Wednesday 11 October 2023

लक्ष्मीकांत मुकुल की कविता का बांग्ला में अनुवाद

Malda (West Bengal) के  शिक्षक श्री मसूद सरकार ने मेरी एक कविता का  बांग्ला भाषा में काव्यानुवाद प्रस्तुत किया है , जिसके लिए मैं उनका हृदय से आभारी हूं। 
 मित्रों के अवलोकन के लिए प्रस्तुत है_ वह अनुवाद और उसका हिंदी में उच्चारण और मूल कविता पाठ....!

বর্ষার বৃষ্টির প্রথম ফোঁটায়-
ভিজে যাচ্ছে সবুজে ঘেরা গ্রাম,
ভিজছে সুদূর অবধি ছড়িয়ে যাওয়া চাষের জমি।
খুব কাছের নদীটিও ভিজছে,
আর ভিজছে খালের পাড়ে একা দাঁড়িয়ে থাকা পিপল গাছ।
বাতাস কাঁপুনি ধরাচ্ছে, ভিজছে হাঁসের দল,
ভিজছে মাঠে চরতে আসা ছাগল;
ভেঙে পড়ছে ভিজে স্যাঁতসেঁতে আমার বাড়ি আদল।

একাত্ম মনে দাঁড়িয়ে আছো তুমি।
ভিজে যাচ্ছো হিমেল হাওয়ার পরশে,
ধেয়ে আসা এক-একটা তির্যক বৃষ্টির ফোঁটার হাত ধরে।

খোলা মাঠে সিক্ত হয়ে,
ফিরছি আমি তোমার কাছে;
ফিরছি আমি আকুল হয়ে একবার তোমায় দেখবো বলে।
ঠিক যেমন আকাশ থেকে ধেয়ে আসা বৃষ্টির ফোঁটা,
ব্যাকুল থাকে শুকনো মাটি থেকে উত্থিত পৃথিবীর গন্ধের স্পর্শ পেতে।
 
- লক্ষ্মীকান্ত মুকুল

 { হিন্দি থেকে বাংলা অনুবাদ _মাসুদ সরকার }

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बांग्ला लिपि से देवनागरी लिपि में उच्चारण_

बर्षार बृष्टिर प्रथम फोँटाय़-
भिजे याच्छे सबुजे घेरा ग्राम,
भिजछे सुदूर अबधि छड़िय़े याओय़ा चाषेर जमि।
खुब काछेर नदीटिओ भिजछे,
आर भिजछे खालेर पाड़े एका दाँड़िय़े थाका पिपल गाछ।
बातास काँपुनि धराच्छे, भिजछे हाँसेर दल,
भिजछे माठे चरते आसा छागल;
भेङे पड़छे भिजे स्याँतसेँते आमार बाड़ि आदल।

एकात्म मने दाँड़िय़े आछो तुमि।
भिजे याच्छो हिमेल हाओय़ार परशे,
धेय़े आसा एक-एकटा तिर्यक बृष्टिर फोँटार हात धरे।

खोला माठे सिक्त हय़े,
फिरछि आमि तोमार काछे;
फिरछि आमि आकुल हय़े एकबार तोमाय़ देखबो बले।
ठिक येमन आकाश थेके धेय़े आसा बृष्टिर फोँटा,
ब्याकुल थाके शुकनो माटि थेके उत्थित पृथिबीर गन्धेर स्पर्श पेते।

- लक्ष्मीकान्त मुकुल

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मूल हिंदी कविता :--

मानसून की पहली बूंदों में
भीग रहा है गांव
 भीग रहे हैं जुते -अधजुते खेत
 भीग रही है समीप की बहती नदी 
भीग रहा है नहर किनारे खड़ा पीपल वृक्ष
 हवा के झोंके से हिलती 
भीग रही हैं बेहया ,हंइस की पत्तियां
भीग रही हैं चरती हुई बकरियां
 भीग रहा है खंडहरों से घिरा मेरा घर

ओसारे में खड़ी हुई तुम
भीग रही हो हवा के साथ
तिरछी आती बारिश - बूंदों से

खेतों से भीगा - भीगा
लौट रहा हूं तुम्हारे पास 
मिलने की उसी ललक में
जैसे आकाश से टपकती बूंदें 
बेचैन होती है छूने को 
सूखी मिट्टी से उठती 
धरती की भीनी गंध ।
_ लक्ष्मीकांत मुकुल

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