं। ओहिजा एक दू गो आदमी भेंटइलन , तब हमार जान में जान आइल।

नदी के गांव के लोगन के एगो अलग तरह के सुख-दुख होला। गर्मी के दिन में नहाये, गोरू बछरू के पानी पियावे आ धोवे के सुख होला । त बरसात में
भीषण बाढ़ में फसल के बरबाद होखे के दुख । ऊँच-खाल सीढ़ीनुमा टंढ़गर खेत छटका माटी वाला, आज पटवलीं तक राते में खेंखड़ा मेड़ चाल के, भव कके पानी बहवा दीहसन। पहिले हमरा गाँव  के नदी
में खूबे बाढ़ आवत रहे, हप्ता दिन रह जाये। एह बीच कवनो कनिया के तीज तेवहार के पाहुर लेके नईहर से कवनो पेठवनिया कपड़ा- लाता, चीझू बतुस  कपारे 
लदले सिवान तक आवस , त नदी के ओही
पार से गोहरावस । तब गांव के कवनो आदमी एगो बड़हन कठवत लेके जासु आ ओमे ओह आदमी के समान के संगे बइठा के नदी पार करा के ले अावस। हर गांव आ जगह के लोगन के रहन सोभाव में गुन - अवगुन पावल जाला। कविता के भाखा में कहल जाव त _


हमार गांव
एकदमें बा उजबुक
गली - गुचा से भरल
नलियन में बहेला 
गचकी पर चलेला
चौराहता पर सुतेला
रहि - रहि के भइंस लेखा
मरेला लेवांड़ 
त कबो भकुआ के जगेला
हुंड़ार से हमार गांव



सिवाने से सुनला
धप - धप के आवाज
मन में उठेला सवाल 
कि कवन कुटाता
घान आ कि आदमी
बड़ेंरा पर उचरेला  कउआ
मन में उमड़े ला ज्वार
खटउर के आस -पास के
सनसनाहट से 
बुझाला जे घबराता हमार गांव।

बचपन में हमरा रेडियो सुने के सवख जाग गइल।
ऊ जमाना में रेडियो के बड़ा महत्व रहे। बेतार के बाजा | एगो अइसन डिब्बा रहे, जवना से
खाली बोली- बानी भा बाजा-गाजा के अवंज आवत रहे। हालाकि रेडियो ओह घरी बहुते कम घरन में रहे। हमरा ओह दिन के इयाद आजो ताजा बा कि अक्टूबर- 84 के  संझली बेरा रेडियो पर ई खबर चलत रहे कि प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी के  केहू मार देले बा | हम सांझ के घरी खेले जा रहीं, गली में भेंटात लोग आ नदी के तिरवानी पर गेंदा खेलत लइकन के एह विषय में कवनो पता ना रहे। हमरा गाँव एकदम निचाट में बसल रहे। दुनिया भ के हलचल आ उथल- पुथल से कोसो दूर। जहवाँ से कवनो पक्की सड़क के दूरी तीन-चार कोस से कम ना रहे। रेडियो सुनत हम हम देश-विदेश के बारे में जननीं । रेडियो मित्र कई गो बनल या रेडियो कल्बो बनवलीं | बी.बी.सी., विविध भारती, वॉयस आफ  अमेरिका, रेडियो मास्को, रेडियो ताशकंद सुनला के ओहे घरी बड़ा महत्व दिहल जा रहे । केहू कवनो बात बी. बी. सी. से सुनला के परतोख देते रहे त सभे मान लेते रहे। ओही बीच हम एक दिन सुननीं कि हिन्दी के महान कवि अज्ञेय गुजर गइल बाड़न | हमरा उनका  बारे में जाने के लालसा जागल । हम अपना हाई स्कूल के हिन्दी शिक्षक से अज्ञेय के बारे में पूछनी, बाकिर ऊ त उनकर नामो ना सुनले रहन | उनका कहनाम रहे कि हिन्दी में कवि नांव के जीव सूर, तुलसी, कबीर आदि के जमाना से लेके छायावाद तक होखल। अब ई जीव विलुप्त हो गइल बाड़न । अब ऊ प्रजाति एह पृथ्वी प नइखे रह रहल | उनका से जब हम छायावाद के विषय में पूछलीं, त ऊ कहलन कि एह बारे में हम  नइखी पढ़ले ।

कविता के दुनिया से हमरा लगाव बी. बी. सी. हिन्दी में काम करत पंकज सिंह के कवितन के पाठ
सुन के होखल। हमार भरमा टूटल।  हम पवली कि कवि नाँव के जीवधारी अबो मिरित भूवन 
 पर बाड़न । हमहूँ कवि बने खातिर उत्सुक भरलीं। हमरा एह सिलसिला के बढ़ावे आ संवारे में 
बक्सर के कवि पत्रकार शिशिर संतोष, रत्नेश आ कुमार नयन के बड़ा सहयोग मिलल ।

हम अपना समउरिया लइकन लेखा चरफर ना रहीं।
आउर  लइका लइकिन के देखि के बड़ा खुदबुदात रह सन, गली-गूचा में नीमन चेहरा देखे खातिर
भोर - सांझ, दिन दुपहरिया में चक्कर काटत रहसन, बाकिर हम ओकरा  ओरे तनिको धेयान ना देत रहीं।
प्रेम का होला... कइसे कइल जाला...? एकर फरमुला हमरा पता ना रहे। हम भोला-भाला आ बड़ा लजकोंपड़ रहीं। स्त्री-पुरुष सम्बन्ध से अनजान | एही  बीच हमार बिआह होखल, बाल-
बच्चो घर में अइले। बाकिर पेयार मुहब्बत के मरम, ओकर रूप भा गुन से हम एकदम अनजाने
रह गइलीं। कवनो लइकी, मेहरारू हमरा के एह बावत ईशारा ना कइलीसन| समय बीतत गइल
आ एही बीच हमरा जिनिगी के एगो भयंकर घटना घट गइल। भइल कि बिहार
में शिक्षक बहाली के रूप में पंचायत शिक्षा मित्र के बहाली आइल। हमारा पत्नी के चयन भ गइल।
नियुक्ति पत्रो मिल गइल। बाकिर हमार पंचायत के मुखिया छल करि के ओजिनल नियुक्ति पत्र ले लिहलस, एह  बात  के भरोसा देत कि बीडीओ से साइन कराके लवटा देब । बाकिर ऊ लवटवलस ना ।
ओह नियुक्ति पत्र प  से इनकर नांव मिटका के दोसरा  के नियुक्ति कर देलस। हम एकरा बिरोध में
अफसरन किहाँ गइलीं । बाकिर एह भ्रष्टाचारी बिहार में हमार बात के सुनो। हमनी के बहुत
दुतकारन गइलीं जा । तब कोर्ट कचहरी के चक्कर चलल। अंत में बहाली आ योगदान भइल।

एह चक्कर में दउड़ा- दउरी के बीच हम कई दिन बिना खइले रह जात रहीं। हिन्दू औरत अपना पति के जीवन के खुशहाली के कामना करत तीज व्रत रखेली। हम त अपना पत्नी के कानूनी लड़ाई  के जुझार में कतने दिन भूखल - पियासे रह गइलीं । त हम हमरा बुझाई कि प्रेम का होता। काहें केहू खातिर जीयल - मुअल जाला। प्रेम के महत्ता हमरा तबे समझ आइल। हम दुनिया के शायद अकेला आदमी बानी, जे अपना  दैहिक आ मानसिक सुख त्याग  के जाने-अनजाने में भूखाइले रहल। शायद ईहे चीज हमार  जिनिगी  के सभसे बड़ उपलब्धि बाटे।



#########
 लक्ष्मीकांत मुकुल
जन्म तिथि - 08.01.1973
शिक्षा - विधि स्नातक
सम्प्रति - किसानी आ वानिकी।
प्रकाशन - *लाल चोंच वाले पंछी, घिस रहा है धान का कटोरा* ( दो कविता संकलन) आ ग्रामीण इतिहास के  शोध पुस्तक *यात्रियों के नजरिए में शाहाबाद* प्रकाशित।भोजपुरी काव्य संग्रह "काव्या " आ हिंदी कविता संग्रह " कसौटी पर कविताएं" आदि सहयोगी संकलनों में प्रकाशित।
सम्पादन - कुछ समय तक *भोजपुरी वार्ता* आ *भोजपुरी लहर* के संपादन।
सम्बद्धता - बिहार प्रगतिशील लेखक संघ।
सम्मान/ पुरस्कार - राजभाषा विभाग,बिहार आ बिहार उर्दू निदेशालय,पटना द्वारा पुरस्कृत। बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के वर्ष 2020 में *हिंदी सेवी सम्मान*।
उर्दू भाषा अाउर लुप्त प्राय लिपि कैथी पर गहिरा पकड़।

ई मेल - kvimukul12111@gmail.com

©Lakshmi Kant Mukul 

No comments:

लक्ष्मीकांत मुकुल के प्रथम कविता संकलन "लाल चोंच वाले पंछी" पर आधारित कुमार नयन, सुरेश कांटक, संतोष पटेल और जमुना बीनी के समीक्षात्मक मूल्यांकन

लक्ष्मीकांत मुकुल की कविताओं में मौन प्रतिरोध है – कुमार नयन आधुनिकता की अंधी दौड़ में अपनी मिट्टी, भाषा, बोली, त्वरा, अस्मिता, ग...