Thursday 7 November 2019

हिंदी कविता में समकालीनता _आलेख_ लक्ष्मीकांत मुकुल

हिंदी कविता में समकालीनता/ लक्ष्मीकांत मुकुल




कविता मानव- मन की अनुभूति से उपजी एक सहज अभिव्यक्ति का माध्यम आरंभिक काल से रही है ।समय के साथ साहित्य और कला की अनेक विधाओं का विकास होता गया, इसके बावजूद कविता का वजूद अभी भी केंद्रीय भूमिका की है । कवि का मन अनुभव के आधार पर अपने दौर की जलती भट्टी के भीतर से लाल होकर निकलता है और निर्वैयक्तिक भाव से जन- पीड़ा को शब्द देता है।मानवीय स्थितियों , मूल्यों और शंकाओं पर वह टिप्पणी करता है । सवाल यह है कि कवि का कार्य इतना ही है कि वह दूर से टिप्पणी करता रहे ? इसका हल है कि कवि को जन समूह में कूदना पड़ता है ,उसे जनता का सहयोगी -सहकर्मी बनना पड़ता है और जरूरत हुआ तो स्थापित और जड़ हो चुके व्यवस्था के खिलाफ हर जोखिम उठाकर उसे विद्रोह करना होता है।

समकालीन कविता हमारी परिचित दुनिया  के अनुभव को रचनात्मकता से विस्तृत , गहरा , तीखा और नवीन बनाती है। यह अवश्य है कि रोजमर्रा के इस अनुभव संसार को ठीक से रचने में कवि कभी -कभार चूक भी कर जाता है। सार्थक मूल्यवान अनुभव ही समकालीन कविता की शक्ति है ।सच्चे कवि के लिए मानव द्रोही राजनीति का विरोध आवश्यक है ।इतना ही नहीं ,आज की जिंदगी पर सार्थक मुद्दे उठाने वाला कोई भी कवि इस प्रश्न से बच नहीं सकता ।राजनीति कवि के अस्तित्व और व्यक्तित्व से जुड़ी है। आज का कवि इससे बिना टकराये नहीं रह सकता।असमर्थ कवि इस सच्चे अनुभव को व्यक्त नहीं रह सकता,जबकि समर्थ कवि इस सच्चे अनुभव को खौलाकर कहे बिना नहीं रह सकता।



हिंदी कविता में जीवन समग्रता, संश्लिष्टता, सगुंफन और सफलता का अधिकाधिक समावेश होता जा रहा है । यह हमारी कविताएं की रचनाशीलता का वह दौर है ,जब साहित्य की दुनिया में सृजन और कलात्मकता के नए -नए आयाम उद्घाटित हुए हैं और जीवन ,प्रकृति ,मनुष्य और समाज की सूक्ष्मता तथा सोच के गंभीर और व्यापक होते जाने की आकांक्षाएं सामने आने लगी हैं।अब रचनाशीलता किसी खास विचारधारा की मोहताज नहीं रह गई है ,बल्कि उसके लिए मनुष्यता का बोध एक सर्वमान्य विचारधारा की तरह सामने आया है।

आठवें दशक की कविता में आत्मस्फीति ,ठहराव और सीमित भाव भूमि पर लिखी कविताएं मिल जाती हैं ,वहीं दूसरी ओर गौर से देखें तो पता चलता है ,नवें दशक की कविता अपनी कुछ विशिष्ट विशेषताओं के साथ मौजूद है, इसकी भाषा यथास्थिति और यथार्थ की गतिरोध को तोड़ने वाली है और हालात में जोरदार दखल देने की सामर्थ भी रखती है ।वर्तमान दौर की कविता अपने समय को समग्रता में पहचानती व रेखांकित करती है ।अतीत की अच्छाई को स्वीकार करने व अस्वस्थ को नकारने का साहस भी उसमें है। पिछली सदी का अंतिम दशक और वर्तमान के इन दोनों दशकों में हिंदी कविता के काव्य स्वर में समकालीन अंतर्विरोधों का उद्घाटन है, प्रतिगामी सोच पर प्रहार है, ग्रामीण अंचल की सुगंध भी इसमें है और देशज शब्दावली  का यथा आवश्यक प्रयोग भी है । विविध प्राकृतिक दृश्यावली ,चरित्र और सौंदर्य जनित वैविध्य, ये सब मिलकर वर्तमान हिंदी कविता के जीवंत स्वरूप की संरचना करते हैं। इसमें बहुआयामी संजीवन क्रियाओं तथा कार्य व्यापारों के बीच से रचनाकार के निजी वैशिष्ट्य की ठोस ,वास्तविक आश्वस्त कारक प्रस्तुति मिलती है ।जीवन नैरंतर्य तथा संघर्षशीलता इस कविता का एक अतिरिक्त सकारात्मक पक्ष है। समकालीन कविता में अर्थ गर्भ संकेतिका को पायी जाती है ,जो कथ्य की गरिमा तथा शिल्प की सहजता के साथ मौजूद रहती है ।मौजूदा दौर की कविता में यथार्थ और संवेदना की टकराहट से उपजी जटिलता देखी जा सकती है। अतएव
उसमें दुर्बोधता का कोई अवकाश नहीं होता ।सहजता ,सरलता ,अंतरंगता और औपचारिकता इस कविता की खास गुणों में है। इस कविता में मनुष्य जीवन और उसकी मनुष्योचित संघर्षशीलता ही केंद्र में है।


इधर कुछ दशकों में से दलित साहित्य, स्त्री प्रश्न संप्रदायिकता और आदिवासी समाज के सवाल  भी हिंदी कविता के समक्ष रहे हैं और नए अनुभवों को आत्मसात करती हिंदी कविता विस्तृत और पुष्ट हुई है । वैश्विक स्तर पर हो रहे समाजार्थिक बदलाव  तथा सोशल मीडिया के बढ़ते प्रभाव से हिंदी कविता की समकालीन धारा प्रभावित हो रही है। मुख्यधारा की कविता के पाठक जहां कम होते जा रहे हैं, वही हिंदी गजल और दोहा जैसी विधाओं की लोकप्रियता अपनी ऊंचाइयां छू रही हैं।



क्या यह टकराव कविता की मुख्यधारा और लोकप्रिय धाराओं के बीच का प्रभाव है....? इस पर विचार आवश्यक है, क्योंकि कुछ वर्ष पहले विश्व प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार साहित्य के क्षेत्र में परंपरागत विधाओं को न देकर एक गीतकार को दिया गया था ।अमेरिका के गीतकार बॉब डिलन को नोबेल पुरस्कार दिया जाना  क्या कविता के कथ्यगत  शिल्प में बदलाव लाने पर बल देगा ? यह प्रश्न अहम है ।वजह यह है कि हमने श्रेष्ठता बोध के साहित्य को अपनी मुगालता का आधार माना और लोकप्रिय साहित्य से दूरी बनाए रखी। भोजपुरी के महेंद्र मिसिर, भिखारी ठाकुर, हीरा ठाकुर ,केशव रत्नम ,विजेंद्र अनिल, गोरख पांडे और सुरेश कांटक  जैसे जनधर्मी गीतकारों के गीतों को हम समकालीन कविता के समक्ष तुच्छ समझते रहे ,जबकि वे सब कविताएं भी जनता की पीड़ा से उपजी थीं। 

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